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पुरानी लुगदी, नया पॉपुलर और सोशल मीडिया

‘आजकल’ पत्रिका के जुलाई अंक में मेरा यह लेख प्रकाशित हुआ है जो सोशल मीडिया के बहाने हिंदी के नए बनते पॉपुलर साहित्य कि पड़ताल करता है- मॉडरेटर 
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हिंदी में सोशल मीडिया, विशेषकर फेसबुक को लेकर दो तरह के विचार सक्रिय हैं- एक तरफ ऐसे लोग हैं जिनका यह मानना है कि हा हंत! सोशल मीडिया ने, फेसबुक ने हिंदी का बेड़ा गर्क कर दिया, जो समय हिंदी वाले किताबों को दे सकते थे वह समय अब वे फेसबुक, व्हाट्सऐप जैसे माध्यमों को दे रहे हैं और धीरे धीरे उनकी रचनात्मकता का क्षरण हो रहा है. जबकि दूसरी तरफ आंकड़े हैं जो यह बताते हैं कि सोशल मीडिया के कारण हिंदी का व्यापक विस्तार हुआ है. इसका दायरा पहले से विस्तृत हो रहा है, वह हिंदी विभागों से बाहर फ़ैल रही है. इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट आदि विविध तबकों से जुड़े लोग न सिर्फ हिंदी में साहित्य लिख रहे हैं बल्कि उसका अपना पाठक वर्ग भी बनता जा रहा है.
एक बड़ा बदलाव है जो सोशल मीडिया के फेसबुक जैसे माध्यमों की वजह से हिंदी लेखन के परिदृश्य पर घटित होता दिखाई दे रहा है. वह बदलाव हिंदी के लोकप्रिय लेखकों-पाठकों की दुनिया में हो रहा बदलाव है. लम्बे समय तक हिंदी में लोकप्रिय लेखन के नाम पर, लोकप्रिय साहित्य के नाम पर सुरेन्द्र मोहन पाठक, वेद प्रकाश शर्मा के जासूसी उपन्यासों को ही मानक माना जाता था. आज सोशल मीडिया, ऑनलाइन माध्यमों से होने वाली किताबों की बिक्री के कारण यह स्थिति बन गयी है कि हिंदी के जासूसी उपन्यास लेखक हिंदी के लोकप्रिय साहित्य के प्रतिनिधि लेखक नहीं रह गए हैं. हिंदी में लगभग 7 दशक पुरानी यह विधा अपने अवसान की तरफ अग्रसर है.
अंग्रेजी के प्रमुख दैनिक ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ में 8 मई 2016 को एक लेख प्रकाशित हुआ है जिसमें यह कहा गया है कि फेसबुक हिंदी में किताबों को लोकप्रिय बनाने वाले माध्यम के रूप में ही नहीं बल्कि नई काट के हिंदी साहित्य के सृजन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. उदाहरण के लिए, राजकमल प्रकाशन के उपक्रम ‘सार्थक बुक्स’ ने लप्रेक सीरीज की शुरुआत की, जिसकी पहली किताब प्रसिद्ध टीवी पत्रकार रवीश कुमार की थी, ‘इश्क में शहर होना’. यह किताब 2015 की ट्रेंडसेटर किताब रही है. अपनी लोकप्रियता, अपनी व्याप्ति के मामले में इस किताब ने एक छाप तो छोड़ी ही है. बाद में इस श्रृंखला में दो और किताबें भी आई हैं, विनीत कुमार की ‘इश्क कोई न्यूज नहीं’ और गिरीन्द्रनाथ झा की किताब ‘इश्क में माटी सोना’. लप्रेक विधा की इन किताबों की खासियत यह है कि ये मूल रूप से फेसबुक स्टेटस के रूप में लिखी गई हैं. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि फेसबुक ने हिंदी के लेखकों को इस बात की तमीज दी है कि कम शब्दों में किस तरह से मानीखेज बात लिखी जा सकती है, ऐसी बात जो कि ज्यादातर लोगों को अपने दिल की बात सी लगे. इसने इस मिथक को तोड़ दिया है कि हिंदी में लोकप्रिय का मतलब महज रूमानी या फंतासी साहित्य हो सकता है.
हिंदी का यह नया बनता लेखक वर्ग है जो हिंदी के लोकप्रिय साहित्य को नई दिशा दे रहा है, नई पहचान दे रहा है. इस क्रम में हिन्द युग्म प्रकाशन का नाम लिए बिना हिंदी में नए ढंग से लोकप्रिय साहित्य की लोकप्रियता से सम्बंधित कोई भी बात अधूरी ही मानी जाएगी. हिन्द युग्म प्रकाशन ने हाल के वर्षों में निखिल सचान की किताब ‘नमक स्वादानुसार’, दिव्य प्रकाश दुबे की किताब ‘मसाला चाय’, अनु सिंह चौधरी की किताब ‘नीला स्कार्फ’, आशीष चौधरी की किताब ‘कुल्फी एंड कैपुचिनो’, सत्या व्यास की किताब ‘बनारस टॉकीज’ जैसी कुछ ऐसी किताबों को प्रकाशित किया है जिन्होंने फेसबुक जैसे सोशल मीडिया साइट्स के प्रचार के सहारे और ऑनलाइन बिक्री के आधार पर हिंदी के लोकप्रिय साहित्य को एक नया कलर दिया है, नया रंग दिया है.
आज लुगदी साहित्य के विशेषण से याद की जाने वाला लुगदी साहित्य हिंदी के लोकप्रिय साहित्य की प्रधान विधा नहीं है तो इसके पीछे बहुत हद तक इस प्रकाशन से प्रकाशित किताबों की भूमिका है. अभी हाल में ही हिंदी युग्म ने अजीत भारती की किताब ‘बकरपुराण’ का प्रकाशन किया है, जो कि फेसबुक के एक लोकप्रिय व्यंग्य पेज ‘बकर अड्डा’ के लिए लिखी गई टिप्पणियों का संकलन है.   
इन उदाहरणों से एक बात साफ़ है कि हिंदी के लोकप्रिय साहित्य की दुनिया सोशल मीडिया के प्रभाव में बदल रही है. हिन्दुस्तान टाइम्स के उसी लेख में हिन्द युग्म प्रकाशन के शैलेश भारतवासी का यह बयान भी छपा है कि उनके प्रकाशन से प्रकाशित होने वाले 90 प्रतिशत लेखक फेसबुक के माध्यम से उनसे जुड़े. कहने का मतलब यह है कि सोशल मीडिया ने लेखकों को पाठकों से जोड़ने में ही महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाई है बल्कि उसकी वजह से लेखक प्रकाशक से भी जुड़ने लगे हैं.
राजपाल एंड सन्ज प्रकाशन की मीरा जौहरी का यह मानना है कि किताबों को पाठकों से जोड़ने की दिशा में यह सबसे जीवंत माध्यम है. फेसबुक के माध्यम से लेखकों, प्रकाशकों का पाठकों से दोतरफा संवाद संभव हो पाता है, जो किसी और माध्यम में संभव नहीं है. जब पाठक लेखक, प्रकाशक के साथ संवाद करता है तो उसके भीतर किताबों में रूचि पैदा होती है. यह इसका सबसे सकारात्मक पहलू है.
वास्तव में, इस बात को अब सभी स्वीकार करने लगे हैं. दिल्ली में आयोजित होने वाले विश्व पुस्तक मेलों में हिंदी के स्टाल्स पर भीड़ पहले से अधिक बढ़ने लगी है, हिंदी प्रकाशकों की किताबों की बिक्री पहले से अधिक बढ़ी है. उसमें बहुत बड़ी भूमिका फेसबुक जैसे सोशल मीडिया के माध्यम की मानी जाती है. लोग फेसबुक पर लेखकों से जुड़ते हैं, प्रकाशकों से जुड़ते हैं और फिर उनकी किताबों से जुड़ने के लिए, उनसे मिलने के लिए पुस्तक मेलों में आते हैं. फेसबुक आज हिंदी की एक नई दुनिया बना रहा है. हिंदी में जो सबसे बड़ी कमी महसूस की जा रही थी वह यह थी कि लेखकों को, किताबों को पाठकों से किस तरह जोड़ा जाए? लेखकों और पाठकों के बीच किसी तरह का सूत्र नहीं था. हिंदी के पाठक अदृश्य ही रहते थे. मीडिया के माध्यमों, जैसे समाचारपत्रों और पत्रिकाओं में पुस्तकों के लिए, साहित्य के लिए पन्ने सिमटते जा रहे हैं. जिसको हम लोकप्रिय साहित्य कहते हैं हिंदी के समाचारपत्रों में उसको भी स्थान नहीं दिया जाता. हिंदी के अखबार अंग्रेजी के लोकप्रिय लेखक चेतन भगत का स्तम्भ तो प्रकाशित कर सकते हैं लेकिन वे अपनी भाषा के लोकप्रिय लेखकों, मसलन सुरेन्द्र मोहन पाठक, वेद प्रकाश शर्मा के लेख नहीं छापते.
