Home / फिल्म समीक्षा / क्यों जाएँ ‘जय गंगाजल’ देखने?

क्यों जाएँ ‘जय गंगाजल’ देखने?

आज महाशिवरात्रि है. आज ‘जय गंगाजल’ फिल्म की समीक्षा पढ़िए. प्रकाश झा की फिल्म है, मानव कौल की एक्टिंग है, बिहार की राजनीति है. निजी तौर पर मुझे प्रकाश झा की किसी फिल्म ने कभी निराश नहीं किया. बहरहाल, इस फिल्म की एक अनौपचारिक, ईमानदार समीक्षा लिखी है युवा लेखिका अणुशक्ति सिंह ने. अखबारों में, वेबसाइट्स पर इस सिनेमा को मिले स्टार्स को देखकर फिल्म देखने, न देखने का मन बना रहे हों तो एक बार इस खुली-खुली सी समीक्षा को भी पढ़ लें- मॉडरेटर
=============

जय गंगाजल क्लीशे है। वही घिसीपिटी कहानी… एक ईमानदार पुलिस अफसर, बेईमान नेता, ईमानदार अफसर के पीछे भ्रष्ट पुलिस अधिकारियों की फ़ौज। कुछ भी तो नया नहीं है इस फ़िल्म सिवाय इस बात के कि इस बार पुलिस ऑफिसर कोई दंबग शर्ट फाड़ने वाला आदमी नहीं, एक दुबली पतली चट्टान से इरादों वाली लड़की है। ये भी कम्पलीट यूनिक नहीं है… महिला सुपर कॉप तो हम पहले भी देख चुके हैं। मर्दानी वाली रानी मुखर्जी तो अभी कुछ ख़ास पुरानी भी नहीं हुई… फिर क्यों जाएँ, जय गंगाजल देखने?
मेरे पास भी जय गंगाजल देखने की कोई ख़ास वजह नहीं थी सिवाय इस बात के कि ये प्रकाश झा की फ़िल्म थी। हाँ, प्रियंका चोपड़ा, मानव कौल और खुद प्रकाश झा के एक्टिंग का सुपर पैक इसमें बोनस था। लेकिन सबसे बड़ी बात ये थी कि ये उस प्रकाश झा की फ़िल्म थी जो समाज के मुद्दों को चलते-चलते हमारे ज़हन में डाल देते हैं। माना कि उनकी फ़िल्में ड्रिल मशीन की तरह  दिलो-दिमाग में दर्द का अहसास पैबस्त नहीं करवाती लेकिन सोचने के लिए इतना कुछ छोड़ जाती है कि एक आम आदमी खुद को किरदार से जोड़ कर देखने लग जाता है। बस, यही तो है वो कड़ी जो हमें गंगाजल देखने पर बाध्य कर देती है, अपहरण जैसी फ़िल्म के सहारे इस अपराध से पीड़ित जनता के दुःख-दर्द को करीब से जानने का मौका देती है, राजनीति का वीभत्स लेकिन सर्वव्याप्त स्वरुप दिखाती है, आरक्षण और सत्याग्रह के ज़रिये आम जनता की वेदना को सामने लाती है। और अगर आप आम इंसान से ऊपर वाली श्रेणी के हैं तो फिर चक्रव्यूह, मृत्युदंड और दामुल जैसी फ़िल्में आपकी संवेदना के तार को झंकृत करने के लिए काफी हैं।

बहरहाल, चलिये आगे बढ़ते हैं… निर्देशक प्रकाश झा से एक कदम आगे निकल कर जय गंगाजल की ओर नज़र डालते हैं। इसकी खुर्राट एसपी आभा माथुर की ओर देखते हैंखाकी में बाहुबली डीएसपी भोला नाथ सिंह से मिलते हैं। बबलू पांडे के विधायकी के डर को जीते हैं और साथ में डब्लू, चौधरी और मुन्ना मर्दानी तो हैं ही।

ठीक ठाक सी शुरुआत थी… पुराने ईमानदार अफसर का जाना। नयी महिला अफसर को गूंगी गुड़िया मानकर सदर पुलिस अधीक्षक नियुक्त करवाना… विधायक की गुंडई और उसका 24 घंटे का साथी खाकी वाला सर्किल बाबू। सब कुछ देखा देखा सा लग रहा था। क्या नया था इसमें, रोज ही तो हम देखते हैं ऐसी कहानी…  बस किसी ने इसे हमारे आसपास से उठाकर सिनेमाई पर्दे पर फैला दिया था। अब अपना सच देखना किसे अच्छा लगता है। तिस पर से बात कहने के लिए किसी ख़ास तरीके का इस्तेमाल नहीं किया गया था… बस वही पुराना फॉर्मूला इजी कम्युनिकेशन का। ज़ाहिर है जो चीज़ आसान होती है वो तो क्लीशे ही कहलाती है न… आखिर जो आम लोगों को पसंद आये उसमे क्या नयापन।
वैसे जय गंगाजल इतनी भी जेनेरिक नहीं है। आम सच्चाई के उलट इसके सताये हुए 14-15 साल के नागेश में हिम्मत है अपनी बहन के दुर्दांत हत्यारों को मारने की। ये हमारे फेवरेट टॉपिक मॉब लींचिंग पर बात करने की कोशिश करती है लेकिन बेवज़ह का जोश भरने वाली ये कोशिश थोड़ी और ईमानदार हो सकती थी। एक ऑफ़ ड्यूटी पुलिस ऑफिसर खुले आम एनकाउंटर पर उतर आये… हज़म करने के लिए हाजमोला चाहिए लेकिन सिनेमा को इतना छूट तो अब देना पड़ेगा। है कि नहीं…
अगर देखा जाए तो जय गंगाजल के निर्देशक के तौर पर प्रकाश झा एक वैसे पतंगबाज की तरह नज़र आते हैं जो सालों से फिरकी घुमा रहा है। जब पतंग छोड़ता है तो चुस्ती से मांझा छोड़ता है बिना ढील दिए हुए, फिर सुस्त हो जाता है, छोड़ देता है अपनी पतंग को इधर उधर विचरने के लिए… और जब नींद खुलती है तो फटाफट डोर कस देता है। ऐसी ही है जय गंगाजल… कभी निर्देशक के नियंत्रण में कसी हुई तो कभी हवा के रुख के साथ डोलती हुई। इसे ढर्रे पर रखता है भोला नाथ सिंह और बबलू पांडे का अभिनय, उनकी मारक संवाद अदायगी और चेहरे के भाव। आभा माथुर भी कम नहीं हैं लेकिन संवाद वो अगर थोडा मुंह और खोल के बोल लेतीं तो महफ़िल लूट लेतीं। कुछ तो अखरता है प्रियंका के अभिनय में… लेकिन इन कमियों के बावज़ूद जय गंगाजल टॉप से बॉटम तक हॉउसफुल है।

कहते हैं जो क्लीशे होता है वही पब्लिक को पसंद होता है। जय गंगाजल!!!
 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

रोमांस की केमिस्ट्री मर्डर की मिस्ट्री: मेरी क्रिसमस

इस बार पंद्रह जनवरी को मैं श्रीराम राघवन की फ़िल्म ‘मेरी क्रिसमस’ देखने गया था। …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *