आराधना प्रधान को मैं साहित्य की एक गंभीर एक्टिविस्ट के रूप में जानता रहा हूँ. उनकी कविताओं को पढना सुखद लगा. पहले भी उनकी कविताएं ‘कथादेश’ में छप चुकी हैं. भावों को शब्दों में पिरोने की कला ही तो कविता होती है. कुछ सघन भावों की जीवंत कविताएं- मॉडरेटर
जंगल
बेतरतीब से
पनपते तिनके,
कुछ मद्धम कर देते हैं
फूलों की खूबसूरती को.
देखती हूँ,
जानती हूँ,
समझती हूँ,
मानती हूँ इस रफ़्तार से
ढँक लेंगे वो फूलों को
एक दिन,
और तब्दील हो जायेगा
मेरा ख़ूबसूरत बगीचा
बेतरतीब जंगल में.
फिर भी
अपने बगीचे में
उगे उन तिनकों को,
कभी नहीं बीनती हूँ.
फूलों से अलग,
चिढ़े हुए वे तिनके,
ग़ुस्से में बढ़ते
अच्छे लगते हैं मुझे,
कुछ कुछ
मेरे अपने शहर की तरह
अनुराधा
सालों से
हर महीने
इस दिन की राह देखते हैं
कभी-कभी तो
दो महीने में
एक ही बार आता है
किसी ने कहा था कभी
दिल पिघल जाते हैं
अनुराधा नक्षत्र में
सुनते हैं?!?
चुप रहें तो पूछते हैं आप ख़ामोशी का सबब
कुछ कहना चाहें तो मसला के कहें कब?
यूँ ही दो सिलसिले चलते हैं मुसलसल कही-अनकही के,
जो कहते हैं आप सुनते नहीं, जो न कहें सुन लेते हैं कहीं से.
और बातों का भी तो साझा किया है, लफ्ज़-लहज़े मेरे,
और उनमे मायने डालना आपने अपने जिम्मे लिया है.
फिर कुछ पूछें तो आफ़त है, कुछ कहें तो आफत है,
ना आपको सवाल अच्छे लगते हैं, ना जवाब सुनने की आदत है.
जग्गू
कोफ़्त होती है मुझे
जब कहते हो,
‘मैं भटक गया था रास्ता‘
तुम चल रहे थे ना ?
तो कुछ वहां, कुछ उधर
ऐसा दिखा होगा,
जिसने
तुम्हे रोका
थोड़ी देर को
कहीं चिनार का एक सुर्ख पत्ता,
जिसे तुमने उठाया होगा
जो तुम्हारी डायरी में दिखा था उस दिन
कहीं बेक़रार लहरों ने
यूँ पुकारा होगा किनारों से
कि रोक नहीं पाये होगे क़दमों को
सब रास्ते का हिस्सा थे
सब तुम्हारा हिस्सा थे
भटकना कह कर
खूबसूरती मत छीनो उन पलों की
मुझे कोफ़्त होती है!
जेब में मंज़िल का पता नहीं होता
ज़िन्दगी के रास्तों का नक़्शा भी नहीं होता
और सोचो
अगर मंज़िलों का पता होता तो
जग्गू, हमारा डाकिया
सबसे पहले वहां होता
देश तरक्की कर रहा है
उस गांव जहां घर था अपना
वह कुआँ जिसकी मेड से झांक कर
पंचतंत्र की कहानी का शेर दिखता था
उसी गांव उसी मेड पे बैठ कर अब लोग
मोबाईल से बाते करते है
शेर भी अब नही दिखता
पानी भी नही
बस अब पगडंडियों हैं
जिन पर ट्रैफिक लाईट
लगने वाली है
सुना है
देश तरक्की कर रहा है
रंग
मौसम के फूलो से
भरी है लान की क्यारिया
घास की चादर पर मानो
रंगीन किनारी की तरह
कोमल पत्ते सख्त दरख्तो पर
लहराते झूमते है
गली-क्रिकेट में बेपरवाह
मेरे बचपन की तरह
इस चादर पे हल्के-हल्के चल कर
उन फूलो संग मंद-मंद मुस्कुरा कर
दरख्तो की छांव से गुजरता हूँ, और
रंगो को सहेज लेता हूँ आंखो में
चुपचाप चला जाता हूँ फिर , उस
बदरंग तस्वीर से नजरें चुरा कर,
मकान से चार कदम पर
झुग्गिया शुरू हो जाती है.
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याददहानी
अभी कुछ दिनो पहले
बचपन के बीत जाने के बाद
एक खेल खेला करते थे…
एक नाम छुपा कर अधरों पर
एक फूल संभाले हाथों मे
बडी उम्मीद के साथ
पन्खुरियाँ तोड़ते हुए कहना,
‘He loves me, he loves me not’
हारना तो एक फूल और,
जीतते तो अनजाने ही
रंग गुलनार!
तब कब समझा और कब जाना
के हर एक हासिल पर यूं ही
सौ- सौ कुर्बानियाँ होंगी
बिखरे लम्हों को
चुनते हुए आज,
उन सूखी पन्खुरियों की याद आई है.
हारना तो एक फूल और,
जीतते तो अनजाने ही
रंग गुलनार!
तब कब समझा और कब जाना
के हर एक हासिल पर यूं ही
सौ- सौ कुर्बानियाँ होंगी
बिखरे लम्हों को
चुनते हुए आज,
उन सूखी पन्खुरियों की याद आई है.
उपर्युक्त पंक्तियों ने हर कुछ वो कह दिया जो इनके पहलेके भावोद्गार बोलते हुए दिखना चाहते थे !
आराधना जी, अरसे बाद आपको सुना !
अच्छा लगा.
शुभ-शुभ
प्रकृति के रंगों, उपादानों और उसके साथ मनुष्य के खूबसूरत रिश्तों और विरल स्मृतियों से बुनी ये कविताएं, जितनी सहज है, अपनी काव्य-संवेदना में उतनी ही गहरी और संजीदा। इन अच्छी कविताओं के लिए आराधना को बधाई।