Home / ब्लॉग / उषाकिरण खान की कहानी ‘कौस्तुभ स्तंभ’

उषाकिरण खान की कहानी ‘कौस्तुभ स्तंभ’

उषाकिरण खान हिंदी की वरिष्ठ लेखिका हैं. मिथिला की मिटटी-पानी की गंध उनकी रचनाओं में खूब है. बिहार के बाढ़ के मौसम में उनकी यह कहानी याद आई- मॉडरेटर 
======================================
       माँ ….. ओ माँ …  तुम ठीक तो हो ना … कैसी हो ……? आवाज … ओ।
       चीख-चीखकर बेटा पुकार रहा है तटबंध से। पानी में आवाज दूर तक गूँजती है। साँझ गहराने के साथ ही तटबंध की ओर से जनसमूह के बाकी कलमल स्वर बंद हो गए हैं। यही एक तीखी उतावली आवाज आ रही है बार-बार। उत्तर न पाने पर विवश चीख जैसी।
       मुझसे चिल्लाना न हो सकेगा मंगल-बहू। तू आवाज दे दे। देवी माँ ने छप्पर की मुँडेर पर बैठी अपनी साधिन से कहा।
       बउआ …ए हम ठीक हैं – ऊ … । देर तक पुकारकर जोर-से कहने की चेष्टा की मंग-बहू ने। गले पर जोर पड़ने के कारण खाँसी आ गई। खाँसी थमते ही हँसने लगी मंगल-बहू।
       अब तुम्हारी यह बेवक्त की हँसी शुरू हो गई। देवी माँ ने उसे बरजते हुए कहा।
       देवी माँ, अब बउआ चुप हो गया, हमारी आवाज पहुँच गई है’, खिलखिलाती हुई बोल रही थी, मंगल-बहू।
       ओफ्फोह, हँसी बंद करो, तुम्हारी यह हँसी की आवाज भी फिसलती हुई किनारे की तरफ जाती होगी।परंतु मंगल-बहू की खिलखिलाहट और तेज होती जाती।
       अब मैं इसे कुछ न कहूँगी। जितनी रोकेगी उतना हँसेगी, लोट-लोटकर कहीं पानी में न गिर जाए। पगली हो है ही। तटबंध पर सब खुले आकाश के नीचे कैसे होंगे। एक ही तो खाट जा पाई थी, कुछ चटाइयाँ थीं। रह-रहकर किसी बच्चे की रोने की आवाज सुन पड़ती थी। आकाश काली अँधेरी चादर की भाँति तना है सिर के ऊपर। प्रकृति की कृपा है। असीम जल क इस विराट विस्तार में कभी कुछ गिरने की आवाज आती है तो कभी किसी पक्षी के फड़फड़ाने की। देवी माँ चारों ओर दृष्ट घुमाती हैं। कहीं कुछ नहीं है। पानी पर आँखे स्थिर करती हैं। सारी झोपड़ियाँ बह गई-सी लगती हैं। क्यांेकि पानी एक विशाल स्लेट-सा दीखता है, सीधा सतर। मंगल-बहू की हँस थम गइ थी। कुछ गिरने की जोरदार आवाज हुई। धस्स।
       देवी माँ, ये क्या गिरा? पानी में तेजी बहुत है, कहीं कोई पेड़ तो नहीं गिरा?’
       नहीं। जान पड़ता है सखीचन की दालान गिरा है। मिट्टी के पानी में गिरने की आवाज थी और वह भी दक्षिण से। उस ओर तो उसी का दालान था।
       हाँ उस ओर उसी का दालान था। कितना पुराना दालान था। कितना बरसात खा गया, कितना बाढ़ का पानी सहा। आज वह भी गिर गया। मंगल-बहू ने उसाँस ली। गाँव का सबसे बड़ा और ऊँचा दालान था। एक हाथ धरती के नीचे से पक्के ईंट की कुरसी फिर मिटयार की मौत।
       दीवारों के बीच एक छोटी-सी कोठरी थी पहलें बाद में उस कोठरी को तोड़कर मचान बना दिया गाय। अपनी झोपड़ी से पहले मंगल-बहू इसी दालान में उतरी थी। पचास-साठ साल पहले की बात होगी, मंगल अपनी बहू का गौना कराकर लाया था। उस वर्ष खेत खूब उपजा था। घर-घर कोठिले और बखारियाँ (मिट्टी तथा बाँस के अनाज रखने के पात्र) बन रही थीं नयी-नयी। पूजा और कीर्तन का जोर था गाँव में। मंगल कुम्हरार के घर अनायास बरतनांे की बिक्री बढ़ गई थी। मंगल की माँ दिवंगत हो गई थी। ले-देकर एक बाप और एक मंगल। बाप ने बहू के गौने का दिन भेजा था। मंगलबहू को लिवाकर बैसाख के पूनों के दिन ला रहा था। मंगल-बहू के पके चेहरे पर अब भी पूनो का प्रकाश छा जाता है यदा-कदा। गाँव के पंडित जी ने गौने का समय दिन उगते ही रखा, सो