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‘बनमाली गो तुमि पर जनमे होइयो राधा’

 
गरिमा श्रीवास्तव प्रोफ़ेसर हैं और बहुत अच्छी लेखिका हैं. यह उनके इस यात्रा वृत्तान्त को पढ़ते हुए अहसास होता है. क्रोएशिया का यह यात्रा वृत्तान्त रचनात्मक गद्य का एक शानदार नमूना है. पढियेगा- मॉडरेटर 
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दिल्ली से मास्को की हवाई यात्रा बहुत सुखद नहीं रही है, शेरमेट हवाई अड्डे पर बर्फ की मोटी चादर ने ज्यों दृष्टि बाधित कर दिया है – जहाज के चौड़े पंखों पर जमी बर्फ को लगातार गर्म पानी की बौछारों से पिघलाया जा रहा है। बर्फ की सफेदी और विस्तारभय कारक सा है, ढेर सारे टर्मिनल और उनके बीच की लंबी दूरियाँ जो अपने पैरों ही तय करनी हैं – प्रतीक्षा पंक्तियाँ, संप्रेषण की भाषा रशियन, अब तक की सीखी भाषाएँ दामन छुड़ा असहाय कर गई हैं। कदम-कदम पर कड़ी सुरक्षा जाँच – आपकी मनुष्यता पर विश्वास करने को कोई तैयार नहीं। जाग्रेब के लिए यहीं से दूसरी उड़ान लेनी है, पर अभी तक मालूम नहीं कि पहुँचना किस टर्मिनल पर है, यूरोप जाने का उत्साह मंद हो चला है जबकि यात्रा तो अभी शुरू ही हुई है। टी.एस. इलियट ने कभी पूछा था – डू आई डिस्टर्ब द यूनिवर्स, वही बात खुद से पूछती हूँ – मेरे लिखने न लिखने से क्या फर्क पड़ता है -दुनिया में सैकड़ों लोग अपने अनुभव, सुख-दुख, उपलब्धि संघर्ष, रागद्वेष की गाथाएँ लिखकर चले गए। उन्हें कभी यह मालूम ही नहीं कि उनका लिखा किसने पढ़ा – किसका जीवन उससे बना-बिगड़ा या किसी को जीवन पाथेय मिला। जो भी हो अनुभूतियाँ बाँटने के लिए होती हैं लेकिन उन्हें व्यवस्थित और तरतीबवार ढंग से रख पाना संभव होता है क्या? क्योंकि तरतीब तो उनके आने में भी नहीं होती।
पिछले डेढ़ महीने से यहाँ हूँ। दक्षिण मध्य यूरोप के एड्रियाट्रिक समुद्र के किनारे छोटे से शहर जाग्रेब में। परिचित मित्रों में से कुछ क्रोएशिया को एशिया समझते हैं। उनका कहना है कि इतनी ठंड में यूरोप जाने की जरूरत भी क्या है? कैसे बताऊँ कि अपने ही कदमों से दुनिया को नाप लेने की तमन्ना मुझे यहाँ ले आई है। बचपन में चार साल बड़ी बहन को स्कूल-ड्रेस, जूते बस्ते समेत स्कूल जाता देख मेरा मन मचल जाता, माँ ने ढाई साल के उम्र में स्कूल भेजना शुरू कर दिया था। समय के पहले, पाँव में पहने कद से बड़े जूतों ने स्कूल के बंद अनुशासन के बीच खड़ा कर दिया – बचपन का खेल हो ही नहीं पाया। भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, जाग्रेब विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग खोलना चाहता था। मुझे वही अवसर मिला है कि मैं दो वर्षों तक यूरोप में रह सकूँ। छात्र उत्साहित हैं – अतिथि गृह से विश्वविद्यालय सिर्फ दो किलोमीटर पर है इसलिए पैदल चलना अच्छा लगता है। यातायात और संचार सुविधा काबिले तारीफ है, समूचा क्रोएशिया आंतरिक तौर पर आठ राष्ट्रीय राजमार्गों से संबद्ध है। विश्वविद्यालय इवाना येलाचीचा में है और भारतीय दूतावास कुलमरेस्का पर। गनीमत है कि दूतावास बार-बार जाने की जरूरत