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यह फ़िल्म देखते हुए बरबस ही कामसूत्र याद हो आई!

‘पार्च्ड’ फिल्म को लेकर स्त्रीवाद के सन्दर्भ में काफी बहस हुई थी. यह लेख उसी फिल्म के बहाने लिखा है लेखिका दिव्या विजय ने- मॉडरेटर 
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यह फ़िल्म देखते हुए बरबस ही कामसूत्र याद हो आई। नग्न अथवा कामक्रिया के दृश्यों के कारण नहीं वरन् देह की देह के प्रति सहजता की वजह से। जिस प्रकार प्राचीन भारत  में ‘काम’ को चार पुरुषार्थों में से एक मान सहजता से लिया जाता था, इसके प्रति कोई टैबू तब के समाज में नहीं था उसी प्रकार इस फ़िल्म में ‘काम’ दैनन्दिन जीवन का आवश्यक अंग है।सखियों को टहोकते हुए उनकी सखियाँ हों, पुत्र से हँसी करती हुई माँ हो अथवा प्रेमी से छेड़ छाड़ करती प्रेमिका हो ‘काम’ सबके जीवन के केंद्र में स्थित है। 
पुरुषों की बनिस्पत स्त्रियां यूँ भी अपनी देह के प्रति अधिक सरल और उदार होती हैं। दूसरी स्त्रियों के सामने अनावृत्त हो जाना उनके लिए कठिन नहीं होता। बच्चा जनने के लिये दाई अथवा डॉक्टर के आगे, श्रृंगार प्रसाधन के लिए प्रसाधनिका के सम्मुख स्वयं को खोल देने में उन्हें ज़रा भी झिझक नहीं होती है।  स्त्रियों के परस्पर सौहार्द को वर्णित करता यह चलचित्र उनके रहस्यलोक का अनावरण मीठे स्वरूप में करता है।यहाँ लज्जा से भीगी नहीं बल्कि अपनी देह का संज्ञान लिए  स्त्रियां हैं। उनके लिए देह की चर्चा और देह के ज़रिये उत्त्पन्न होने वाला स्वाद इतना सामान्य और इतना आवश्यक है कि यह काम को मूलभूत तत्व के रूप में स्थापित करता प्रतीत होता है।वे निःसंकोच एक दूसरे का स्पर्श करती हैं और किसी एक क्षण उस स्पर्श से आनंदित  भी होती हैं, इन सबके मध्य ग्लानि का कोई स्थान नहीं है। स्त्रियों के नग्न दृश्य कोमलता का वितान रचते हैं। उनकी नैसर्गिकता, सौम्यता, मादकता प्रकृति को वशीभूत करती है। 
यह कहानी उनकी पीड़ा को धुरी बना उनके उल्लास से रचा गया ताना बाना है। पीड़ा के रेशों से बुने गए ‘कुकून’ को भेद कर स्त्रियाँ अभ्र का व्यास नापती हैं। तमाम विसंगतियों के बावजूद स्त्रियाँ लाचार अथवा अविरत रूप से दुःख में नहीं हैं। जीवन क्रॉस-स्ट्रक्चर सा है…जहाँ भिन्न भिन्न बिंदुओं पर विभिन्न शेड्ज़ मिलते हैं। 
पार्च्ड का एक अर्थ प्यास भी है। शुष्क सूखी धरती ही सबसे अधिक प्यासी होती है। चार स्त्रियाँ और उनके जीवन में प्रेम की गहरी प्यास। उनके रूखे सूखे जीवन को यही प्यास संचालित करती प्रतीत होती है। यह प्यास उनके जीवन की कमी होते हुए भी उनके जीवन का नखलिस्तान है। उनके बंजर जीवन की हरीतिमा। 
३२ वर्ष की विधवा रानी जिसकी देह पंद्रह वर्षों से अनछुई है। पुत्र की प्रथम रात्रि पर उसके कमरे से आते शब्दों को दूर झटकने के लिए अँधियारे में भाग खड़ी होती है। परंतु आवश्यकताओं को झटकना सरल नहीं है। फ़ोन पर एक अनजान व्यक्ति के शब्द प्रायः उसके कपोल रक्ताभ कर देते हैं।  उद्दंड पुत्र, ऋण आदि की समस्याओं से जूझ रही रानी प्रेम के प्रति उदार है। आरम्भ में रानी अपने भोगे हुए यथार्थ को अवहेलना और तिरस्कार के माध्यम से पुत्रवधू जानकी पर दुहराती है। परंतु तत्पश्चात् उनका सम्बंध जिस तरह विकसित होता है वह एक चरम से दूसरी पराकाष्ठा तक की यात्रा है। जानकी में अपने बीते हुए जीवन का चलचित्र देख रही रानी अंत में उसे नारकीय जीवन से स्वतंत्रता दिलाती है।
एक नन्हें शिशु को अपने भीतर साँस लेते देखने की चाह, लज्जो की अंतहीन प्यास है। एक अनजान पुरुष का कविता सा स्पर्श लज्जो के गर्भ में साकार हो उठता है।
बाँझ का तमग़ा लिए फिरने वाली लज्जो जब पराए पुरुष के वीर्य से गर्भ धारण करती है तो क़यास लगाती है कि अब उसका पति संभवतया उस से प्रसन्न हो उस पर हाथ उठाना बंद कर देगा। परंतु यह ख़बर सुनते ही वह और हिंसक हो उठता है। वह जानता था…जानता था कि बाँझ उसकी स्त्री नहीं परंतु फिर भी..!  अपने पति के व्यवहार से क्षुब्ध होते हुए भी लज्जो के लिए उसकी स्वीकृति आवश्यक हो उठती है। स्त्रियों की कंडिशनिंग ही इस प्रकार की गयी है कि तय मानकों से बाहर आने में उन्हें बहुत हौसला जुटाना पड़ता है।
