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शाज़ी ज़माँ का ‘अकबर’

अकबर भारतीय इतिहास के सबसे बड़े नायकों में एक हैं. उनके ऊपर पहला उपन्यास आ रहा है- ‘अकबर‘. लिखा है शाज़ी ज़माँ ने. प्रकाशक है राजकमल प्रकाशन. आज जानकी पुल के पाठकों के लिए उसका एक अंश- मॉडरेटर

यह उपन्यास  लेखक ने कल्पना के बूते पर नहीं, बाज़ार से दरबार तक के  ऐतिहासिक प्रमाण के आधार पर रचा है। बादशाह अकबर और उनके समकालीन के दिल , दिमाग़ और दीन को समझने के लिए और उस दौर के दुनियावी और वैचारिक संघर्ष की तह तक जाने के लिए शाज़ी ज़माँ ने कोलकाता के इंडियन म्यूज़ियम से लेकर लंदन के विक्टोरिया ऐल्बर्ट तक बेशुमार संग्रहालयों में मौजूद अकबर की या अकबर द्वारा बनवायी गयी तस्वीरों पर ग़ौर किया, बादशाह और उनके क़रीबी लोगों की इमारतों का मुआयना किया और अकबरनामा’ से लेकर ‘मुन्तख़बुत्तवारीख़’ , ‘बाबरनामा’, ‘हुमायूंनामा‘ और तज़्किरातुल वाक़यात जैसी किताबों का और जैन और वैष्णव संतों और ईसाई पादरियों की लेखनी का अध्ययन किया। इस तरह बनी और बुनी दास्तान में एक विशाल सलतनत और विराट व्यक्तित्व के मालिक की जद्दोजहद दर्ज है । ये वो शख़्सियत थी जिसमें  हर धर्म को अक़्ल की कसौटी पर आँकने के साथ साथ धर्म से लोहा लेने की भी हिम्मत थी । इसीलिए तो इस शक्तिशाली बादशाह की मौत पर आगरा के दरबार में मौजूद  एक ईसाई पादरी ने कहा : “ना किसी को पता किस दीन में जिए, ना किसी को पता किस दीन में मरे” । 
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अभी महाराणा प्रताप सिंह को लगभग साल भर पहले ही बहुत अजीबो ग़रीब हालात में मेवाड़ का सिंहासन मिला था। रिवायत थी कि मेवाड़ का सिंहासन कभी ख़ाली नहीं रहता था। इसलिए मातम राजपुरोहित के घर पर होता था और उस वक़्त महल को सजाया जाता था। राजा के अंतिम संस्कार में सबसे बड़ा बेटा शामिल नहीं होता था। शव यात्रा के निकलते ही उसे राजगद्दी पर बिठा दिया जाता। महाराणा प्रताप सिंह के पिता उदय सिंह ने अट्ठारह शादियां की जिससे उनको चौबीस बेटे और बीस बेटियां हुईं। जब उदय सिंह के अंतिम संस्कार में उनका बेटा जगमल नहीं दिखा तो भेद खुला कि राणा ने अपने बड़े बेटे प्रताप की जगह उस बेटे को राजगद्दी दे दी जो वारिसों की फ़हरिस्त में नौंवी जगह पर थे।
राणा प्रताप सिंह का साथ देने वालों ने कहा, ‘‘सबसे बड़े, सब से हक़दार और सब से बहादुर प्रताप सिंह को किस कुसूर से ख़ारिज समझा जाए? बादशाह अकबर जैसा दुश्मन सर पर लगा हुआ है, चित्तौड़ टूट रहा है, मेवाड़ उजड़ रहा है। अब ये घर का बखेड़ा भी खड़ा हो गया तो बर्बादी में क्या शक है?’’
जब प्रताप सिंह के समर्थक अंतिम संस्कार के बाद महाराणा के महल पहुंचे तो देखा कि जगमल राजगद्दी पर बैठे हैं। उन्होंने हाथ पकड़ कर जगमल को राजगद्दी से उतारा और उस जगह पर बिठा दिया जहां महाराणा के भाई बैठते हैं। राजगद्दी खाली हो गई और प्रताप सिंह को वहां बिठा दिया गया।
सुना है जड्डा नाम के चारण ने अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ानां की तारीफ़ में चार दोहे लिख कर भेजे। जड्डा ने अचंभित होकर ख़ानेख़ानां से पूछा कि किस तरह से मेरु पर्वत के समान मन को कोमल देह में रचा गया है। जड्डा की कविता में ख़ानेख़ानां आश्चर्य से कहते हैं कि जल जैसे कोमल मन वाला मनुष्य जलता है और तिनके जैसे रूखे मन वाला मनुष्य जलता नहीं; वो कहते हैं कि ईश्वर को ना मेरु पर्वत जैसे दृढ़ मन की ज़रूरत है, ना मणि की और ना मनके की; वो तो संपूर्ण समर्पण चाहता है और ब्रह्माण्ड को प्रेम की आग में जलाता है; धन्य है उसका आदमी बनाने का तरीक़ा।
‘‘ख़ानख़ाना नवाब हो, मोहिं अचंभो अेह।
मायो किमि गिरि मेरुमन, साढ़ तिहस्सी देह।।
ख़ानख़ाना नवाब रे, खांड़े आग खिवंत।
जलवाला नर प्राजलै, तृणवाला जीवंत।।
ख़ानख़ाना नवाबरी, आदमगीेरी धन्न।
मह ठकुराअी मेरु-गिरि मनी न राअी मन्न।।
ख़ानख़ाना नवाबरा, अड़िया भूज ब्रह्मंड।
पूंठे तो है चंडिपुर धार तले नवखंड।।’’
ख़ानख़ाना ने ख़ुश हो कर हर दोहे पर एक लाख रुपये देना चाहा लेकिन जड्डा ने गुज़ारिश की कि जहाज़पुर का परगना जगमल को दे दिया जाए। कहते हैं कि ख़ानख़ाना ने अपने रसूख़ का इस्तेमाल करके जड्डा की ख़्वाहिश पूरी की और ये दोहा लिख कर भेजा –
‘‘धर जड्डी अंबर जड़ा, जड्डा महडूं जोय।
जड्डा नाम अलाहदा, और न जड्डा कोय।।’’

शाज़ी ज़माँ

चाहे जगमल को जहाज़पुर का परगना मिल गया हो  लेकिन मेवाड़ में तो महाराणा प्रताप सिंह का दौर शुरु हो गया। जिस वक़्त महाराणा प्रताप सिंह राज गद्दी पर बैठे, चित्तौड़ की हार यादों में बहुत ताज़ा थी।
लगभग चार बरस पहले बारहवें इलाही सन् के आखि़र में, बमुताबिक़ 23 फ़रवरी 1568 ईसवी, मंगल के दिन, चित्तौड़ के मज़बूत क़िले ने बादशाह सलामत की फ़ौज के सामने घुटने टेक दिए। इस से एक रात पहले ही क़िले की दीवार को जगह जगह से भेदा जा चुका था लेकिन चित्तौड़ की फ़ौज अभी तक शाही फ़ौज को रोक पा रही थी। रात के अंधेरे में गोलाबारी की लपक में जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर ने हज़ार मेख़ी  पहने एक शख़्स को उस मोर्चे पर देखा जहां दीवार भेद दी गई थी। बादशाह सलामत ने अपनी पसंदीदा बंदूक़ संग्राम को उठाया। उन्हें बंदूक़ों का बहुत शौक़ था। न सिर्फ़ वो बेहतरीन निशानेबाज़ थे बल्कि उनके ईजाद किए गए तरीक़े से इतनी मज़बूत बंदूकें़ बनीं कि पूरी भरी होने पर भी उनके फटने का अंदेशा नहीं रहा। अब बंदूक़ों को चलाने के लिए आग देने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। सिर्फ़ बंदूक़ के घोड़े की हल्की सी हरकत ही काफ़ी थी। बादशाह सलामत हज़ारों बंदूक़ों में से एक हज़ार पांच बंदूक़ों को अपने ख़ास इस्तेमाल के लिए चुनते थे। इन ख़ासा  बंदूक़ों में भी संग्राम सबसे ख़ास थी। ये उनकी पहली ख़ासा बंदूक़ थी। इसे वो जंग के साथ साथ शिकार पर भी ले जाते थे। चूकि बादशाह सलामत के हुक्म से हर बंदूक़ से हुए शिकार का हिसाब रखा जाता था, इसलिए ये पाया गया कि अकेले संग्राम से एक हज़ार उन्नीस जानवर शिकार हुए।
अब जब बादशाह सलामत ने संग्राम से गोली चला दी तो राजा भगवंत दास से कहा, ‘‘जब निशाना सही लगता है तो अच्छा शिकारी जान लेता है।’’
अभी घंटा भर भी नहीं हुआ कि चित्तौड़ की फ़ौज ग़ायब हो गई और क़िले में कई जगहों से आग की लपटें उठने की ख़बर आई। अभी दरबारी क़यास लगा ही रहे थे कि राजा भगवंत दास ने कहा, ‘‘ये जौहर है। जब हार तय होती है और मर्द मारे जाते हैं तो औरतें संदल, सूखी लकड़ी और तेल की चिता में समा जाती हैं।’’
सुबह होते होते पता चल गया कि बादशाह सलामत की संग्राम ने चित्तौड़ के क़िलेदार जयमल को निशाना बनाया लिया था। चार महीने के घेराव के बाद अब जाकर चित्तौड़ का क़िला बादशाह सलामत के क़दमों में आ गया। वो हाथी पर सवार हो कर क़िले में दाखि़ल हुए। शाही फ़ौज के लगभग तीन सौ हाथी भी क़िले में घुसे। बादशाह सलामत की नज़र के सामने हाथी ने चित्तौड़ के जांबाज़ पत्ता को कुचल दिया। इस हाल में भी एक राजपूत ने शाही लश्कर के मधुकर हाथी की सूंड पर हमला किया और कहा, ‘‘बादशाह सलामत को मेरा सलाम कहना।’’
भोर से लेकर दोपहर तक क़त्ले आम हुआ। लगभग तीस हज़ार लोग मारे गए। ऐसे मौक़ों के लिए अख़्लाक़े नासिरी में जो कहा गया था वो बादशाह सलामत को ख़ूब याद था।
‘‘फ़तह के बाद भी तदबीरें नहीं छोड़नी चाहिए, ना ही सूझबूझ में कोई कमी आनी चाहिए। लेकिन जहां तक हो सके, जो ज़िंदा पकड़ा जा सके, उसे मारना नहीं चाहिए क्योंकि कै़द में लेने के कई फ़ायदे हैं। जैसे बंधक बनाना, फ़िरौती वसूल करना, किसी पर एहसान कर देना। मारने के कोई फ़ायदे नहीं हैं। फ़तह के बाद किसी को मारना नहीं चाहिए। ना ही कोई दुश्मनी या भेदभाव रखना चाहिए क्योंकि फ़तह के बाद दुश्मन की हालत गुलाम या रिआया की है। बताया जाता है कि जब सिकंदर ने एक शहर पर क़ब्ज़ा कर के बेहिसाब क़त्ले आम किया तो अरस्तू ने डांट कर ख़त लिखा, ‘फ़तह से पहले दुश्मन को मारने की बात समझ में आती है। फ़तह के बाद अपनी रिआया को मारने की क्या तुक है।बादशाहों की माफ़ी औरों की माफ़ी से बड़ी है। ऐसे वक़्त पर माफ़ करना क़ाबिले तारीफ़ होता है जब माफ़ नहीं भी किया जा सकता था।’’
बादशाह सलामत के दौर की तारीख़ लिखने वाले शेख़ अबुल फ़ज़ल ने कहा, ‘‘पिछली बार 703 हिजरी के मुहर्रम  की तीन तारीख़ को जब सुलतान अलाउद्दीन ने इस क़िले पर छह महीने और सात दिन के बाद क़ब्ज़ा किया तो किसानों को मौत के घाट नहीं उतारा गया क्योंकि उन्होंने जंग में हिस्सा नहीं लिया था लेकिन इस बार इस क़त्ले आम की वजह है कि किसानों ने बहुत जोश से हिस्सा लिया।’’
चित्तौड़ की लड़ाई बादशाह सलामत ने ख़ुद लड़ी थी। इस थका देने वाली मुहिम के दौरान बादशाह सलामत ने बहुत नुक़्सान उठाया था। बारहवें इलाही सन् बमुताबिक़, 1567 की 20 अक्तूबर को, चित्तौड़ के क़िले के पास शाही ख़ेमा लगा था। जिस पहाड़ी पर चित्तौड़ का क़िला था, उसके दो कोस के घेरे का जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर ने अगले ही रोज़ चक्कर लगाया। महीने भर के अंदर पूरी घेराबंदी कर दी गई। जब सीधे चढ़ाई के कोशिश में शाही फ़ौज के लोग मारे जाने लगे तो बादशाह सलामत ने इस की मनाही कर दी और कहा, ‘‘ये बहादुरी नहीं है। उतावलापन है।’’
इसके बाद हुक्म हुआ कि तीन जगहों पर बारूद बिछाने की ऐसी तरकीब निकालें कि क़िले की दीवार में सेंध लगाई जा सके, और दो जगहों पर पहाड़ में से ऐसा रास्ता बने जो सीधे क़िले तक जाए। पांच हज़ार कारीगर सबात बनाने में जुट गए, जो ऐसा घिरा हुआ रास्ता था कि इससे फ़ौज क़िले के पास पहुंच कर दीवार में सेंध लगा सकती थी। क़िले के अंदर से हमले होते रहे और रास्ता बनाने की कोशिश में हर रोज़ दो सौ लोगों की जान जाती रही। मज़दूरों पर सोना चांदी लुटाया गया और सबात तेज़ी से बनता गया। बादशाह सलामत के हुक्म से बारूद भी आगे बढ़ता गया।
क़िले के अंदर के राजपूतों में इन हालात को देखकर खलबली मच रही थी। ख़ुद महाराणा इस वक़्त क़िले में मौजूद नहीं थे। बादशाह सलामत के आने की ख़बर सुनने के बाद उन्होंने जयमल को क़िले की ज़िम्मेदारी दी और अपने ख़ानदान और पांच हज़ार राजपूतों के साथ पहाड़ी इलाक़ों में छुप गए। इस पूरी जंग के दौरान वो आसपास नहीं आए।
अब सुलह के लिए चित्तौड़ के क़िले के अंदर से दो राजपूत सरदारों को बादशाह सलामत के पास भेजा गया।
चालीस गज़ ऊंचे आकाशदीए से चित्तौड़ के इलाक़े में दूर दूर तक लोगों को शाही मौजूदगी का एहसास हो रहा था। लोग इसकी लौ को देखते और कहते, ‘‘अकबर चा दीवा ।’’
चित्तौड़ के क़िले से आए रावत साहिब ख़ान चौहान और डोडिया ठाकुर सांडा ने बादशाह सलामत से कहा, ‘‘महाराणा तो पहाड़ों में चले गए। जो क़िले में बचे हैं उनका कोई कुसूर नहीं है। क़िले का घेरा उठा लें क्योंकि पहले से बादशाहों का यही दस्तूर है कि पेशकश पाने पर मेहरबानी करते हैं।’’
जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर ने राजपूत सरदारों की बात को सुना और कहा, ‘‘राणा के आए बग़ैर लड़ाई नहीं रुकेगी। इसके सिवाय जो चाहे मांगो।’’
डोडिया ठाकुर सांडा ने कहा, ‘‘अब हम को और क्या ज़रूरत है जो मांगे। जो आप हुक्म देते हैं तो केवल इतना चाहता हूं कि अगर लड़ाई में मारा जाऊं तो मेरी लाश हिंदू रीति से जलवा दी जाए।’’
बादशाह सलामत ने इस बात को मंजूर किया और एक बड़े हमले की तैयारी कर ली। लेकिन ये हमला उनके लिए अफ़सोस की बहुत बड़ी वजह बन गया।
पुस्तक का नाम : अकबर (उपन्यास)
लेखक : शाज़ी ज़माँ
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
कीमत : 350 रुपए [ पेपरबैक संस्करण ] 
       799 रुपए [ सजिल्द संस्करण ]
amazon.in पर प्री बुकिंग 5 नवम्बर तक

 
      

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7 comments

  1. मेवाढ की जानकारी की प्रमाणिकता पा संदेह हें -यशवंत कोठारी

  2. अच्छी जानकारी ..

  3. दस्तावेज़ है ये उपन्यास !

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