इला जोशी की कविताएँ पढ़ते हुए यूँ महसूस होता है, जैसे किसी परिंदे को इस शर्त पर रिहाई मिले कि उसके पंख काट दिए जाएँगे। इन कविताओं में एक अजीब क़िस्म की बेचैनी दफ़्न है, जिसे किसी पवित्र स्पर्श की प्रतीक्षा भी है और उस स्पर्श से छिल जाने का डर भी। एक तरह की ऊब, जिसका सिरा उस बाज़ार में खुलता हो जहाँ प्रेम के नाम पर प्रेमिकाओं का गोश्त बिकता है। एक भटकती हुई इच्छा, जो समंदर की रेत पर धूप सेंकते हुए मर जाना चाहती है। एक सपना, जो नींद में घुलते ही आँखें बंजर कर देता है। एक आस, जिसे अब भी ज़िद है कि क्रांति और प्रेम एक ही एहसास के दो नाम हैं। ये कविताएँ, ज़िंदगी की पीठ पर वक़्त की उंगलियों से उकेरे गए फूल हैं, जिसके साथ अनुभव के कुछ काँटें भी उग आए हैं – त्रिपुरारि
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1.
कई दफ़े
तुमने, उसकी पीठ पर
उँगलियों से फूल उकेरे थे
वो फूल
जिनके रंग
और ख़ुशबुओं में थे
क्रांति के परचम
तुम्हारी कल्पनाएँ
और (शायद) तुम्हारा प्रेम
मगर,
उन फूलों में उगे काँटों ने
परचम को तार तार कर दिया
बातें कल्पनाओं तक ही सीमित हैं
और तुम्हारा प्रेम?
हाँ, वो अब भी
उसकी जाँघों से चिपका है
2.
प्रगतिशील होने की जुगत में
वो दौड़ते रहे
प्रगति के पीछे,
मगर उनका शील
अटका रहा
पायजामे के नाड़े में
जिसका एक सिरा
अभी तक
उनके घर, गली और मोहल्ले की
कम प्रगतिशील औरतों की चप्पल तले अटका है
3.
पटरी पर सरकती रेल
रुकती है हर स्टेशन पर
उन स्टेशनों पर भी,
जहाँ उसका इंतज़ार
कोई नहीं करता
रेल, रोज़ मिलती है
कुछ नए
कुछ पुराने
और कुछ उन चेहरों से
जिनकी तारीख़ का हिसाब
ख़ुद उसे भी याद नहीं
कुछ चेहरे
उसे देख मुस्कुराते हैं
कुछ रहते हैं बिना किसी भाव के
कुछ दुत्कारते हैं
उसकी बेचारगी पर
रेल को देखती हूँ
और सोचती हूँ-
इसकी और मेरी कहानी में
कोई ख़ास फ़र्क़ तो नहीं!
4.
रात की काली सिलवटों
और पौ फटने के बीच
हमारी चर्चाओं के दौर होते हैं
जिसमें शामिल है
दुनिया
देश
समाज
और हमारा प्रेम
चर्चा के
कई चरम भी होते हैं
मगर हमेशा ही
निढाल हो जाती है वो
प्रेम में
सुनो,
दुनिया, समाज और देश
इस वक़्त जल रहा है
और हमारा प्रेम
सिलवटों में कहीं निढाल पड़ा है
5.
प्रेम के घाव से
न रिसता है ख़ून
न भरता है घाव में मवाद
मगर ये कभी सूखता भी नहीं
इसके होने,
न होने के
अहसास में
बस यही तो फ़र्क़ है
6.
पहले वियोगी कवि ने
प्रेम का महाकाव्य रचा
और प्रेमिका की याद में
कई छंद गढ़े
वियोगी कवि की जेब में
अथाह संपत्ति थी
मग़र
प्रेम की दरिद्रता
उसकी स्वामिनी बन चुकी थी
इतिहास आज भी
याद करता है
उस वियोगी कवि
और उसके महाकाव्य को
और खीजता है
उसकी दारिद्रता पर
इतिहास को याद नहीं
उस ‘प्रेमिका’ का नाम
न कहीं दर्ज हैं उसकी रचनाएं
जिनमें था प्रेम का उल्लास
और जो थी उसकी
एकमात्र संपत्ति!
7.
