हिंदी में किशोरों के जीवन, उनकी शिक्षा, उससे जुड़े तनावों को लेकर कम कहानी लिखी गई है. प्रबुद्ध जैन की यह कहानी उसी तरह की है- मॉडरेटर
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बात साल 2007 की है। अंशुल फ़िफ़्थ में रहा होगा। मां–बाप यानी किशोर और नम्रता बेटे का हाथ थामे ‘तारे ज़मीं पर‘ देखने के बाद थियेटर से बाहर निकले तो पास के कॉफ़ी हाउस में चर्चा सिर्फ़ एक चीज़ पर हुई। अंशुल को वो सब करने दिया जाएगा जो वो ज़िंदगी में चाहे। जब पति और पत्नी बेटे की ज़िंदगी का ख़ाका खींच रहे थे तो मोटे तौर पर उनके दिमाग़ में उसका करियर ही घूम रहा था।
ये कुछ उसी तरह के भावावेश में किया गया फ़ैसला था जैसे किशोर ने ‘बाग़बान‘ देखने के बाद बाबूजी को ओल्ड एज होम से वापस लाने का फ़ैसला लगभग कर ही लिया था लेकिन अगली सुबह दफ़्तर जाने के बाद विचार दिमाग़ से निकल गया।
हिंदी सिनेमा विचार बहुत तेज़ी से पैदा करता है। फिर, उससे दोगुनी तेज़ी से उन विचारों का ख़ात्मा कर डालता है।
तारे ज़मीं पर‘ देखते हुए पर्दे पर ‘मैं कभी बतलाता नहीं, अंधेरे से डरता हूं मैं मां‘ आते ही नम्रता की आंखों से आंसुओं की झड़ी लग गई। किशोर और नम्रता ने बीच में बैठे अंशुल को आग़ोश में लेकर उस अंधेरे में ढेर सारी ममता उड़ेल दी। उस दिन से ये गाना अंशुल का फ़ेवरेट बन गया। ईशान अवस्थी की हालत देखकर और रामशंकर निकुंभ की प्रेरणादायी डायलॉगबाज़ी के बाद उनकी मन:स्थिति बदल चुकी थी। ज़ाहिर है जब फ़िल्म का इतना असर हुआ तो हर साल मैग्नीफ़ाइंग ग्लास से अंशुल के रिपोर्ट कार्ड का मुआयना करने वाले मां–बाप ने उसे उसके दिल की आवाज़ सुनने देने का फ़ैसला कर लिया। ये अभूतपूर्व फ़ैसला था। लेकिन चूंकि ये उसी अंधेरे से उपजा, भावावेश में किया गया फ़ैसला था तो इसकी उम्र भी दस–पंद्रह दिन ही रह पाई।
इन दस–पंद्रह दिन में अंशुल ने कोई साढ़े तीन कविताएं लिखीं– तीन पूरी और एक अधूरी, पास ही बनने वाली बिल्डिंग के लिए जमा रेत में से कुछ सीपियां चुनकर पुराने पेंसिल बॉक्स के हवाले की, पिछले दो महीने से कट्टी चल रहे दोस्त रुचिर से पुच्ची की और पीले चार्ट पेपर को काटपीट कर अपने मन के कुछ डिज़ाइन बनाए। यानी कुल मिलाकर जमके टाइम बर्बाद किया। क्योंकि जब किशोर और नम्रता को ये एहसास हुआ कि ईशान अवस्थी वास्तव में भला चंगा है और छोटे पर्दे पर मज़े से डांस कर रहा है तो उनके पास हिंदी सिनेमा को कोसने के अलावा कोई चारा नहीं था। ईशान अवस्थी के चक्कर में अंशुल निरा निकट्ठू होता जा रहा था, ये यकीन उन्हें हो चला था और फिर अंशुल को अपना रास्ता ख़ुद तय करने देने की पॉलिसी बीच में ही लैप्स हो गई।
किशोर और नम्रता दोनों कामकाजी थे। जवान, ठीकठाक कमाने वाले और वीकेंड पर फ़िल्में देखने वाले। एक बच्चा करेंगे, ये डेटिंग के दौरान ही तय हो चुका था। हां, उसे क्या बनाएंगे इस पर बहस गाहे–बगाहे होती रहती थी। किशोर इंजीनियरिंग के पक्ष में था तो नम्रता एमबीए के। अंशुल जब सवा नौ साल का था तो एक दिन अचानक उसके भविष्य की उज्जवल राह खुल गई। नम्रता के किसी रिश्तेदार ने इंजीनियरिंग के बाद एमबीए करके 42 लाख का पैकेज हासिल किया था। तो ये तय ठहरा कि अंशुल इंजीनियर–एमबीए कहलाएगा। इस नतीजे का एक फ़ायदा ये भी हुआ कि किशोर और नम्रता के बीच अंशुल के करियर को होने वाली बहसों पर विराम लग गया। क्योंकि इस नए चुने गए करियर में दोनों की बात का मान रह गया।
सब योजना के मुताबिक़ ही चल रहा था। अंशुल का वैदिक मैथ्स समेत चार विषयों का ट्यूशन लगवा दिया गया था। शाम को ताइक्वांडो, होमवर्क, रिवीज़न और बिस्तर। ज़िंदगी इसी के इर्द–गिर्द
बढ़ते बच्चे की घुटन को मार्मिक ढंग से व्यक्त किया गया है ,परन्तु परिणाम मौत भाह्यावह्य है.बच्चो के मन मुताबिक माता पिता की सोंच का न बदल पाने का कारण यह नहीं है की वे अपने लाल को प्यार और चाहते नहीं है और उसके मन मुताबिक उसका विकाश नहीं करना चाहते .असल कारण है की हिंदुस्तान में अन्य विकिषित देशो की तरह मनमुताबिक उन्नति के अवसर नहीं है ,और उनका बच्चा बेरोजगार रह जायेगा.