आजकल हिंदी वाले फेसबुक पर खूब डिबेट में लगे हुए हैं. अपने डॉक्टर व्यंग्यकार प्रवीण कुमार झा का यह व्यंग्य-लेख इसी पर है- मॉडरेटर
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प्रयाग में आज शास्त्रार्थ ‘रिविजिटेड‘ का आयोजन है। रियैलिटी शो टाइप। मंच सजा है। ‘राईट‘ की ओर ‘मार्कण्डेय‘ लिखा है, ‘लेफ्ट‘ की ओर लिखा है ‘पिनाकी‘।
मार्कण्डेय और पिनाकी कईयों को परास्त कर पहुँचे हैं, और आज फाइनल मुकाबला है। मार्कण्डेय की खासियत है शास्त्रार्थ से पूर्व ही विजयमाल पहन लेते हैं। सामने वाले को अपने विजयी मुस्कान से ही परास्त कर देते हैं। देखने में भी मोटे-ताजे खाते-पीते परिवार से हैं, और साथ में चेले-चपाटी भी बनारसी पंडों की तरह पान घुलटते मुस्कियाते।
पिनाकी ठीक विपरीत लौंगिया मिर्च। पतले से फनफनाते हुए। उनकी फौज भी चश्माधारी दढ़ियलों की है। साक्ष्य और तर्क जेब में लिये घूमते हैं। कई सूरमाओं को तीखी आँखों से ही परास्त कर देते हैं। मंच पर अपने सिंहासन-नुमा कुर्सी पर पिनाकी विराजे तो नीचे फर्श पर बैठे लोगों को लगा जैसे कूद कर कोई बिल्ली जा बैठी हो।
मार्कण्डेय हाथ हिलाते अपने दल के साथ आये। पिनाकी ने नैपथ्य में पूछा, “कौन?”
“वही जिसने तुम्हें सोमनाथ में परास्त किया था।”
“अच्छा मार्कण्डेय! वो समय और था, लोग तुम्हारे थे। तर्क से नहीं, हुड़दंगी से जीते तुम।”
“लोग तो आज भी हमारे हैं। आज भी तर्क पर जुमले भारी हैं गुरू। भई, किधर रखी है विजयमाला? मैं पहले धारण कर लूँ।”
और मार्कण्डेय जा बैठे सिंहासन पर माला पहन। बैठ क्या गये, आधे लेटे मुद्रा में टिक गए। प्रतीत हुआ साक्षात् विष्णु पान चबा रहे हैं।
आयोजकों ने चिट उठाने को कहा। चिट से शास्त्रार्थ का मुद्दा चुना जाना था। बिना किसी टॉस के मार्कण्डेय ने लपक कर उठा लिया। पिनाकी निर्विकार बैठे रहे।
“भाई ये गलत है। चिट कॉमरेडों ने बनायी है। साला पिनाकी! पहले आकर मैच-फिक्सिंग कर रहा था?”
“निकला क्या है, ये तो बताओ?”
“वही घिसा-पिटा। ‘जातिवाद‘। पक्का सेटिंग है। ये तुम्हारा फेवरिट टॉपिक है।”
“तो चिट बदल लो।” पिनाकी ने चवन्नियाँ मुस्कान देकर कहा।
“मार्कण्डेय ने आज तक न कभी चिट नहीं बदला, न आज बदलेगा। लाओ कहाँ है हस्ताक्षर करना?”
मार्कण्डेय और पिनाकी दोनों ने हस्ताक्षर करे।
“साले! तुमलोग हस्ताक्षर भी बायें हाथ से करते हो?” मार्कण्डेय ने चुटकी ली, तो दर्शक-दीर्घा में ठहाके। दर्शक क्या थे? आधे तो मार्कण्डेय के मवाली, और आधे बिन पेंदी के लोटे।
खैर, शास्त्रार्थ प्रारंभ हुआ।
“देखिये, जातिवाद तो संवैधानिक रूपेण समाप्त है और सभी एक समान हैं। ये टॉपिक ही निराधार है।” मार्कण्डेय ने सिंहासन से उठकर कहा और धम्म से बैठ गए।
“मार्कण्डेय जी को संविधान का कोई ज्ञान नहीं। फलाँ आर्टिकल, फलाँ पृष्ठ…” पिनाकी ने तर्कों की झड़ी लगा दी।
मार्कण्डेय को गहरी नींद आ गई, खर्राटे मारने लगे तो पिनाकी चुप हुए।
“अरे गुरू! उठो! अब आपकी बारी है।” चेलों ने मार्कण्डेय को जगाया।
“कौन जात हो पिनाकी तुम?” मार्कण्डेय नींद से उठ ऐसे हड़बड़ा कर बोले, जैसे नींद में एन.डी.टी.वी. देख रहे थे।
“ये कोई मायने नहीं रखता। आप तर्क करें।”
“जात मायने नहीं रखता न? हो गई बात खत्म। लाओ जी कोई कप-ट्रॉफी वगैरा भी है कि बस माला ही पहना के भेजोगे?”
दर्शकों की तालियाँ गूँजने लगी। किलकारियाँ होने लगी। मार्कण्डेय की सेना टपोरियों की तरह नाचने लगी।
“देखिए! ये कुतर्क है। मार्कण्डेय हुड़दंगी है। जातिवाद एक अभिशाप है। गुजरात….।” पिनाकी फनफनाते रहे। उनकी सेना आजादी के नारे लगाने लगी, पर मार्कण्डेय का जुमला तुरूप का पत्ता था। हिट हो गया था।
मार्कण्डेय जीभ निकाल कर फूहड़ हँसी हँस कर पिनाकी को चिढ़ाने लगे।
पिनाकी ने क्रोध में हुंकार भर ली। कुछ मंतर पढ़ने लगे।
घोर गर्जन। आसमान का रंग खालिस लाल हो गया। बादल फट पड़ा। और पिनाकी के हाथ कलयुग का ब्रह्मास्त्र आ गया – “ब्लॉकास्त्र”।
और पिनाकी ने मार्कण्डेय को ब्लॉक कर दिया।
विकट स्तिथि है। आजकल ये फेसबुक-डिबेट देख-देख कर स्वप्न भी फेसबुकिया हो गए हैं।
bhut khub
बढ़िया!
jabardast !!!
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 07 सितम्बर 2016 को लिंक की गई है…. http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा….धन्यवाद!
हा हा हा