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पंकज दुबे की अंग्रेजी कहानी उपासना झा का हिंदी अनुवाद- एक आधा इश्क

पंकज दुबे न्यू एज लेखक हैं, हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लिखते हैं. वे संभवतः अकेले लेखक हैं जो स्वयं अंग्रेजी-हिंदी में एक साथ उपन्यास लिखते हैं. अब तक दो उपन्यास प्रकाशित हैं- लूजर कहीं का और इश्कियापा. समकालीन लोकप्रिय लेखकों में उनकी कामयाब पहचान है. हाल में ही उनको उन्हें सियोल फाउंडेशन और आर्ट एंड कल्चर (यह एशिया की सबसे प्रतिष्ठित राइटर्स रेजीडेंसी में से एक है) की तरफ से एशिया के तीन लेखकों में चुना गया और सियोल में आयोजित 2016 एशियाई साहित्य और रचनात्मक कार्यशालामें उन्होंने भाग लिया। यह कहानी मूलतः वहीं एक एशियाई लेखन के अंग्रेजी जर्नल में प्रकाशित हुई थी. इसका बहुत सुन्दर अनुवाद युवा लेखिका उपासना झा ने किया है- मॉडरेटर 
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एक आधा इश्क़

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और सब कुछ अधूरा था.

मौसम भी आधा गर्म आधा सर्द.

उसके चेहरे पर एक ज़बरदस्ती की आधी मुस्कान थी.

उसने आधी बाजू की टेरीकॉटन कमीज़ पहनी हुई थी.

सामने वाले बुटीक का शटर आधा ऊपर था.

इकलौती चीज़ जो भरपूर थी, वो थी सिलाई मशीन की आवाज़ जो किसी टूटी हुई सड़क पर चल रही रोड रोलर जैसी थी.

वह श्याम तिवारी था. श्याम अपनी सिलाई की दुकान खुले में सड़क किनारे, गुलमोहर के पेड़ तले लगाता था. गुलमोहर का पेड़ ऐसा लगता था मानो लाल फूलों की चादर ओढ़े हो. श्याम तिवारी अपनी प्यारी सिलाई मशीन को हर रोज़ किसी रोबोट की तरह इंस्टॉल करता था. उसकी ये छोटी सी दुकान यमुना-पार इलाके में समाचार अपार्टमेंट्स के सामने थी. इस कॉम्प्लेक्स में कई तेज़-तर्रार पत्रकार काम करते थे. इस पूरे इलाके में  गजब की ऊर्जा थी. और आखिर क्यों न हो, राजधानी कॉमनवेल्थ गेम्स 2010 की तैयारियों में जोर-शोर से जुटा हुआ था.

जिस शहर में अंतर्राष्ट्रीय खेलों का आयोजन हो, उसका रंग ही कुछ और होता है. नयी दुल्हन की तरह इसपर भी बहुत ध्यान दिया जाता है. और दिल्ली भी नई दुल्हन की तरह ही सजी हुई थी. नयी चिकनी सड़के, चमचमाते पांच सितारा होटल, साफ़-सफाई, इ-रिक्शा और झुग्गियों को अच्छी तरह से जश्न मनाती दीवारों के पीछे छिपा दिया गया था.

लेकिन इन सब चमक-दमक और रौशनी के बीच, ये मौत जैसी ख़ामोशी क्यों थी? ऐसा क्यों लगता था जैसे शहर ने मॉर्फिन से भीगा हुआ रुमाल सूँघ लिया हो?

लेकिन श्याम नशे में नहीं बल्कि पूरी तरह से जागा हुआ लगता था.

सामने की तरफ एक चौड़ी सड़क गयी थी. उसके दोनों तरफ रिहायशी अपार्टमेंट्स थे और कुछ दुकानें भी थी. सड़क के एक किनारे, एक लेडीज बुटीक था ‘नवरंग बुटीक’. एक गंजे और नंगे पुतले को एक भड़काऊ सा सलवार कमीज पहनाया हुआ था और उसके सर पर एक विग थी. पुतला भद्दा लग रहा था। सजा हुआ वह पुतला स्थिर था अपनी जगह. अचानक एक शटर तेज़ शोर के साथ बन्द किया गया और एक बड़ा सा सुनहला ताला इसपर एक पेंडुलम की तरह लटक गया.

श्याम तिवारी की दुकान में सजावट के नाम पर एक खस्ताहाल मशीन, एक एंटीना लगा हुआ रेडियो सेट और कपड़ों का एक कार्टन था। वह चालीस के शुरुवाती सालों में था. आज भी उसने साफ़-सुथरे और साधारण कपड़े पहने हुए थे. वह नवरंग बुटीक की तरफ देख रहा था और खोया हुआ लग रहा था. शटर की आवाज़ से वह चौंक गया. उसके पुराने रेडियो सेट पर आकाशवाणी लगा हुआ था और कोई कानफोड़ू विज्ञापन इतनी कर्कश आवाज़ में बज रहा था कि कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था. उसने एंटीना एडजस्ट करने की कोशिश की. उसने एक बड़े साइज़ का ब्लाउज उठा लिया और उसको ठीक करने में लग गया.

समाचार अपार्टमेंट का चौकीदार हाथ में बीड़ी लेकर उधर ही चला आया. श्याम ने उसकी तरफ देखा भी नहीं. वह ब्लाउज के दोनों किनारे खोल रहा था कि और जगह बन सके. उसके कंधे पर हाथ रखते हुए चौकीदार शरारत से मुस्कुराया.

तनेजा मैडम! है ना! अपनी समझदारी दिखाते हुए चौकीदार मुस्कुराते हुए बोला.

श्याम ने चुप रहना ही ठीक समझा. वह अब तक ब्लाउज के दोनों किनारे खोल चुका था।

‘मैं ब्लाउज के साईज को देखकर ही समझ गया था’ चौकीदार की इस चुहल में श्याम शामिल नहीं हुआ.

अरे ओ उबाऊ आदमी! मेरे साथ ‘मुगल-ए-आज़म’ देखने चलेगा? रंगीन में आई है. उसने अपने साथ रीगल सिनेमा चलने की बात कही.

श्याम को कोई फर्क नहीं पड़ा. वो बोलता हीं कम नहीं था बल्कि उसके चेहरे पर कोई भाव भी नहीं आते थे. या तो उसे भावों से डर लगता था या भावों को उससे.

चौकीदार अब तक बहुत चिढ़ गया था. उसने जाने से पहले श्याम को उकसाते हुए कहा’

“तनेजा मैडम के पास बहुत ब्लाउज हैं. आज ये ब्लाउज तुमने ठीक नहीं किया तो वो मर नहीं जाएगी’ बोलता हुआ वह तेजी से वहां से चला गया.

श्याम तिवारी त्रिलोकपुरी में अकेलेपन का जीवन जी रहा था, उस इलाके में कम आमदनी वाले लोग रहते थे. अपने दोस्तों में वह सिर्फ अपने पडोसी विनय, उसकी पत्नी और उसकी बहन को गिन सकता था. वो भी उसके दोस्त नहीं, बस जान-पहचान वाले थे.

श्याम किसी कैफे में एक आरक्षित टेबल जैसा था, उसके आस-पास कोई नहीं फटकता था. उसने खुद को एक दायरे में बाँध रखा था. उसके दिल के सबसे नजदीक वही पुराने एंटीने वाला रेडियो था, जिससे वो अक्सर चिपका रहता था. उसके बारे में एक बेहद दिलचस्प बात ये भी थी रेडियो की आवाज़ जितनी साफ़ आती उसकी सिलाई की वैसे ही बढ़ती जाती.

आज वही खास ‘दिन’ था. इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच राम मंदिर- बाबरी मस्जिद के संवेदनशील मुद्दे पर अपना फैसला सुनाने वाली थी. फैसले में ज़रा से असन्तुलन से देश भर में दंगे भड़कने का डर था उससे खेल की तैयारियां रुक सकती थीं. भारत एक भावुक देश है जहाँ धर्म के नाम पर अक्सर विवाद और झगड़े हो जाते हैं. किसी हिंदी थ्रिलर फ़िल्म की तरह उस शहर का हर काम और कई सारी कड़ियाँ आपस में जुडी हुई थी. एक तरफ तो तैयारियाँ ज़ोरों पर थी दूसरी तरफ उस समय घट रही घटनाओं का भी पूरा असर था. खेल शुरू होने से ठीक एक दिन पहले सब बिगड़ जाने का डर था. ऐसे समय में ये एक अहम और संवेदनशील फैसला था. हजारों लाठियां और मिठाईयां हिन्दू-मुसलमानों ने खरीद रखी थी, जो कोर्ट में भी आमने-सामने थे. ये  दंगा भड़कने और जश्न दोनों ही सूरत में तैयारी पूरी थी.

श्याम तिवारी अपने रेडियो से चिपका हुआ था, और पूरे शहर में कर्फ्यू लगा हुआ था, जैसे फैसला आने के बाद होने वाले दंगों की सम्भावना से सांस रोककर इंतज़ार कर रहा हो. उसका दिल रेडियो की हर बीट और हर सन्नाटे पर रुकने लगता था. ठीक एक बज रहा था. सरकारी ब्रॉडकास्टर, ऑल इंडिया रेडियो ने घोषणा की कि बाबरी मस्जिद को गिरे हुए कि ठीक दो दशक हो गए हैं और अब भी विवाद सुलझा नहीं है। श्याम ने रेडियो की तरफ देखा, उसके दिल ने जैसे धड़कना बन्द कर दिया था.

समाचार वाचक ने लगभग सबसे सन्तोषजनक फैसला पढ़ के सुनाया. एक-तिहाई जमीन मंदिर के लिए जायेगी, एक-तिहाई मस्जिद के लिए एक-तिहाई निर्मोही अखाड़े को (यह एक स्वतंत्र धार्मिक हिन्दू संस्था है). यह एक अच्छा और संतुलित फैसला था. शुक्र है कि इसने सब को अपने हिस्से की ख़ुशी दी थी. और इससे भी अच्छी बात यह थी की अब कॉमनवेल्थ गेम्स के बिगड़ने का कोई डर नहीं था.

तभी अकेले बैठकर अतीत में डूबे श्याम की सोच कार के अचानक ब्रेक लगने की आवाज़ से टूट गयी जो उसकी दुकान के आगे आकर रुकी थी. कार में बस एक ड्राईवर था जो चादर में बंधे हुए कपड़ो की गट्ठर लेकर जल्दी से उतरा.

ड्राईवर ने पूछा “शाम तक ठीक कर सकोगे”?

हमेशा की तरह कम बोलते हुए श्याम ने कहा ‘6 बजे आओ’,

ड्राईवर ने कांच ऊपर चढ़ाई और चला गया.

श्याम ने गट्ठर खोली और ध्यान से एक- एक कपड़े को देखने लगा. उसकी हैरानी तब कोई  सीमा न रही जब उसे एक चटक केसरिया कुर्ती दिखी। हे भगवान! क्या ये वही कुर्ती थी? ये उसी कपड़े के टुकड़े से बनी लग रही थी और उसमें भी वही सुनहली लेस थी. श्याम बेचैन हो उठा.

उसने उसे सीधा किया, उलट पलटकर देखा और ज़ोर से भींच लिया. कपड़ो के ढेर में उस केसरिया सिल्क कुर्ती को देखकर वो स्तब्ध था. आखिर उस चुप से रहने वाले आदमी को भावनाओं से किसने भर दिया- कैसे उस छोटी सी केसरिया कुर्ती ने भावों का ज्वार ला दिया था?

उस सिल्क कुर्ती का एक अतीत था.

श्याम की आँखों से आंसू बहे जा रहे थे. उसके हाथ में रखी कुर्ती उसके आंसुओं सेे भीग गयी थी- वे आंसू जो जाने कब से दबे हुए थे. उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि वही केसरिया कुर्ती एक दिन इस तरह से उसके पास लौट आएगी.

उसे 1992 का अयोध्या याद आ गया. उसने ये कुर्ती अपनी बुर्का पहनने वाली जान के लिए बनाई थी. उसने उसका चेहरा कभी नहीं देखा था. वो उसको उसकी खूबसूरत नीली आँखों से पहचानता था. मस्जिद गिराये जाने वाले दिन जिस पल उसने उसे ये कुर्ती दी थी, उसका परिवार और आस-पास की दुनिया उजड़ चुकी थी.उस कुर्ती में एक खूबसूरत इश्क़ छिपा था, और ये एक आधा इश्क़ था.

उस कुर्ती ने श्याम की खोयी हुई उम्मीद एक बार फिर जगा दी थी.

श्याम तिवारी तब अयोध्या के राम मंदिर के पुजारी का बेटा था. श्याम  अपने किस्म का विद्रोही था. उसने दर्ज़ी का पेशा चुना था जो उसके पुजारी पिता को मुसलमानों का पेशा लगता था, और उनको इससे बहुत शर्मिंदगी महसूस होती थी. एक पुजारी का बेटा दर्ज़ी बन गया था.उसने एक गुलमोहर के पेड़ के नीचे अपनी दुकान जमाई थी. अपनी सायकिल बेचकर उसने एक नयी सिलाई मशीन खरीदी थी. उसके पिता उसे दिन-रात इस बात के लिए कोसते रहते थे.

“जिंदगी भर औरतों की छातियाँ नापते रहोगे तुम!” उसके पिता घृणा से चिल्लाये.

“क्यों नहीं? मुझे मंदिर के देवताओं को नहलाने से बेहतर यही लगता है! बागी बेटे ने फट से जवाब दिया.

राम शरण, श्याम के पिता के मुंह से गुस्से से झाग निकल रहा था. उन्होंने बेरहमी से अपने बेटे को बेंत से खूब पीटा. बेचारी माँ रोती-झींकती दया की गुहार करती और बाप-बेटे के बीच शांति की कोशिश करती.

” मैं तुम्हें पैसे दूंगा, एक मिठाई की दुकान खोल लो. प्रसाद के लिए मिठाइयाँ बनाओ. लेकिन तुम हरामखोर, तुम औरतों की छातियाँ और कमर नापना  चाहते हो? उसके पिता चिल्लाते हुए बोले.

श्याम की माँ बीच-बचाव करती हुई बोली” वह जवान हो गया.. उसे इस तरह..”

उनकी बात बीच में ही काटकर पिता बोले ” उसका गर्म खून अगर इतना उबल रहा है तो उसको रथ यात्रा में भाग लेना चाहिए”, और देश की सेवा करनी चाहिए नाकि औरतों की”

श्याम ने जवाब में पिता को घूरकर देखा.

“मुझे कल सुबह रथ यात्रा के लिए निकलना है” रामशरण फिर चिल्लाये.

रथ यात्रा एक बड़ा जुलूस था जो राष्ट्रिय स्तर के तत्कालीन  बड़े नेता की अगुवाई में चलाया जा रहा था ताकि पार्टी समर्थकों की गोलबंदी हो सके और धार्मिक आधार पर एक बड़ा वोट बैंक तैयार हो सके.

श्याम बहुत मुश्किल से अपनी झुँझलाहट को काबू कर सका. उसके पिता उसकी बगल में बैठ गए और तनाव कम करने के लिए एक हाथ उसके कंधे पर रख दिए. उन्हें महसूस हुआ वह जवान बेटे के साथ कुछ ज्यादा ही सख़्ती से पेश आ रहे थे.

“चलो..जो भी हुआ भूल जाओ” श्याम को शांत कराते हुए बोले.

श्याम ने पिता के हाथ झटक दिए.

राम शरण उठे और एक कपड़े का टुकड़ा उठा लाये.

श्याम की बगल में बैठकर उन्होंने उसके हाथ में वह कपड़ा रख दिया.

“तुम्हें इस केसरिया सिल्क के टुकड़े से देवी सीता के वस्त्र सिलने पड़ेंगे” उसको खुश करने की टोन में बोले

श्याम चुप रहा.

“बस यही करने से तुम्हारे ये मुसलमानों का पेशा चुनने का पाप धुल सकेगा” उन्होंने कहा.

श्याम को सिलाई मशीन के लिए जूनून सा था. उसे धागों से प्यार था. उसे मशीन चलने की आवाज़ प्यारी लगती थी. उसे कपड़े काटना और उनपर जादू करना अच्छा लगता था.

वो एक बेहद ठण्डी जाड़े की सुबह थी. श्याम ने एक मैरून स्वेटर और काला मफ़लर पहना हुआ था. उसने अपनी दुकान सेट कर ली थी. एक लड़की उसकी दुकान में आई, उसने एक काला बुर्का पहना था. उसके साथ उसकी सहेली भी थी.

“मुझे कुछ सिलवाना है”, जल्दी में लग रही लड़की ने कहा.

श्याम ने उसकी गहरी नीली आँखों में देखा और उस लड़की को देखते ही उसे प्यार हो गया.

” आप 6 दिसंबर तक मुझे ये देंगे ना, मेरे घर पर शादी है” उसकी गहरी नीली आँखों वाली लड़की ने कहा.

उसकी नीली आँखों ने उसपर मानों जादू कर दिया.  उसने वैसी ही बेबसी महसूस की जैसे वो सागर किनारे खड़ा हो और तट से सुनामी की लहरें टकराने वाली हों.

यही वो दिन था जब अयोध्या के उस मासूम को प्यार हो गया. पुजारी के बेटे को मुस्लिम लड़की से प्यार हो गया. प्यार सीमाओं से परे हैं, जाति, धर्म, सरहद संस्कृति सबसे परे. लेकिन अपने देश में आमतौर पर कोई भी ऐसा प्यार एक बड़ा तूफ़ान ला खड़ा करता है.

अँधेरी रात थी, हमेशा जैसी गहरी अँधेरी. श्याम रात को गुल करता था. उसने अपने दाँतो पर गुल का मन्जन रगड़ा और खुद को आईने में देखा. दाँत साफ़ किये और कुल्ला किया. वह बेचैन लग रहा था.

“श्याम..श्याम..”दूसरे कमरे से उसकी माँ ने उसे पुकारा.

“तुम्हारे पिता बुला रहे थे. तुम्हारे बारे में पूछ रहे थे. तुमने मेरी जिंदगी नर्क क्यों बना दी है? तुमसे बहुत नाराज़ हैं वो.. तुम्हें मंदिर से जुड़ा कुछ करना चाहिए.. हमारे बाप-दादा सब यही करते आये हैं.. समझे? उसकी माँ ने उसे समझाते हुये कहा.

“अगर आपलोगों ने मुझपर और दवाब डाला तो मैं रेलगाड़ियों में संडास साफ़ करने लगूंगा” श्याम गुस्से में बोला.

ये सुनकर उसकी माँ को भी गुस्सा आ गया. वो उठकर जाने लगी.

श्याम अपनी प्यारी माँ को समझाते हुए बोला “पहले हमने एक काम चुना.. उससे हमें जाति मिली.. लेकिन अब उसका उल्टा हो रहा है.. और कबतक ऐसा होता रहेगा माँ?

माँ खुशामदी लहज़े में कहने लगी” तुम्हारे पिता ने तुम्हें एक केसरिया सिल्क का कपड़ा दिया था, दिया था न! तुमने उससे सीता मैया के कपड़े सिले कि नहीं”?

श्याम ने प्यार से अपनी माँ की तरफ देखा” तुम्हें नीली आँखे अच्छी लगती हैं माँ?”

उनको समझ नहीं आया कि वह क्या बोल रहा है.

श्याम ख्याल में डूबते हुए बोला “नदी जैसी नहीं.. सागर जैसी नीली?

माँ ने उसकी तरफ डर से देखा और बोली ” डब्बे में रोटियाँ रखी है. सोने से पहले खा लेना”.

श्याम के लिए वो मुश्किल रात थी.

मछली की तरह वो बिछावन में करवटें बदलता रहा. उसकी जेहन में बस वो नीली आँखे ही थी. उसने बल्ब जलाया. गंदे, ढीले तार बल्ब के आसपास लटक रहे थे. वह उठकर अपने बिछावन पर घुटनों के बल बैठ गया. उसने बल्ब को ध्यान से देखा. जल्दी से उतरकर बिछावन के नीचे से एक स्टील का बक्सा निकाला और उसमें से कपड़े निकाल-निकाल कर फेंकता गया जब तक कि वो केसरिया सिल्क का टुकड़ा उसके हाथ में न आ गया.

उसने उस कपड़े को देखा, उसे छुआ.उसने अपनी जिंदगी में इतना अच्छा कपड़ा कभी नहीं देखा था. साटिन की तरह चिकना और वेलवेट की तरह मुलायम .वह बिस्तर पर खड़ा हो गया और कपड़े को बल्ब के ऊपर फ़ैलाने की कोशिश करने लगा.

पूरा कमरा एक केसरिया रौशनी में चमकने लगा.

उसे ये सब अद्भुत लग रहा था. ऐसा लग रहा था कि वह कपड़े और बल्ब से लुका छिपी खेल रहा हो. उसने कपड़े को बल्ब से हटा लिया और चादर की तरह ओढ़ लिया. कभी वो कपड़े को खींचता, कभी चूमता, कभी ज़ोर से गले लगाता…उसने सोने की कोशिश में आँखे बन्द की लेकिन उसे वही नीली आँखे बार बार दिखाई पड़ती थी.

उसने कपड़े के टुकड़े को ऐसे पकड़ा जैसे वह कपड़ा न होकर वो नीली आँखों वाली लड़की ही उसकी बांहो में आ गयी हो. उसने उस कपड़े को चेहरे पर फैलाया और  बत्ती बुझा दी.

अलसुबह. गुलमोहर का पेड़ ख़ूबसूरत और लाल लग रहा था. श्याम अपनी साइकिल पर एक बड़ा सा बक्सा रखकर चला आ रहा था. उसने सिलाई मशीन का खाकी कवर हटाकर ताला खोला. ये सब उसने बहुत तेजी से किया. अपना बक्सा एक तरफ रखकर उसने ऊपर पेड़ की तरफ देखा. बिना फूलों के पेड़ अजीब दिख रहा था. उसने लाल फूलों की कल्पना की और उस नीली आँखों वाली लड़की की भी.

तभी एक अख़बारवाला वहां से गुजरा. श्याम को देखकर वह रुक गया. अखबार वाला हँस के बोला ” तो मैं ही अकेला बेवकूफ़ नहीं हूँ मेरे अलावा भी कोई अपना काम इतनी सुबह शुरू कर देता है”

श्याम ने मुस्कुराते हुए उसके बण्डल से एक हिंदी अखबार खींच लिया.

अखबारवाले के पास बहुत खबरें थी.

” माहौल बहुत गरम है भाई. रहेंगे भारत में और मन्दिर की जगह मस्जिद चाहते हैं। क्या हम कभी पाकिस्तान जाकर मंदिर की मांग करते हैं?”

श्याम ने अख़बार वापिस रख दिया.

अखबार वाले को अपनी समझदारी भरे बयान पर श्याम की चुप्पी पसन्द नहीं आई। साइकिल पर बैठकर वह चला गया.

श्याम का दिमाग मशीन की तेजी से चल रहा था. उसने अपने झोले से वही सिल्क का कपड़ा निकाला और नापी वाली बही भी.पन्ने पलट कर उसने वही पन्ना निकाला जिसपर मोटे अक्षरों में लिखा था 6/12/92.

उसने उस पन्ने को चूम लिया और सिलाई शुरू कर दी.उसकी मशीन तेज होती जा रही थी और वह पूरे ध्यान से सिलाई में डूबा हुआ था.

उसने एक सुन्दर कुर्ती सिली और सुनहले लेस से उसको सजाने लगा.

श्याम ने सुन्दर आँखों वाली उस लड़की के लिए कुर्ती सिली जिससे उसे प्यार हो गया था. उसने सीता माँ की जगह अपने प्यार के लिए सिलाई की.

और वो दिन आ ही गया. 6 दिसम्बर 1992

वह एक छोटे बच्चे की तरह उत्साहित था. वह बेचैनी से उस लड़की के आने का इंतज़ार कर रहा था. हर पल उसे सदी के बराबर लग रही थी. उसकी जान  निकली सी जा रही थी. तभी वो आ गयी! उसकी नीली आँखे बुर्के के अंदर से चमक रही थी. वो नीली आँखे उसके नजदीक आई. श्याम ने वो कुर्ती उसे देनी चाही।

“ये मेरी नहीं है” लड़की बोली

“ये आपके लिए … मैंने सिली है” श्याम ने प्यार से कहा.

“मैं ये कैसे ले सकती हूँ? लड़की ने झिझक से कहा.

“मुझे आपकी नीली आँखों से प्यार हो गया है”, श्याम बोला.

लड़की चुप हो गयी.

“अगर आप इसे नहीं लेती हैं, तो मैं समझूँगा कि आप मुझे पसन्द नहीं करती”, श्याम ने बेहद नर्म लहज़े में कहा.

लड़की ने उसको देखा. दोनों की आँखे एक पल के लिए मिलीं. इससे पहले श्याम का दिल इस तरह कभी नहीं धड़का था.

“अगर आप नहीं लेना चाहती, तो भी कोई बात नहीं” श्याम बोला.

एक तरफ प्यार परवान चढ़ रहा था, तभी एक तेज़ धमाके की आवाज आई… दंगा शुरू हो गया था..वो दंगा जिसने एक प्रेम कहानी को निगल लिया. श्याम को घबराहट होने लगी. लड़की की दोस्त चीख उठी -“भाग मेहर भाग”

क्योंकि उनके पास उस जगह से भागने के अलावा और कोई चारा नहीं था. वो एक बार अपनी दोस्त की तरफ मुड़ी फिर भीड़ की आवाज़ की तरफ. श्याम का दिल किसी बुलेट ट्रेन की तेज़ी से धड़क रहा था. वो जाने लगी, फिर मुड़ कर श्याम के पास आई. उसने अपना हाथ आगे किया और जल्दी से उससे कुर्ती छीन ली. श्याम उसकी आँखों में खोया हुआ लग रहा था। उसको उसका प्यार मिल गया था.

आधा इश्क़. एक आधा इश्क़.

सबकुछ पलक झपकते ही बिखर गया. मस्जिद ढहने के साथ ही दंगा शुरू हो गया था. हिन्दू-मुसलमान के बीच की खाई और गहरी हो गयी थी और पूरा अयोध्या जैसे तूफान की चपेट में आ गया था. जंगल के आग की तरह इसने पूरे देश को अपने चपेट में ले लिया था.

आखिरी बार श्याम ने उसे उसी दिन देखा था.

पूरा देश हिन्दू और मुस्लिमों के बीच के धर्मिक उन्माद के ज़हर से गूंज रहा था.

“एक धक्का और दो, बाबरी मस्जिद तोड़ दो” हवा में ये नारा गूंज रहा था.

इससे पहले  कि दोनों पास आ पाते, दोनों अलग हो गए थे. हमेशा के लिए.

दंगों ने उन्हें एक दूसरे से अलग कर दिया था. हिन्दू लड़का और मुस्लिम लड़की हमेशा के लिए अलग हो गये थे.

पूरे अयोध्या में खूनखराबा हुआ. पूरा देश तनाव में था.

श्याम अपने घर की तरफ भागा, उसके माँ-बाप का क़त्ल हो गया था. फिर वो उस लड़की के मुहल्ले की तरफ दौड़ता हुआ भागा, वहाँ कोई नहीं था.

अगले दिन, अफवाह उड़ी कि वो नीली आँखों वाली लड़की जलाकर मार दी गयी थी. श्याम अपनी मशीन के साथ अयोध्या छोड़ गया. कभी न वापिस आने के लिए. उन नीली आँखों की यादों से दूर जाने के लिए.

और आज का ये दिन, 18 साल बाद बाबरी मस्जिद पर फैसला आ गया था. अपने प्यार के लिए उसने जो कुर्ती सिली थी वो भी आ गयी थी.

उसका प्यार अब भी ज़िंदा था.वह कहीं आसपास थी. शायद उसी कुर्ती में सांस लेती थी.

आँखों के आँसू और चेहरे की मुस्कुराहट ने वो सब धो दिया था, वो सब जिसने उसे अधूरा कर दिया था.

उसने गुलमोहर के पेड़ की तरफ देखा. उसे एक छोटा सा फूल दिखा, बेमौसम मुस्कुराता हुआ.

एक उम्मीद अब भी ज़िंदा थी.
और एक आधा इश्क़ लिखा जाना भी.

 
      

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6 comments

  1. हालांकि मैंने अभी तक मूलभाषा में उपरोक्त कहानी नहीं पढ़ी है, लेकिन बहुत ही सुन्दर अनुवाद उपासना झा का । निश्चित तौर पर इस कहानी के भाव सम्प्रेषण में अनुवादिका ने पूरे तौर पर सफलता प्राप्त की है । एक बारगी ये लगा तक नहीं की अनुवाद पढ़ा जा रहा है । धन्यवाद एक अति सुन्दर कहानी को प्रस्तुत करने के लिए ।

  2. पंकज दुबे जी से परिचय एवं युवा लेखिका उपासना झा द्वारा अनुवादित 'एक आधा इश्क़' की सुन्दर प्रस्तुति हेतु धन्यवाद!

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