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बिंदु जिसमें संभावनाएं थी लकीर बनने की

मेरे जीमेल अकाउंट में कई बार अनजान पतों से अच्छी अच्छी रचनाएँ आ जाती हैं. ऐसे ही एक कवि नीरज पांडे की कविताओं से परिचय हुआ. दिल्ली विश्वविद्याल के पूर्व छात्र नीरज आजकल मुंबई में स्क्रीनप्ले लेखन करते हैं लेकिन क्या कवितायेँ लिखते हैं. प्रेम की गहरी तड़प से भरपूर इन कविताओं को पढ़ा तो साझा करने से रोक नहीं पाया. आम तौर पर जानकी पुल पर इतनी कवितायेँ नहीं लगाता लेकिन कई बार लगाने से रोक भी नहीं पाता- मॉडरेटर 
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१. संभावनाएँ
तुम निकल रही हो
अपनी संभावनाओं की तलाश में,
पर छोड़ जा रही हो
एक बिंदु मेरे पास…
बिंदु, जिसमें संभावनाएं थी
लकीर बनने की
लकीर, जिसके साथ हम तय कर सकते थे
क्षितिज तक की दूरी
या शायद उससे भी कहीं पार…
मैंने उस बिंदु को फिलहाल
रख लिया है संभालकर,
अपनी हथेलियों में दबाकर,
तिल बनाकर,
कि
तुम्हारे वापस आने पर
जब कभी संभावनाएं अनुकूल होंगी,
ये तिल जीवन रेखा में बदल जाएगा,
वो बिंदु लकीर हो जाएगी|
२.भरोसा
हम दोनों पैरों से एक साथ
कभी नहीं बढ़ते।
एक पाँव के उठते ही
वहाँ की ज़मीन छूट जाती है
और दूसरा पाँव ये देखता है,
हिचकिचाता है
पर पहले का सहारा लेकर
वो भी छोड़ता है अपनी ज़मीन,
एक भरोसे के साथ …
इस तरह एक भरोसा
बदल जाता है- एक कदम में…
फिर वो एक कदमबदलता है
सैकड़ों मीलों की दूरी में,
उन सारी संभावनाओं को पूरा करता
जो पहले कदम की
हिचकिचाहट में छुपी थीं।
भरोसा दौड़ना सीख जाता है।
आदमी के इतिहास की
सबसे बड़ी उपलब्धि थी-
वो पहला कदमउठाना|
३. कुश की चटाई
तुम चटाई हो
कुश की
जिसे अपने साथ लिए
दिन भर भटकता हूँ
किसी जोगी की तरह
गाता हुआ एक
विरह राग…
हर शाम बिछाकर
लेटता हूँ जिसे
थक कर चकनाचूर होने पर
तो नाप लेता हूँ
तुम्हारा हर कोना
बंद आँखों से ही
सुबह…
तुम्हारे कुछ निशान
जब छपे मिलते हैं
मेरे शरीर पर
काफी देर तक उन्हें
छूता, सहलाता हुआ
खुद में
तुम्हारे होने को
महसूस करता हूँ।
४. सहना और जीना
वो जो तैयार कर रहा है
उसका सुख वो कभी जी नहीं पाता।
वो तो बस सहता है
इसके तैयार होने को,
इसके तैयार होने तक,
एक न्यूनतम मजूरी पर,
हर क्षण…
और एक दिन चुपचाप
वक़्त के सरकने पर
धीरे धीरे सरकता हुआ
अपनी शक्ल समेटता
वो हो जाता है कहीं गायब,
फिर सालों बाद
कोई और आकर
भोगता है वो सारा सुख
जो उसने कभी सह सह कर
पार किया था।
मैंने भी कई बार पलट कर
देखा है
तो चकित हुआ हूँ,
वो कौन था जो सह रहा था
वर्षों से?
क्योंकि, अब जो ये जी रहा है
वो, वो नहीं है।
सहने वाला हर बार निकल जाता है
शांत क़दमों से,
और फिर मैं ढूँढने लगता हूँ
खुद को
उस सहने वाले और इस जीने वाले के बीच कहीं।
५. हम कुक्कड़
कसाइयों की दुकानों के बाहर
बास मारते दड़बे,
पीभ, थूक, खून, लार से
मवाद से हैं सने हुए
और उनके अंदर कुक्कड़
चुपचाप अपनी जगह पकड़
कोस रहे नसीब को |
सड़क पर चलता आदमी उन्हें देख कर सोचता
गुस्सा इन्हें भी आता होगा,
जब पंख नोचे जाते होंगे,
जब अपने खूब चिल्लाते होंगे,
जब थर थर करती गरदन पर
तेज़ छुरी चल जाती होगी …
जब आधी गरदन लटके मारती
गहरे ड्रम में जाती होगी |
अपनी तरह क्या इनका भी
खून खोलता होगा ?
क्या, कर देते हैं क्रांति कोई
कुक्कड़ बोलता होगा ?
या फिर मौन धरकर सारे
शोक सजाते  होंगे,
और, थोड़ी जगह और मिल जाने का
जश्न मनाते  होंगे |
    नीरज पाण्डेय

 
      

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7 comments

  1. गजब

  2. बहुत बढ़िया. कलम की धार इसी तरह बनी रहे, इसी शुभकामना के साथ…

  3. fabulous. Love it…

  4. नीरज जी कि कवितायें वह "बिंदु जो बनी लकीरें हैं" जिनकी क्षितिज तक की दूरी तय कर सकने की संभावनाएं हैं।
    बधाई एवं शुभकामनायें।

  5. सचमुच , बेहद खूबसूरत ताजी कविताएं .एकदम हृदय में उतर जाने वाली . बधाई नीरज जी ..और आपको भी .

  6. Loved it.<3

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