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ओलम्पिक के नाम डॉक्टर की चिट्ठी

आज व्यंग्यकार प्रवीण कुमार झा की चिट्ठी ओलम्पिक के नाम- मॉडरेटर 
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हम किस मिट्टी के बने हैं? किस चक्की का आटा खाते हैं? या सवाल यूँ तो वाहियात है, पर हमारी बनावट से जुड़ा है। उत्तर-पूर्व के लोग अक्सर फिट-फाट होते हैं, ‘V’ आकार के शरीर वाले। बंगाल-उड़ीसा तक आते-आते पुरुष सिकुड़ जाते हैं, ऐनक आ जाती है और महिलायें गोल-मटोल होनी शुरू हो जाती है। तेलंगाना से तमिलनाडु तक आते-आते गोलाई-चौड़ाई बढ़नी शुरू हो जाती है। केरल का भी वही हिसाब-किताब है, पर कुछ सिकुड़न वापस शुरू होती है। कर्नाटक-महाराष्ट्र-विदर्भ तक आकर सिकुड़ कर हाड़-माँस हो जाते हैं। गुजरात में थोड़ा संतुलन दिखता है तो राजस्थान सिकुड़ जाता है। पंजाब-हरियाणा में शरीर फिर से खिल उठता है, और उत्तरांचल-हिमाचल-कश्मीर तक हम पुन: ‘V’ आकार और सधे शरीर में वापस। काऊ-बेल्ट और केंद्रीय भारत का कोई हिसाब-किताब नहीं। मोटे, पतले, चौड़े, सिकुड़े सब मिल जायेंगें।
अपवाद रहेंगें। कोई स्टीरियोटाइप तो है नहीं। पर आटे का कुछ तो असर होगा? गढ़वाली या मणिपुरी को भिड़ा दो बिहारी से पहाड़ चढ़ने में!  वो तो शुक्र है कि देश में हर छोटे-बड़े पहाड़ के ऊपर एक मंदिर जरूर है। श्रद्धा के बहाने पूरे देश की फिटनेस हो जाती है। ७०-८० बरख वाले भी बदरीनाथ खींच देते हैं। वरना दलान की गप्प से पोकोमोन तक हर वर्ग उलझा पड़ा है। स्वास्थ्य का कबाड़ा और चिकित्सकों की चाँदी।
दरअसल आटे से ही ओलंपिक खेला जाता है। हरियाणा और उत्तर-पूर्व से ही सूरमा निकलते हैं। स्वर्ण-तालिका देख लें। खाते-पीते विकसित देश ऊपर नजर आयेंगें, फिर विकासशील और अंत में अविकसित। अफ्रीकी को जब ब्रिटेन वाले अपनी चक्की का आटा खिलाते हैं, दे गोल्ड पर गोल्ड मारता है।
वैसे उनके अपने टोटके हैं, अलग-अलग चक्कियाँ हैं। मुक्केबाजी और दौड़ में अश्वेत आये तो कॉकेशियन मूल पर भारी पड़े। जब श्वेतों के खेल में वेस्ट-इंडीज के सूरमा उतरे थे, पानी माँगने का मौका न देते थे। क्लाइव लॉयड ने पुंगी बजा दी थी। तैराकी और जिमनास्टिक में हाल तक उल्टा हिसाब-किताब था। अश्वेत शायद पहले उतने लचीले न रहे हों। अब मामला बदल रहा है। वो जमाना गया जब कैशियस क्ले को ओलंपिक स्वर्ण ओहायो नदी में बहानी पड़ी, धर्म बदलना पड़ा क्यूँकि एक रेस्तराँ से निकाल दिये गये। क्यूँकि वहाँ बस श्वेत खाते थे। अब सब एकहि चक्की का खाते हैं। अश्वेत लॉन-टेनिस और तैराकी में धूम मचा रहे हैं।
शोभा जी कुछ भी कहें, चक्की बदलने में हर्ज क्या है? भद्र-मानुष कान में रविंद्र-संगीत लगाकर भी तो दौड़ सकते हैं। गालिब-गुलजार नहीं, पर ऐकला चोलो रेऔर बाऊल सुनकर दौड़नें में क्या खूब लुत्फ आयेगा? सामंतवाद तो फुस्स हो गया, अब बिहार-यू.पी. में भी एक ही चक्की, एक ही आटा। मेरे यूरोपी मित्र पत्थरों पर साइकल दौड़ाकर माउंटेन-बाइकिंगकरते हैं। हमने तो बरसाती नालों और कंकड़ों पर ऐटलस की सेकंड-हैंड साइकल भी खूब दौड़ाई, और देर पहुँचने पर मास्साबकान भी ऐंठते। मास्साबके डर से दौड़ाओ या पड़ोसी मुहल्ले की पम्मी के घर चक्कर लगाओ पर साइकल चलाओ जरूर! कसम से एक दिन गोल्ड लेकर आओगे।
रही बात मानसिकता और सरकारी प्रयासों की। मसलन दोनों ही बदल रहे हैं, शनै:-शनै:। हँसने वाले तो हमारे मंगल-ग्रह पर पहुँचने पर विदेशी अखबार में कार्टून छापते हैं। हम इस लीग में नहीं हैं, उस लीग में नहीं हैं। अजी हम जिस लीग में हैं, वहाँ आप शायद कभी नहीं पहुँच सकते। इंदिरा जी फिर से आकर सबका बंध्याकरण कर दें, तो भी अगले २०-३० सालों तक हम अरब से ऊपर ही होंगें। दहाई भी फिट-फाट हो गए, तो सोना-चाँदी-काँसा गिनते रहो बस। और इंदिरा जी का आना तो वैसे भी हाइपोथेटिकल है। मतलब ये नहीं कि ताबड़-तोड़ बच्चे पैदा करें, बस चक्की बदल लें।

 
      

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4 comments

  1. प्रवीण कुमार झा तो बस मुरीद बना रहे हैं लेखन का! वाह झा सर

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