नहीं पड़ती। राजदूत प्रदीप कुमार विनम्र और अनुशासन प्रिय हैं जो अक्सर भारत के दौरे पर रहते हैं और द्वितीय सचिव दूतावास की व्यवस्था देखते हैं। कर्मचारी और अधिकारी शालीन हैं – श्रीमती पासी हैं, आर्यन हैं, जिनसे हिंदी में बात करने का सुख है। तीन मंजिला सफेद इमारत, साफ सुथरी सजी-सँवरी लेकिन जिंदगी ज्यों धड़कना भूल गई हो यहाँ, इसलिए इंडोलॅाजी विभाग के मुखिया प्रो. येरिच मिस्लाव से अनुरोध किया है कि वे मेरी व्यवस्था विश्वविद्यालय के नजदीक ही करें। सिएत्ना सेस्ता (फूलों की गली) की पाँचवीं मंजिल पर एलविरा मेस्त्रोविच के फ्लैट में मुझे ठहरने को कहा गया है – फ्लैट सुंदर और सुख-सुविधा वाला है। यह पर्याप्त है मेरे लिए। भारत से लाई सभी चीजें जमा ली गई हैं। लैपटॉप को विशेष जगह दी गई है क्योंकि आने वाले दिनों में वही एकमात्र दोस्त बचा रहने वाला है। अक्सर तापमान शून्य से चार-छह डिग्री कम रहता है। धूप कभी-कभी निकलती है वो भी थोड़ी देर के लिए। धूप में भी कँपा देने वाली ठंड होती है। रविवार का दिन है, घड़ी को मैंने भारतीय समय पर ही रहने दिया है। भारतीय समय से साढ़े चार घंटे पीछे – नाश्ता लिया है। दलिया और फ्रूट कर्ड, थोड़ा सोने को जी चाहा है। नींद में अपने देश में हूँ कभी भाई-बहनों के साथ, कभी शांतिनिकेतन में मंजू दी के साथ। रतन पल्ली वाले घर में चैताली दी के साथ साईं बाबा को लेकर उनकी शाश्वत अडिग आस्था का मजाक उड़ाना चल रहा है। दूध के पतीले में अचानक उबाल आने पर वे जयसाईं‘, ‘जयसाईंकहते हुए फूँक मारने लगतीं, मेरे कहने पर कि गैस की नॅाब बंद कीजिए, उसके लिए साईं बाबा अवतार नहीं लेंगे, वे मुझपर नाराज हो जाया करती हैं। दिल्ली में माँ होली पर पुए बना रही हैं। मैदा, घी, चीनी, दूध मेवे के घोल को खूब फेंटकर सधे हाथों से गर्म घी में छोड़ती हैं – छन्न की आवाज के साथ फूल जैसा पुआ आकार लेने लगता है, उसके बाद बारी आती है गर्म मसाले में पके कटहल के सालन की और लिट्टी वह जो दादी बनाती हैं उसका कोई जवाब नहीं। बैंगन के चटखदार चोखे के साथ खूब सत्तू, लहसुन और अजवाइन से भरी-पुरी जवाँ लिट्टी – स्वाद के लिए सुर नर मुनि भी तरसें वैसी लिट्टी। ये सारे व्यंजन अपने रूप-रस गंध के साथ आँखों के आगे परसे चले आ रहे हैं। मंजू दी शांतिनिकेतन में मटर की कचौड़ी बनाती थीं, गांधी पुण्याह पर हरिश्चंद्र जी का बनाया सुगंधित सूजी का हलवा …जुबाँ पर स्वाद के कण अभी भी बाकी हैं …जोर की घरघराहट के साथ चौंक कर आँखें खुलती हैं। कमरे में घुप्प अँधेरा कहीं कोई नहीं अपना होना ही शंकालु बना रहा है –
काबे की है हवास कभी कुए बुताँ की है
मुझको खबर नहीं, मेरी मिट्टी कहाँ की है
                          – दाग देहलवी