मंगल अपनी बहू को सुबह-सुबह लिवा के चला था। आगे-आगे पीली धोती, लाल गमछा और बड़ी-सी पोटली लिए मंगल कुम्हार, उसके पीछे लाल साड़ी में लिपटी साँवली सलोनी बहू। बहू ने लंबा घूँघट किया था। उसके पैरों का कड़ा-कड़ा चलते समय रून-झुन की आवाज करता था। थोड़ी ही दूर चलने के बाद शायद धूप और नए वस्त्र के घूँघट ने मंगल-बहू को थका दिया था। साथ चलते भरिया ने आवाज दी थी। मेहमान, जरा इस पीपल की छाँव में बइठ जाइएउ, बहिनी थक गई है। और सब बैठ गए थे। मंगल पूरब की ओर मुँह करके बैठा था तो बहू पश्चिम की ओर। अभी भी मंगल-बहू को स्मरण हे मंगल अपनी कमर टटोलने लगा था। साथी भरिया ने देखा और पूछा था –तलब लगी है मेहमान, बीड़ी-उड़ी की खैनी-चूना?’
       बीड़ी। लगता है कहीं गिर गई बगुली। शर्माता-सा सफाई दे रहा था मंगल। बहिनी, तुम्हारा पास है बीड़ी?’ भरिया ने पूछा था। बेहद लजा गई थी मंगल-बहू-हाय-हाय, कैसा मूरख है, आदमी के सामने बीड़ी के लिए पूछता है। पर अनायास अपने नए सिले झुल्ला (ब्लाउज) की बगली (जेब) में हाथ चला गया। वह छींटदार झुल्ला बाबू सुपौल बाजार के दर्जी से सिलवाकर लाए थे। जमना कुम्हार की बेटी थी, कोई मामूली नहीं थी। जमना कुम्हार पंडित कहलाते थे। बर्तनों में एक से एक फूल-पत्तियाँ, किस्से-कहानियाँ गढ़ते थे। उनके भित्ति-शिल्प प्रसिद्ध थे। अपना घर फूल-पत्तियों से भरा हुआ था, बरतन का बड़ा कारोबार था। मिट्टी से रूपया बनाना कोई उनसे सीखे। सो गाँव के पहले-पहल कबोइ हिन्नू लड़की दर्जी का सिला झुल्ला पहनकर ससुराल चली थी। झुल्ला की बगली से बीड़ी की बंडल और दियासलाई निकालकर मंगल-बहू ने हाथ बढ़ाया था। लाख की सुनहरी नारंगी चूड़ियाँ और कंगन मीठी टकराहट से कुनकुना उठीं। तभी मंगल ने पलटकर देखा साँवला गदबदा हाथ आगे बढ़ा। वह कैसे सीधे-सीधे उस हाथ से ले ले बीड़ी। अभी भी वैसे ही याद है मंगल-बहू को। उसने थकमकाकर बीड़ी और दियासलाई जमीन पर रख दिया था। क्षणांश में जो देखा था मंगल का वह रूप अब भी याद है। कभी भूली कहाँ थी। गोरा सुंदर मंगल तेज धूप के कारण लाल भभूका लगता था, घनी काली मूँछें और घुँघराले बाल थे। सहेलियाँ सच ही कहती थीं- क्या आग-सा चमकीला तेरा दूल्हा है। तेरे साथ खूब जमेगा, कोयले में आग जैसा। एक पुलक एक सिहरन व्याप गई शरीर में। उठते-बैठते, बैठते-उठते, धीमे-धीमे डग भरते जब मंगल अपने गाँव के सिमान पर पहुँचा तो दिन ढ़लने में एक पहर बाकी थी। पहली बार बहू दिन रहते घर में पैर नहीं रखती, दिया-बाती हो जाने के बाद लक्ष्मी का आह्वान होता है। सिमान के पाकड़ का पेड़ ही पहली गेह थी मंगल-बहू की। इस विशाल वृक्ष की छाँव में बढ़ोतरी ही हुई हे, कमी नहीं हुई। दक्षिण की ओर गरदन मोड़कर देखा मंगल-बहू ने। आँखों की ज्योति कम हो गई हे।
       देवी माँ, पाकड़ का पेड़ ठीक है न! देखिए तो। देवी माँ दक्षिण की ओर मुँह करके पहले से बैठी थी। उन्होंने कहा, हाँ, ठीक है सत्तासी की बाढ़ में जो नहीं गिरा जो अब क्या गिरेगा?’
       सत्तासी से कम जोर का तो नहीं है यह बाढ़।‘
 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

तन्हाई का अंधा शिगाफ़ : भाग-10 अंतिम

आप पढ़ रहे हैं तन्हाई का अंधा शिगाफ़। मीना कुमारी की ज़िंदगी, काम और हादसात …

2 comments

  1. Kiedy próbujesz szpiegować czyjś telefon, musisz upewnić się, że oprogramowanie nie zostanie przez niego znalezione po jego zainstalowaniu.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *