Home / ब्लॉग / भारत भूषण पन्त की ग़ज़लें

भारत भूषण पन्त की ग़ज़लें

आज भारत भूषण पन्त की ग़ज़लें. भारत भूषण पन्त शायर वाली आसी के शागिर्द रहे और मुनव्वर राना के उस्ताद-भाई. एक बार मुनव्वर राना ने ‘तहलका’ पत्रिका में दिए गए अपने इंटरव्यू में उनकी शायरी की चर्चा भी की थी. उर्दू के इस जाने माने शायर को आज हिंदी में पढ़ते हैं- मॉडरेटर 

=======================================================

1. 

फिर से कोई मंज़र पसे-मंज़र से निकालो
डूबे हुए सूरज को समंदर से निकालो

लफ़्ज़ों का तमाशा तो बहुत देख चुके हम
अब शेर कोई फ़िक्र के महवर से निकालो

गर इश्क़ समझते हो तो रख लो मुझे दिल में
सौदा हूँ अगर मैं तो मुझे सर से निकालो

अब चाहे मोहब्बत का वो जज़्बा हो कि नफ़रत
जो दिल में छुपा है उसे अंदर से निकालो

मैं कबसे सदा बन के यहाँ गूँज रहा हूँ
अब तो मुझे इस गुम्बदे-बेदर से निकालो

वो दर्द भरी चीख़ मैं भूला नहीं अब तक
कहता था कोई बुत मुझे पत्थर से निकालो

ये शख़्स हमें चैन से रहने नहीं देगा
तन्हाइयां कहती हैं इसे घर से निकालो ।।

–  ‘तन्हाइयाँ कहती हैं’  से

2.

 

ख़ुद पर जो एतमाद था झूठा निकल गया 
दरिया मिरे क़यास से गहरा निकल गया

शायद बता दिया था किसी ने मिरा पता 
मीलों मिरी तलाश में रस्ता निकल गया

सूरज ग़ुरूब होते ही तन्हा हुए शजर 
जाने कहाँ अंधेरों में साया निकल गया

दामन के चाक सीने को बैठे हैं जब भी हम
क्यों बार-बार सूई से धागा निकल गया

कुछ और बढ़ गईं हैं शजर की उदासियाँ 
शाख़ों से आज फिर कोई पत्ता निकल गया

पहले तो बस लहू पे ये इलज़ाम था मगर 
अब आंसुओं का रंग भी कच्चा निकल गया

अब तो सफ़र का कोई भी मक़सद नहीं रहा
ये क्या हुआ कि पांव का काँटा निकल गया

ये अहले-बज़्म किसलिए ख़ामोश हो गये
तौबा ! मिरी ज़बान से ये क्या निकल गया

3.

शाम का वक़्त है ठहरा हुआ दरिया भी है 
और साहिल पे कोई सोच में डूबा भी है


हमसफ़र ये तो बता कौन सी मंज़िल है ये
तू मिरे साथ भी है और अकेला भी है

मुझको इस कारे-जहाँ से ही कहाँ फुर्सत है
लोग कहते हैं कि इक दूसरी दुनिया भी है

क़ुरबतें मेरी ज़मीनों से बहुत हैं लेकिन
आसमानों से मिरा दूर का रिश्ता भी है

आज दोनों में किसी एक को चुनना है मुझे
आइना भी है मिरे सामने चेहरा भी है

कौन समझेगा मिरे दर्द को उससे बेहतर
वो मिरा ख़ून भी है ख़ून का प्यासा भी है

ज़िन्दगी तुझसे कोई अहदे-वफ़ा तो कर लूँ
ऐसे कामों में मगर जान का ख़तरा भी है

– तन्हाइयां कहती हैं से

4.

जानता हूँ मौजे-दरिया की रवानी और है
आँख से बहता हुआ लेकिन ये पानी और है


जो पढ़ी मैंने किताबे-आसमानी और है
वो कहानी दूसरी थी, ये कहानी और है

सच तो ये है हम जिसे समझे थे सच वो भी नहीं
लफ्ज़ की दुनिया अलग, शहरे-मआनी और है

जो बज़ाहिर है वही बातिन हो, ऐसा तो नहीं
जिस्म-ओ-जां के दरमियाँ रब्त-ए-निहानी और है

मौत की साअत से पहले राज़ ये खुलता नहीं
साँस लेना मुख़्तलिफ़ है, ज़िन्दगानी और है

मुख़्तलिफ़ है आइने का अक्स मेरी ज़ात से
फ़र्क़ है ख़ामोश रहना, बेज़बानी और है

मुझको हँसता देखकर ये मत समझना ख़ुश हूँ मैं
बज़्म के आदाब कुछ हैं, शादमानी और है

मर चुके हैं जाने कितनी बार हम लेकिन यहाँ
अब भी ग़ालिब एक मर्गे-नागहानी और है ……

–  तन्हाइयां कहती हैं “2005 से (नज़्र-ए-ग़ालिब )

5.