दुनिया जल रही थी
धर्म, जात और बदले की आग में
मैं मसरूफ़ रही
इश्क़ की आग जलाने में
गढ़ती रही प्रेम कविताएँ
ख़ूबसूरत तस्वीरें
और शायद एक
कभी न हो सकने वाली
ज़िन्दगी के ख़्वाब
मेरे ख़्वाब बेहद अश्लील थे
उसमें सिर्फ़ मैं थी
और थी मेरी खुशहाल ज़िन्दगी
जबकि असल में
देश अभी भी जल रहा है
धर्म, जात और बदले की आग में
और मैं नाच रही हूँ
मेरे ख़्वाब के नीरो की
बांसुरी की धुन पे
8.
जब निराशा
कुतरने लगती है
वर्तमान का भविष्य,
तब कोशिशों की गोंद
से भी जुड़ता है
एक विकृत चित्र
9.
वो लिखती रही
मिटाती रही
लिखना चाहती
प्रेम
लिख जाती
आज़ादी
लिखना चाहती तुम्हारा नाम
लिख जाती संघर्ष
वो जूझती रही
दिल और दिमाग के बीच
काश समझ पाती
प्रेम, आज़ादी, तुम और संघर्ष
एक ही तो हैं
10.
सिगरेट उसकी उँगलियों के बीच थी
और आते जाते लोगों की नज़र
उसके सीने पे
मानो उस उभार से उपजे स्पीड ब्रेकर
उन्हें रोक रहे थे
उसे नज़र भर देखने के लिए
मगर सिगरेट तो अभी भी
उसकी उँगलियों के बीच ही थी
11.
तुम्हारे उठकर जाने
और बिस्तर पर पड़ी
सिलवटों के बीच
वो ढूंढती रही प्रेम
प्रेम,
जो उसकी जाँघों से चिपका रहा
तुम्हारे जा चुकने के बाद भी
तुम्हारी और उसकी
प्रेम की परिभाषा में
यही अंतर था
उसका प्रेम तुम थे
तुम्हारा प्रेम वो, जो चिपका था
उसकी जाँघों से
12.
मेरे अंदर किसी कोने में
बरसों से पड़ा है
मेरी इच्छाओं का कूड़ा,
ये इच्छाएं कूड़ा ही तो हैं
जो मेरे शरीर से रिसते
पसीने की दुर्गन्ध सी
सड़ांध मारती हैं….
मैं टटोलती हूँ अपने शरीर को
बदहवास सी खोजती हूँ वो कोना
जहां रख कर भूल गई थी
उन इच्छाओं को,
मेरे बूढ़े होते शरीर संग
बूढ़ी होती गईं ये,
और अब महसूस होती हैं
एक बूढ़ी औरत की
लटकती चमड़ी सी….
इच्छाओं के ये मृत भ्रूण
यूँ चिपके हैं मेरी चमड़ी से
कि जितना भी नोच लूँ
या उड़ेल लूँ इत्र की शीशियां
ये दुर्गन्ध और खुरदुरापन
और कसके जकड़ लेते हैं
मेरा शरीर….
वो सपनों की मछलियाँ
जो सड़ गईं
मेरी सोच की ठहरी नदी में,
हिसाब हैं उन अनकही बातों की
जो ताले लगे
दरवाज़ों के पीछे
आज भी इंतज़ार में हैं
अपने कहे जाने के….
13.
वो बार बार
खरोंचती थी
अपनी चमड़ी,
निकाल फेंकने को
ग्लानि के भाव
जीवन की हताशा
और कई असफल प्रेम
उसने कई कई बार
परिभाषित किया था
अपनी आज़ादी को
जो अब भी बसी थी
उसकी चमड़ी के नीचे
वो नहीं जान सकी
कि आज़ादी और
उसकी चमड़ी में
कोई सम्बन्ध नहीं था,
वो बस कुरेद रही थी
कुछ सूखे हुए ज़ख़्म
और दे रही थी ख़ुद को दिलासा
उस ग्लानि, हताशा
और उन असफल प्रेम के लिए
जो उसकी चमड़ी में नहीं
उसके कमज़ोर विचारों में थे
सही कहा—
वो आज़ाद नहीं, बहुत डरपोक है
वैसी ही, जैसा आप चाहते थे
14.
शोर के बीच
ख़ुद को ढूँढने की कोशिश
और कुछ नहीं
भरे पेट में
दो कौर और खाने की
अश्लीलता है!
Apke Blog ke bare mei bahut suna tha aur bahut sari blog mei apke bare mei likha hai.ajj first time apke blog view kor roha hu sashmei app bahut
hi achhi likhte hai. thank u
mygyanblog
अच्छी कविताएँ जिनमें सदियों की उदासी और रंज घुले मिले हैं। कवि का शुक्रिया
शानदार कवितायेँ
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