बिजली उन दोनों की अनंत सखी, उनकी प्रेरणास्रोत, उनका प्रकाश बिंदु, बाहर के संसार से जोड़ता सूत्र, गणिका होते हुए भी अपने स्त्रीत्व के प्रति सबसे अधिक सजग। एक दृश्य को देख मन में  प्रश्न उठ सकता है कि इतनी मज़बूत स्त्री क्यों बलात्कार सहन कर रही है। परंतु  उस दृश्य में वह मात्र बलत्कृत होती स्त्री नहीं है। वहाँ अपने स्थान को बरक़रार रखने की ज़िद में डूबी स्त्री है। वहाँ अपने हो सकने वाले प्रेमी को अपनी देह का दलाल होते देख देह के द्वारा लिया जाने वाला प्रतिकार है। यह उस व्यक्ति को उत्तर है कि देह पर मात्र उसका अधिकार है। उसने मन पर अधिकार चाहा था। देह का सौदा करने में तो वो स्वयं भी सक्षम है। 
कुछ संकेत सचमुच बेहद गहरे हैं। जैसे कि बालों का लम्बा छोटा होना व्यक्तिगत चुनाव होना चाहिए। किसी ने तय नहीं किया स्त्रियों के बाल लम्बे ही होने चाहिए परंतु हम यह मान कर चलते हैं। जानकी के बालों की लम्बाई पर निसार होतीं और उसके बालों को छूकर उसे पसंद करती स्त्रियाँ यूँ  लगती हैं जैसे पशु हाट में पशुओं को मोल लेने वाले चमड़ी की चमक से पशु की गुणवत्ता तय करते हैं। ख़ैर, इसी मानक को वे सब अंतिम दृश्य में स्वयं ध्वस्त करती हैं। 
बग़ैर कहे-बताए कैसे दूसरों की पीड़ा से जुड़ा जाता है इसका उदाहरण वो एक दृश्य है जहाँ अपनी सखी से मरहम लगवाने आयी लज्जो, रानी को न पा कोने में सिमट जाती है। जानकी उस वक़्त उम्र की सीमाओं को लाँघ अपनी सास की सखी के ज़ख़्मों पर मरहम रखती है। जैसे प्रेम की भाषा एक होती है वैसे ही पीड़ा भी एक ही भाषा से संचालित होती है जहाँ आत्मा एकाकार हो उठती हैं। कैसा भावुक दृश्य बन पड़ा है। जिस से बोलचाल न हो…जिसे अपने दर्द कभी न कहें हों…वह चुपचाप आकर आपके ज़ख़्मों को सहला दे तो आँखें भर आना लाज़िमी है। 
एक दृश्य है जिसमें स्त्रियों की यौनिक क्रिया के आधार पर बनायी गयी गालियों के प्रतिकार में वे पुरुषों को उसी प्रकार के अपशब्द कहती हैं। यह दृश्य सतह पर नारी शक्ति का प्रतीक प्रतीत हो सकता है। परंतु जो अनुचित पुरुषों ने किया उसका प्रतिशोध क्या उसी स्तर पर गिरकर लिया जा सकता है। जिस ‘जेंडर-बेस्ड’ हिंसा को स्त्रियाँ झेलती आ रही हैं उसका रुख़ पुरुषों की ओर कर देने से समाज में बदलाव तो नहीं आएगा। अपशब्दों का उपयोग कहने वाले को शक्तिशाली होने का अहसास कराता है तथा जिसके विरुद्ध इनका उपयोग किया जाता है वह मानसिक रूप से कमज़ोर पड़ जाता है। ‘पावर’ इधर से उधर शिफ़्ट कर देने पर पीड़ित कोई और पक्ष हो जाएगा। मानसिक हिंसा की ज़मीन पर दो पक्षों की बराबरी की नींव नहीं रखी जा सकती। 
सिनमैटोग्राफ़ी निस्सन्देह बेहद ख़ूबसूरत  है। गाँव का चित्रण भी सुंदर है परंतु फिर भी श्याम बेनेगल याद आते हैं। उन से मौलिक और असल दिखने वाले गाँव से यह गाँव होड़ नहीं ले पाता। इसी संदर्भ में केतन मेहता की मिर्च मसाला भी याद आती है जहाँ समूचे गाँव का विरोध सहकर भी सोनबाई घुटने नहीं टेकती। अंत में जब पुरुष सहमकर पीछे हट जाते हैं तब स्त्रियाँ ही हैं जो सूबेदार की दुर्दशा करती हैं। अपने पति का दहन देखती  लज्जो सहसा सूबेदार की आँखों में मिर्च झोंकती स्त्रियाँ याद दिलाती हैं। यहाँ अनायास है, वहाँ सायास था। अगर यहाँ भी प्रयत्नपूर्वक कोई क़दम उठाया जाता तो बात कुछ और होती। 
अंत में वे तीनों अपना गाँव छोड़ अनजान राह पर निकल पड़ती हैं।  परंतु प्रश्न यह है कि जिस परिवेश से वे नयी अर्जित स्वतंत्रता का अनुष्ठान करने निकल पड़ी हैं क्या वहाँ और बड़ी चुनौतियाँ नहीं होंगी? उस बाहरी संसार में इन्हीं चुनौतियों का विकराल रूप इन्हें शोषित नहीं करेगा? परंतु उचित-अनुचित का अंतर मालूम होने पर तथा अपनी शक्ति का बोध हो जाने पर हर चुनौती का सामना करना सम्भव हो जाता है। स्त्री- विमर्श से परे यह फ़िल्म उन स्त्रियों का वृत्तांत है, प्रेम का वृत्तांत है….उनके निजी क्षणों का लेखा जोखा है. अपने परिवेश से बाहर निकलने की उत्कंठा है…स्वतंत्रता के प्रति ललक है।वह मात्र परंपराओं से पीड़ित नारी नहीं है…वह गर्वोन्नत स्त्री है जो अपने जीवन की दिशा आप तय करने में सक्षम है। बॉलीवुड में मित्रता पर आधारित फ़िल्मों में हमने अधिकतर ‘ब्रोमैन्स’देखा है, यह ‘वुमैन्स’ (वुमन+ रोमैन्स= womance) है….साहचर्य से जनित उनके ठहाके, उनका उल्लास, उनकी व्यक्तिगत बातें, उनकी कठिनाइयाँ। यह उनके जीवन के रंगहीन और रंगीन टुकड़ों का कोलॉज़ है। अंत में उनकी प्रसन्नता देख भीतर कुछ उमड़ता है जो हमारे होंठों पर मुस्कुराहट बन कर ठहर जाता है। 
 