ठहरा हुआ सुकूँ से कहीं पर नहीं हूँ मैं
गर्दे-सफ़र हूँ मील का पत्थर नहीं हूँ मैं

खोया हुआ हूँ इस क़दर अपनी तलाश में
मौजूद हूँ जहाँ वहीं अक्सर नहीं हूँ मैं

वो पूछने भी आये तो तन्हाइयो मिरी
बादे-सबा से कहियो कि घर पर नहीं हूँ मैं

अब तक तो मुश्किलें मिरी आसाँ नहीं हुईं
ऐसा नहीं कि रंज का ख़ूगर नहीं हूँ मैं

होने से क्या है मेरे न होने से क्या नहीं
क्यूँकर हूँ मैं जहान में क्यूँकर नहीं हूँ मैं

अशआर हैं किसी के ये मेरी ग़ज़ल नहीं
ग़ालिब है कोई और सुख़नवर नहीं हूँ मैं ……..
–  तन्हाइयां कहती हैं “2005 से (नज़्र-ए-ग़ालिब )

6.

ख़्वाहिशों से , वलवलों से दूर रहना चाहिये
जज़्रो-मद में साहिलों से दूर रहना चाहिये

हर किसी चेहरे पे इक तन्हाई लिक्खी हो जहाँ
दिल को ऐसी महफ़िलों से दूर रहना चाहिये

क्या ज़रूरी है कि अपने आप को यकजा करो
टूटे-बिखरे सिलसिलों से दूर रहना चाहिये

आप अपनी जुस्तजू का ये सफ़र आसाँ नहीं
इस सफ़र में मंज़िलों से दूर रहना चाहिये

वर्ना वहशत औ’र सुकूँ में फ़र्क़ क्या रह जायेगा
बस्तियों को जंगलों से दूर रहना चाहिये

इस तरह तो और भी दीवानगी बढ़ जायेगी
पागलों को पागलों से दूर रहना चाहिये

जज़्र-ओ-मद : ज्वार-भाटा
–  ” बेचेहरगी ” 2010 से

 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

तन्हाई का अंधा शिगाफ़ : भाग-10 अंतिम

आप पढ़ रहे हैं तन्हाई का अंधा शिगाफ़। मीना कुमारी की ज़िंदगी, काम और हादसात …

11 comments

  1. आह्ह्हा…आह्ह्हा…आह्ह्ह्हा….क्या कमाल का कलाम पेश किया है आपने
    बहुत बेहतरीन….हर इक शेर पर दाद

  2. "वो दर्द भरी चीख़ मैं भूला नहीं अब तक
    कहता था कोई बुत मुझे पत्थर से निकालो

    ये शख़्स हमें चैन से रहने नहीं देगा
    तन्हाइयां कहती हैं इसे घर से निकालो "

    ऐसे शेर कभी कभी ही उतरते हैं … और यक़ीनन ये सदियों तक लोगों कि ज़ुबान पे रहेंगे !

    ये वो शायरी है जो मुशायरे नहीं लूटती लेकिन किसी शिकस्तादिल शख्स की ग़मगुसारी और चारासाज़ी बख़ूबी करती है. ये वो सिफ़त है जो हर किसी के हिस्से में नहीं आती है. क्योंकि इसका एहतराम करने के लिए ख़ुलूस और हिस्सियत के जिन नाज़ुक दिल जज़्बात की ज़रूरत होती है वो अक्सर मुशायरों की तालियों से खौफ़ खाते हैं|

    भारत भूषण पंत कैसे शाइर हैं इसे समझने के लिए उनकी वो ग़ज़लें भी सुननी चाहिए जो उन्होने अज़ीम शाइरों की ज़मीन में कही हैं. जिगर मुरादाबादी, शकेब जलाली, सलीम अहमद की मक़बूल ज़मीनों में पंत साहब ने बेहतरीन ग़ज़लें कहीं हैं लेकिन उन्होने असल करिश्मा ग़ालिब की ज़मीन में किया है.
    "दो दिनों की ज़िन्दगानी कुफ्र क्या इस्लाम क्या
    एक दिन काबे में सजदा, बुत-परस्ती एक दिन"

  3. Exquisite!! Thanks indeed

  4. बहुत खूब। प्रभात भाई नियमित स्तरीय चीजें पढ़ने को मिलती हैं, आभार आपका।

  5. बेहतरीन!

  1. Pingback: blog link

  2. Pingback: dewajitugroup

  3. Pingback: chainsaw mill

  4. Pingback: DevOps solutions

  5. Pingback: browning a5 for sale

  6. Pingback: side effects of ozempic

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *