सौरव कुमार सिन्हा का एक लेख ‘लल्लनटॉप’ पर पढ़ा था जौन एलिया की शायरी पर. बहुत मुतास्सिर हुआ था. अब आप हिंदी के शायर राजेश रेड्डी की शायरी पर उनका यह लेख पढ़िए आप भी मुतास्सिर हो जायेंगे- मॉडरेटर
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मुशायरे की रवायत सदियों पुरानी है। पिछले दो दशकों में साहित्य के अलग अलग क्षेत्रो में बदलाव के साथ साथ इसका रूप और रंग भी बदला है। नए चेहरे, नया प्रारूप और लोगो का इसके प्रति बदलता नजरिया ये तो साबित करता हीं है कि बदलते वक़्त ने मुशायरो की रूह तो नहीं लेकिन उसका आवरण जरूर बदला है। मौजूदा नस्ल जिनके कंधो पे साहित्य का भविष्य निर्भर है, इस बदलाव की समीक्षा नहीं कर पा रही है, और पुरानी पीढ़ी केवल तंज कस रही है और किसी कीमती चीज को खोने का विलाप कर रही है। उसकी रूचि सामंजस्य बिठाने की और नहीं है। हालांकि ये बात भी सच है कि चाहे वो गज़ल हो गीत हो या कविता, अपना मंच वे स्वयं बनाती है और वे खुद का निमित्त भी है। साहित्य का सफर किसी भी पीढ़ी का मोहताज नहीं होता, बदलाव अगर गलत होते है तो साहित्य में इतनी शक्ति होती है कि देर से ही सही लेकिन वो पुराने परिधान में आ जाती हैं। इन सबके बावजूद गजल की रूह जिसको एक शरीर तो चाहिए ही संवाद करने के लिए, थोड़ी परेशान नजर आ रही थी। अगर हम हिंदी उर्दू गजलों को अलग अलग कर दे तो ये परेशानी हिंदी गजलों में व्यापक रूप से दिखेगी ( लेकिन कोशिश रहेगी बात केवल गजलों की हो और उसमे भी मंचो पे पढ़े जाने वाली गज़ल )। अगर उर्दू वाले हिंदी या अन्य भाषाओं और बोलियों के प्रति थोड़े सख्त हैं तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए। पर इतने सख्त पैमाने वाले जानकार भला कितने हैं?
मेरे जैसे गज़ल के कद्रदान जिनका ज्ञान ८० के दशक से शुरू होता है , आज २०१६ तक अगर उस बदलते रूप की समीक्षा करने की कोशिश करे तो इस नतीजे पर आसानी से पहुंच जाते है कि मुहशयरे भी “फटाफट ” ढाँचे में आ गए है। अगर उस सामंजस्य की बात की जाए तो मेरी नजर में खुमार बाराबंकवी और मजरूह सुल्तानपुरी के बाद गजल की क्लासिकल रवायत ठहराव पर आ गई है। मुशायरो का तौर अब उस क्लासिकी को अनदेखा कर रहा है। शोर शराबा ज्यादा है और संजीदा नज्मे और गजले बस पुराने ज़माने की आपबीती सी हो गई है। मेरे पसंदीदा जॉन कहते थे “दाद–ओ–तहसीन का ये शोर है क्यों/ हम तो ख़ुद से कलाम कर रहे हैं।’ लेकिन मंचो से तालियों की चाह ने इस अदबी फन को अपने सफर से गुमराह कर दिया है।
अब बात राजेश रेड्डी साहब की। जिस अंदाज का जिक्र मैंने ऊपर किया और जिस सामंजस्य की कमी मेरी नजर में इस गिरते स्तर का कारण है वो सारी कमियां कई दशकों से जनाब राजेश रेड्डी साहब मुशायरो के मंचो से दूर करने की कोशिश कर रहे है। मुझे लगता है की खुमार साहब के बाद गजल की वो क्लासिकी रवायत जनाब राजेश रेड्डी ने ही सम्भाल रक्खी है। आप अगर खालिस गज़ल सुनने के शौक़ीन है तो राजेश रेड्डी उस लिहाज़ से आपके पसंदीदा होने चाहिए। इन्होने सिर्फ गजलों को अपनी पूरी कारीगरी समर्पित कर दी है। तरन्नुम में गज़ल पढ़ने का उनका तरीका आपको गज़ल के उसी रूप के नजदीक ले जाएगा जिसके लिए शायद इसका ईजाद किया गया होगा। कई प्रसिद्ध गज़ल गायकों ने इनकी गजलों को आवाज दी है लेकिन वो स्वयं जब गज़ल पढ़ते है तो सुनने वालो पर दोगुना जादुई असर होता है। अगर गज़ल की बारीकियों की बात करे तो हर लफ्ज में नक्काशी। मिसरों का चयन बहुत ध्यान से करते है जिसके कारण उनकी हर गजल मुकम्मल होती है।
कुछ और बरतना तो आता नहीं शे‘रों में
सदमात बरतता था, सदमात बरतता हूँ
जीने की कोशिशों के नतीज़े में बारहा
महसूस ये हुआ कि मैं कुछ और मर गया
अब मेरा अपने दोस्त से रिश्ता अजीब है
हर पल वो मेरे डर में है, मैं उसके डर में हूँ।
है सदियों से दुनिया में दुख़ की हकूमत
खु़दा! अब तो ये हुक्मरानी बदल दे
वो खुशनसीब हैं, सुनकर कहानी परियों की
जो अपनी दर्द भरी दास्तान भूल गए
राजेश रेड्डी, जिनको सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला‘ सम्मान मिल चुका है , उस लहज़े के शायर है जिन्हे सिर्फ महबूबा की जुल्फे या जिंदगी की कश्मकश नजर नहीं आती बल्कि इंसानी वजूद के हर उस मंजर पर वो बखूबी लिखना जानते है जिससे एक आम आदमी बेचैन हो जाता है। रवायात के दायरे में रह के मौजूदा दौर पे शेर लिखना जिसमे एक छोटे बच्चे का खिलौना भी शामिल है , एक बुढ़िया की लाठी भी, एक परिंदे का दर्द भी और एक मजलूम की चीख भी। गज़ल को बहुत गर्व होता होगा ये सोच कर कि सारी बंदिशों के बावजूद एक शायर हर गज़ल में सुर और ताल को भी बखूबी पिरोता है। घर में मौसिकी का माहौल पहले से था सो राजेश रेड्डी को ये आयाम विरासत में मिला। लेकिन मौसिकी के अलावा उनका तजुर्बा और जिंदगी की समझ उनके अशआर में बेहतरीन ढंग से नजर आता है।
शाम को जिस वक़्त ख़ाली हाथ घर जाता हूँ मैं
मुस्कुरा देते हैं बच्चे और मर जाता हूँ मैं
मुस्कुरा देते हैं बच्चे और मर जाता हूँ मैं
तेरी महफ़िल से दिल कुछ और तनहा होके लौटा है
ये लेने क्या गया था और क्या घर लेके आया है
ये लेने क्या गया था और क्या घर लेके आया है
गीता हूँ कुरआन हूँ मैं
मुझको पढ़ इंसान हूँ मैं
ज़िन्दा हूँ सच बोल के भी
देख के ख़ुद हैरान हूँ मैं
इतनी मुश्किल दुनिया में
क्यूँ इतना आसान हूँ मैं
मेह्रबाँ जब तक हवायें हैं तभी तक
इस दिए में रोशनी बाक़ी रहेगी
कौन दुनिया में मुकम्मल हो सका है
कुछ न कुछ सब में कमी बाक़ी रहेगी
‘दीवाने – ग़ालिब ‘ को उस्ताद मान कर राजेश रेड्डी ने अपने शायरी के सफर का आगाज़ किया। लेकिन उनकी शायरी में ग़ालिब से लेकर मजरूह सुल्तानपुरी तक का सफर दिखाई देता है। एक बात है जो मुझे राजेश रेड्डी जी का मुरीद बनाती है वो है उनका संजीदा मुद्दों पे लफ्जो की नक्काशी , उन्होंने तंज नहीं कसा किसी पे। संजीदा मुद्दों को उसी संजीदगी से पेश किया और उसी क्रम में गजल की नियमावली का पालन भी किया।
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