कहाँ हूँ मैं? मेडिकल की तैयारी कर रही दीदी ने कहीं बत्ती तो नहीं जला दी, वो दिन में सोती है, सारी रात पढ़ती है। मुझे पुकारकर कहती है – सोनी तू सोती ही रहेगी पढ़ेगी कब? उक्की कहाँ है? अमरूद के पेड़ के नीचे सहेली के साथ लकड़ी का स्कूल उल्टा करके गुड़िया का खेल रच रही होगी …देखो उसने फिर उल्टी चप्पल पहन ली, इतनी छोटी है लेकिन बहुत स्वाभिमानी और स्वतंत्र चेतना, किसी के साथ नहीं सोती …मम्मी के जाने के बाद बुआ के साथ भी नहीं। चार साल की उम्र में ही उसकी अकेली दुनिया है। चप्पल पहनूँ, उठूँ कि हिंदू कॉलेज के दोस्त बुलाने आए हैं – दो अध्यापकों – डॅा. हरीश नवल और सुरेश ॠतुपर्ण ने अपने घर बुलाया है। खाना पीना, मौज मस्ती करके शाम ढले स्मिता दी के साथ घर लौटती हूँ। लो आज आ गई शामत – डॅा. कृष्णदत्त पालीवाल की क्लास है। उन्होंने दुर्वासा सी भविष्यवाणी कर दी है – तुम सब कहीं नहीं पहुँचोगे …कहीं नहीं …कहीं नहीं …तो पहुँची कहाँ हूँ …करवट बदलकर, जोर लगाकर उठने की कोशिश में आँखें मुँदी चली जा रही हैं – टोंस वैली से लगातार बंदूक की गोलियाँ दागने की आवाजें आ रही हैं। यह मेरी पहली नौकरी है। भारतीय सैन्य अकादमी में, अफसर बनाने के लिए जेंटिलमैन कैडेट्स को पढ़ाना है। सुबह का सायरन बज रहा है। बैरक से निकलकर आर्मी कैडेट कॅालेज विंग की ओर जाने वाली गीली सड़क पर अँधेरे में चल रही हूँ। सड़क के किनारे लैंप पोस्ट टिमटिमा रहे हैं। बारिश की बूदें पोस्ट पर चिपक सी गई हैं। कैडेट्स समस्वर कदमताल करते हुए सैल्यूट देकर आगे बढ़ जाते हैं। झुंड के झुंड गुजर रहे हैं …कहाँ हूँ मैं, घंटी की आवाज है। उठकर दरवाजा खोलना पड़ता है मुझे भौंचक देख कर मुस्कुराकर क्रेशो कर्नित्ज हाथ मिलाते हैं। यह दोस्ती की गर्माहट से भरा पुरसुकून स्पर्श है। वे जाग्रेब विश्वविद्यालय में संस्कृत पढ़ाते हैं – कांट्रेक्ट पर। दरवाजे के खुलने से ठंडी बर्फीली हवा का झोंका भीतर आ गया है, जिसने अवचेतन से चेतन में ला पटका है। क्रेशो मेरी छोटी-मोटी दिक्कतें समझते हैं। लैपटॉप पर स्काइप इन्स्टाल कर रहे हैं और भारत में फोन पर बात करने के लिए व्हॅाइप भी। अभी दिन के सिर्फ तीन बजे हैं लेकिन अँधेरा घिर आया है। कौएनुमा एक बड़ा-सा पक्षी लैंप पोस्ट पर आ बैठा है। ओवरकोट में ढके-लिपटे इक्का-दुक्का लोग सड़क पर दिख रहे हैं। मैं जाग्रेब में हूँ और यहीं रहना है दो साल तक। सोचती हूँ दो साल बहुत लंबा समय है। मौसम हमेशा धुंधलाया-सा रहता है। कैंटीन में शाकाहारी भोजन की दशा ठीक नहीं। यहाँ के लोगों को भारतीय व्यंजन बहुत पसंद हैं। कहते हैं कभी तुर्केबाना येलाचीचा (जाग्रेब का केंद्र) में किसी ने भारतीय रेस्टोरेंट खोला था। किसी वजह से काल कवलित हो गया। वैसे मांसाहारी भोजन के लिए क्रोएशिया पूरे यूरोप में प्रसिद्ध है। ताजा पानी की मछली, गोमांस, सूअर का मांस और मेडीटेरियन ढंग से बनी सब्जियाँ यहाँ की खासियत हैं। ठंडे मौसम में पशु-मांस के बड़े-बड़े टुकड़ों को लोहे के हैंगरों में टाँग दिया जाता है। बंद कमरे में जलती लकड़ियों के धुएँ में वह टँगा मांस पकता है। धुएँ की परत संरक्षक का काम करती है। इसे स्मोक्ड मीटकहा जाता है। इसकी पाक विधि-काफी प्राचीन है और लोकप्रिय भी। जैतून का तेल भी यहाँ काफी प्रयोग होता है।
