2014 में जब फ्रेंच भाषा के लेखक पाट्रिक मोदियानो को नोबेल पुरस्कार मिला तो कम से कम हिंदी की दुनिया में वह एक अपरिचित सा नाम लगा. बाद में पढने में आया कि फ्रांस के बाहर भी उनका नाम बहुत परिचित नहीं था क्योंकि उनके अनुवाद बहुत हुए नहीं थे. बहरहाल, आज जब मैं यह लिख रहा हूँ तो उनका एक उपन्यास हिंदी में पढ़ चुका हूँ- मैं गुमशुदा. राजपाल एंड सन्ज प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है. उनको पढ़ते हुए लगा कि जीवन की गंभीर पहेली को कितनी रोचक भाषा में कहा लिखा जा सकता है. फ़्रांसिसी लेखक मितकथन के लिए जाने जाते रहे हैं, कम में ज्यादा कहने की कला के लिए.
उपन्यास में कहानी एक जासूस की है, गी रोलां की, जो अपने जीवन के अंतिम दौर में, उस दौर में जब वह अपनी याददाश्त को खो चुका होता है अपने अतीत के जीवन की यात्रा पर निकल पड़ता है. अपने जीवन के ही अनेक रूपों के बारे में उसको पता चलता है. जाने किसने कहा था कि लेखक आत्मा का जासूस होता है. यहाँ एक जासूस है जो अपने आत्म को खोज रहा है. पढ़ते हुए कई बार जे. एम. कोएत्ज़ी के उपन्यास ‘समरटाइम’ की याद आई. वह उनका एक आत्मकथात्मक उपन्यास है जिसमें जीवन के शिखर पर पहुँच चुका लेखक अपने जीवन की निस्सारता को महसूस करता है. बदलते दौर में एक ऐसा लेखक है जो यह पाता है कि नोबेल पुरस्कार पाने के बावजूद उसको अपने इलाके में जानने वाले बहुत थोड़े लोग रहे गए हैं, मानने वाले तो और भी कम. लेकिन ‘मैं गुमशुदा’ खोये हुए आत्म की तलाश का उपन्यास है, एक जासूस इतने रूपों में जी चुका है कि वह अपने वास्तविक रूप को भूल चुका है. मुझे मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास ‘कौन हूँ मैं’ की भी याद आई, जो बंगाल के भोवाल सन्यासी केस के ऊपर आधारित उपन्यास है. वह भोवाल संन्यासी जो मरने के कई साल बाद जीवित होकर प्रकट हो जाता है, लेकिन उसके दूसरे जीवन को उसके अपने झूठ मानते हैं, लेकिन पराये उसको भोवाल राजा ही समझते हैं. ‘मैं गुमशुदा’ उपन्यास इस वाक्य से शुरू ही होता है- ‘मैं कुछ भी नहीं हूँ’, जब जासूस गी रोलां आत्मचिंतन करते हुए कहता है. और पूरे उपन्यास की यात्रा में अपने आपको कई रूपों में देखता-पाता है. हर रूप में खुद को अधूरा पाता हुआ.
अनुवाद मोनिका सिंह ने किया है, बहुत पठनीय भाषा में. कहीं से भी भाषा बोझिल, जटिल नहीं लगती है. पेपरबैक में उपन्यास की कीमत 245 रुपये है. में सलाह मानिए तो खरीद कर पढ़िए पैसे वेस्ट नहीं होंगे.
प्रभात रंजन
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