      

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15 comments

  1. फिल्म का सटीक विश्लेष्ण किया है आपने…बधाई

  2. Bahut sundar likha hai. film dekhane ko utprerit karti hui samixa.

  3. हाँ, इस फ़िल्म का कैनवस व्यापक है जिस पर और भी बहुत कुछ कहा जा सकता है। शुक्रिया इतनी ख़ूबसूरती से असहमति जताने के लिए। hugs to you.
    क्या आप फ़िलहाल fb पर नहीं हैं?

  4. कुछ और की उम्मीद कर रही थी मैं पढ़ते हुए…दिव्या जी, आपके द्वारा 'पिंक' पर लिखे गए से 'पार्च्ड' को लेकर ज्यादा उम्मीद बनी थी. मुझे यह फिल्म और भी आगे की दिखती है. ये नज़रिए की ज़मीन को तोड़ती है…और बहुत कुछ है इस फिल्म में. देह की ज़रूरत को बहुत स्वाभाविकता से जहाँ एक और दिखाया गया है वहीँ स्त्री को देह से पार न देख पाने वाले और देह के प्रति पाशविकता की हद तक क्रूर समाज की परतें भी खोलती है फिल्म. बहरहाल, लिखती रहिये…

  5. फिल्म देखने की इच्छा हुई.

  6. Vimarshatmak samiksha.badhai!

  7. वाह, फिल्म की परतें खोलती और इसके माध्यम से मानव मन के मनोविज्ञान को रेखांकित करती बढ़िया समीक्षा है.

  8. speechless…

  9. बेहद ख़ूबसूरत समीक्षा मैम

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