सिएत्ना-सेस्ता में घरों के दरवाजे काफी चौड़े और मोटे हैं। मुख्य द्वार स्वतः बंद हो जाते हैं। अभ्यास न होने के कारण फ्लैट का दरवाजा बाहर से दो बार लॅाक हो चुका है। सामने के फ्लैट में द्रागित्ज़ा रहती हैं। जिन्हें अंग्रेजी नहीं आती और मुझे क्रोएशियन। उनका लंबा समय इटली में बीता है। जर्मन और इतावली जानती हैं। वे क्रोएशियन-अंग्रेजी शब्दकोश खरीद लाई हैं। लगभग सत्तर वर्ष की चाक-चौबंद युवा हैं। हाँ युवा ही, क्योंकि जीवन के इस पड़ाव पर ही पहली बार तनावमुक्त, उन्मुक्त जीवन जी रही हैं। सुंदर गोल चेहरा, रोमन नाक और कटे हुए सुनहरे बाल। हमेशा व्यस्त रहती हैं। उन्होंने फ्लैट के सामने फूलों के पौधे लगा रखे हैं। बेटी तान्या और नातिन नादिया सप्ताहांत में आती हैं। पैंतीस वर्षीय बेटा इगोर कलाकार है। जिसे बेरोजगारी के आलम ने उदास और तिक्त बना दिया है। द्रागित्ज़ा के पास फ्लैट की अपनी चाबी है, इगोर की अनियमित दिनचर्या का ज्यादा प्रभाव उनपर नहीं पड़ता। ऐसा वे कहती हैं लेकिन आँखें कुछ और कहती हैं। ये धुर पश्चिम है जहाँ माता-पिता 17 वर्ष की उम्र के बच्चों को मित्र मानते हैं। देख रही हूँ दिनोंदिन यह अंतराल कम ही होता जा रहा है। नादिया के ऊपर इम्तहान पास करने का तनाव इतना है कि सिगरेट के बिना नहीं रह पाती। इम्तहान में फेल होने पर क्या करेगी, वह जानती नहीं। कहती है – “आप क्या सोचती हैं, बड़े लोग ही तनाव ग्रस्त होते हैं। मुझे घर में रहना, पढ़ना, बिल्कुल पसंद नहीं, सोचती हूँ कब बड़ी होकर संगीतकार बनूँ या फिल्म में काम करूँ। उसकी माँ तान्या बेटी के लिए बहुत चिंतित रहती है। वह दुबरावा के सरकारी अस्पताल में रेडियोलॉजी विभाग में तकनीकी सहायक है। दो तलाक हो चुके हैं और रिएकाके म्लादेन नामक व्यक्ति से भावात्मक जुड़ाव है। अपने संबंध को लेकर सदैव सशंकित रहती है। नौकरी से छुट्टी मिलते ही रिएकाचली जाती है। इधर उसकी बेटी नादिया रात-भर घर से गायब रहने लगी है। तान्या कहती है जो गलतियाँ मैंने कीं, चाहती हूँ मेरी बेटी न करे। तुम्हारा देश अच्छा है जहाँ बच्चों पर अभिभावकों का कठोर नियंत्रण रहता है। वह नादिया को डाँटने-फटकारने से डरती है।
हम समुद्र के किनारे-किनारे लांग ड्राइव पर जा रहे हैं बाईं तरफ ड्राइविंग व्हील अटपटा लगता है। पास में अंतरराष्ट्रीय लाइसेंस भी नहीं है। तान्या लगातार अपनी व्यथा कथा कह रही है। उसे अंग्रेजी में बात करना सुहाता है। कई बार क्रोएशियन शब्दों के अंग्रेजी पर्याय ढूँढ़ने के चक्कर में बातचीत बाधित भी होती है। समुद्र के किनारे-किनारे लैवेंडुला (लैवेंडर) की झाड़ियाँ हैं। पौधे दो से ढाई फुट ऊँचे। लैवेंडर की गंध समुद्र की नमकीन गंध के साथ मिलकर पूरे दक्षिण यूरोप की हवा को नम बनाए रखती है। फ्रांस में तो लैवेंडर को भोजन में भी प्रयुक्त किया जाता है। कीटाणुनाशक सुगंधित लैवेंडर क्रोएशिया और यूरोप के अन्य भागों में निद्राजनित रोगों की औषधि है। वैसे क्रोएशिया पर्यटन और शराब उत्पादन के लिए मशहूर है। तान्या ने यह सूचित करते हुए पीने की इजाजत माँगी है। उसका गला सूख रहा है। लगभग 641.355 वर्ग मील में फैला जाग्रेब क्रोएशिया का सांस्कृतिक-प्रशासनिक केंद्र है जो मूलतः एक रोमन शहर था जो सन 1200 में हंगरी के नियंत्रण में आ गया। सन 1094 में पहली बार पोप ने जाग्रेब में चर्च की स्थापना कर जाग्रेब नाम दिया। जर्मन में इसे अग्रमकहा जाता है।