ऐसे में एक तरह की संवादहीनता का माहौल बना हुआ था. पिछले कम से कम तीन सालों में फेसबुक ने इस परिदृश्य को बदलने में युगांतकारी भूमिका निभाई है. स्मार्टफोन के इस जमाने में हर आदमी फेसबुक जैसे सोशल मीडिया के माध्यम से जुड़ा हुआ है, इस कनेक्टिविटी ने हिंदी में केवल लोकप्रिय साहित्य को ही एक नया आधार नहीं प्रदान किया है बल्कि हिंदी साहित्य की लोकप्रियता को भी इसने एक नया आयाम दिया है.
राजकमल प्रकाशन के सम्पादकीय निदेशक सत्यानंद निरुपम की यह बात उल्लेखनीय है, “लोकप्रिय साहित्य के प्रसार में सोशल मीडिया की भूमिका अभी निर्णायक है. अगर सोशल मीडिया को हमारे समय से घटा कर देखें तो और कोई ऐसा प्रभावी जरिया नहीं है, जिससे टारगेट रीडर तक कोई भी पब्लिशर या लेखक अपनी किसी किताब को इतनी आसानी से पहुंचा सकता हो. इस प्लेटफ़ॉर्म की सबसे खूबसूरत बात यह है कि इसके जरिए न केवल किताब के बारे में लोगों को बताया जा रहा है, बल्कि बेचा भी जा रहा है और लोग खरीद कर पढने के बाद इसकी खबर भी वहां साझा कर रहे हैं. कई लोग पढ़ कर अपनी संक्षेप में या विस्तार में राय भी रख रहे हैं. कोई किसी किताब के बारे में अपनी राय जब अपने फ्रेंड सर्किल में साझा कर रहा है तो और लोग उस राय से सहमति-असहमति जता रहे हैं. इस पूरी प्रक्रिया में लगातार किताब की चर्चा बढती जा रही है और दूसरे वैसे लोग जो उसे नहीं पढ़े हुए हैं, उनमें उसके प्रति उत्सुकता बढ़ती जा रही है. प्रकाशक और लेखक अपनी किताब के बारे में लोगों तक जानकारी पहुँचाने का काम यहाँ पोस्टर, ऑडियो, वीडियो जैसे कई माध्यमों से असरदार ढंग से, बड़ी आसानी से कर ले रहे हैं. दरअसल, सोशल मीडिया लोकप्रिय साहित्य के प्रसार के लिए एक तरह  का 360 डिग्री सोल्यूशन है.” 
फेसबुक माध्यम की कई विशेषताएं हैं, कई सुविधाएँ हैं जिनका लेखक प्रकाशक बड़ी होशियारी से इस्तेमाल कर रहे हैं. सबसे बड़ी सुविधा है कि यह माध्यम निश्शुल्क सुविधा प्रदान करता है अर्थात इसके ऊपर प्रचार-प्रसार करने की पूरी आजादी है. दूसरे इस माध्यम का उपयोग द्वारा ऑडियो, वीडियो सभी प्रकार की सुविधाओं से आकर्षित किया जा सकता है. पाठकों के लिए किताब के अंश दिए जा सकते हैं, उनके साथ किताबों के कवर साझा किये जा सकते हैं, किताबों के फेसबुक पेज बनाकर उससे भी लोगों को जोड़ा जा सकता है. राजकमल प्रकाशन ने जब लप्रेक श्रृंखला की किताबों का प्रकाशन शुरू किया तो उसका एक फेसबुक पेज भी बनाया और आज उस पेज से 5 हजार से अधिक लोग जुड़े हुए हैं. यह एक जीवंत माध्यम है, जिसमें हर प्रक्रिया में पाठकों की भूमिका रहती है. यानी एक प्रोडक्ट के रूप में किताब के तैयार होने में पाठकों भी शामिल हो जाता है और वह धीरे धीरे खुद को उस किताब का हिस्सा समझने लगता है. पाठकों की पुस्तकों के साथ इस तरह की संलग्नता पहले संभव नहीं थी.
लेकिन यहीं पर एक सवाल यह भी उठता है जो बड़ा गंभीर है कि क्या साहित्य को किसी कमोडिटी के रूप में बेचा जाना चाहिए? क्या सोशल मीडिया के माध्यम से होने वाले अत्यधिक प्रचार-प्रसार के कारण साहित्य को लेकर अच्छे-बुरे का विवेक मिटता जा रहा है? क्या लोकप्रियता ही साहित्य का नया मूल्य है? हिंदी के सम्बन्ध में ये सवाल गंभीर हैं. क्योंकि एक ऐसी भाषा है जिससे निरंतर बड़ी तादाद में पाठक रोज जुड़ रहे हैं. लेकिन जिस तरह से सोशल मीडिया के माध्यम से साहित्य को प्रस्तुत किया जा रहा है, जिस तरह से उसको विज्ञापित किया जा रहा है उससे श्रेष्ठ और लोकप्रिय के मानक आपस में घुलते-मिलते जा रहे हैं. सोशल मीडिया के कारण जो एक बड़ा प्रभाव किताबों की दुनिया पर, हिंदी साहित्य के परिसर पर पड़ता दिखाई दे रहा है वह यह है बिकना ही सबसे बड़े पैमाने के रूप में स्थापित होता जा रहा है. श्रीकांत वर्मा की पंक्ति है, ‘जो रचेगा/ वही बचेगा’ लेकिन सोशल मीडिया के कारण हिंदी में लोकप्रिय पुस्तकों की जो स्थिति बनी है उससे इन पंक्तियों से छूट लेते हुए यह कहने का मन करता है कि ‘जो बिकेगा वही बचेगा’.
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि सोशल मीडिया के कारण हिंदी हिदी विभागों से निकलकर फ़ैल रही है. लिटरेचर फेस्टिवल से लेकर अंग्रेजी मीडिया में लगातार हिंदी की लोकप्रिय पुस्तकों को लेकर स्पेस बढ़ता जा रहा है. उसका परिसर तो बढ़ता जा रहा है लेकिन केंद्र कहीं न कहीं सिमटता जा रहा है. जो माध्यम हिंदी की लोकप्रिय पुस्तकों को लेकर बढ़ चढ़ कर जगह बना रहे हैं वे माध्यम हिंदी एक गंभीर साहित्य को लेकर किसी तरह के उपक्रम करने को लेकर उदासीन हैं.
लेकिन इस चिंता के बावजूद यह तथ्य बेमानी नहीं हो जाता है कि सोशल मीडिया के फेसबुक जैसे माध्यम हिंदी में एक नए परिसर का निर्माण कर रहे हैं और अब धीरे धीरे उसकी अपनी व्यवस्था भी बनती जा रही है. आज हिंदी के लेखक सबसे बड़ी तादाद में इस माध्यम द्वारा संवाद स्थापित कर रहे हैं, और इसके सकारात्मक उपयोग की दिशा में प्रेरित हो रहे हैं. आरम्भ में सोशल मीडिया को लेकर हिंदी में माहौल यह था कि हिंदी वालों में ऐसी छवि थी मानो सोशल मीडिया कोई नकारात्मक माध्यम हो, इसके माध्यम से एक दूसरे पर कीचड उछालने के सिवा और कुछ न होता हो. अब हिंदी वालों ने इस माध्यम की जनतांत्रिकता को भली-भांति समझ लिया है.
हिंदी में लोकप्रिय पुस्तकों का जो स्पेस बढ़ रहा है, मुझे नहीं लगता है कि उससे किसी भी तरह निराश होने की जरुरत है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अंततः हिंदी का ही विस्तार हो रहा है, उसका अपना बाजार बन रहा है, उसमें ग्लैमर का वह तत्व आता जा रहा है जिसके बिना हिंदी दशकों दीन हीन बनी रही. आज सोशल मीडिया के प्रभाव में और कुछ नहीं तो यह तो हुआ ही है कि हिंदी का आत्मविश्वास लौट रहा है. उसकी छवि बदल रही है. आने वाले समय में संभव है कि लोकप्रिय साहित्य के इसी बढ़ते प्रसार और बाजार से हिंदी के बेहतर साहित्य का रास्ता निकले. सोशल मीडिया के माध्यम से हिंदी का अपना एक नेटवर्क बन रहा है जो सकारात्मक पहलू है.    
प्रभात रंजन
 
      

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6 comments

  1. बहुत बढिया। हिन्दी को गर बदलते जमाने के साथ कदम मिलाना है तो इसे सोशल मीडिया की सवारी करनी ही पड़ेगी। बस इतना ध्यान होना चाहिए क़ि तेजी के चक्कर मे साहित्य की धुरी डगमगा न जाय।

  2. सकारात्मक आलेख. पढ़कर अच्छा लगा.

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