जाग्रेब और क्रोएशिया का इतिहास युद्ध का इतिहास है, सन 1991 तक संयुक्त युगोस्लाविया का अंग रहा क्रोएशिया अपने भीतर युद्ध की अनगिन कहानियों को लिए मौन है। स्लोवेनिया, हंगरी, सर्बिया, बोस्निया, हर्जेगोविना और मांटेग्रो से इसकी सीमाएँ घिरी हैं। आज के 21,851 वर्गमील में फैले क्रोएशिया ने एक तिहाई भूमि युद्ध में खो दी। 15 फरवरी 1992 को यूरोपीय आर्थिक संगठन और संयुक्त राष्ट्रसंघ ने इसे लोकतांत्रिक देश के रूप में मान्यता दी। इसके बाद भी तीन वर्ष तक अपनी भूमि वापस पाने के लिए 1 अगस्त 1995 तक उसे सर्बिया से लड़ना पड़ा और यूरोपीय यूनियन की सदस्यता तो उसे अभी हाल में 1 जुलाई 2013 को मिल पाई। इतने लंबे युद्ध के निशान अभी तक धुले-पुछे नहीं हैं। उनकी शिनाख्त के लिए मुझे दूर नहीं जाना पड़ा। इटली और फ्रांस घूमने की इजाजत मिलने पर दूतावास ने मुझको दुशांका सम्राजीदेवा की टूरिस्ट कंपनी का पता दिया।
दुष्का का जीवन क्रोएशियाई सर्ब युद्ध का जीता जागता इतिहास है। कहीं पढ़ा था, युद्ध कहीं भी हो, किसी के बीच हो, मारी तो औरत ही जाती हैं। युद्ध ने दुष्का के जीवन को ही एक युद्ध बना दिया। युद्ध में सर्बों ने क्रोआतियों को मारा उनके घर जला दिए, बदले में क्रोआतियों ने पूरे क्रोएशिया को सर्ब विहीन करने की मुहिम छेड़ दी। लोग भाग गए या मारे गए। दुष्का के माँ-बाप युद्ध के दौरान बेलग्रेड होते हुए अपनी बेटियों के पास पहुँच नहीं पाए। दुष्का को बिना नोटिस दिए नौकरी से निकाल दिया गया। अब वह केवल सर्बथी मनुष्य नहीं, अड़ोसी-पड़ोसी घृणा से इन दो बहनों को देखते थे। जंग जोरों पर थी, अमेरिका की पौ-बारह थी। ऊपर से युद्ध विराम और भीतर से घातक हथियारों की आपूर्ति – युद्ध विराम होते थे, वायदे किए जाते। जो तुरंत ही तोड़ भी दिए जाते। राजधानी होने के नाते जाग्रेब शहर में पुलिस और कानून व्यवस्था कड़ी थी, लेकिन लोगों के दिल-दिमाग से घृणा और नफरत को निकालना असंभव था। बसों में, ट्रामों में लोग सर्बों को देखते ही वाही-तबाही बकते, थूकते, घृणा प्रदर्शन करते। दुष्का ने कई साल पहले अपनी ट्रैवल एजेंसी का सपना पाला था। युद्ध ने दुनिया बदल दी। कुछ लोग रातों-रात अमीर हो गए और कुछ सड़क पर आ गए युद्ध के थमने और गर्भ ठहरने दोनों की सूचना दुष्का को एक साथ मिली। दौड़ी थी उस दिन वह त्रयेशंवाचकात्रा से यांकोमिर तक, पैदल चलकर गई सेवेस्का तक। कोई डॅाक्टर सर्ब लड़की का केस हाथ में लेने को तैयार नहीं हुआ। क्रोएशियन प्रेमी ने दुष्का को पहचानने से इनकार कर दिया, सर्ब कहकर गाली दी और उससे बात तक न की। दुष्का अविवाहित माँ बनी और पिछले पंद्रह वर्षों में अपने माँ-बाप का सहारा भी।

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5 comments

  1. खौफनाक। पढ़कर अपने मनुष्य और पुरुष होने पर बेइंतहा शर्मिन्दा हूँ।

  2. बहुत उम्दा वृत्तांत

  3. behad hi maarmik…..shaandaar…

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