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मृणाल पांडे की अपूर्ण वृहतकथा का पूर्ण अंश

मृणाल पांडे का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है. वह एक बड़ी कुशल गद्यकार भी हैं. हाल में ही संगीत की एक किताब लिखने के बाद मृणाल जी अपने गल्प-अवतार में अवतरित हुई हैं. बरसों पहले ‘पटरंगपुर पुराण’ जैसा उपन्यास लिखने वाली मृणाल जी इस बार अपने ‘देस’ की कथा लिख रही हैं. किस्सागोई की उसी पुरानी शैली में अपने समय का किस्सा. मानो वृहतकथा हो अपने समय की. आज वसंतपंचमी के दिन उनकी गल्प कथा का एक रोचक अंश पढ़िए- मॉडरेटर

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अथ पुरातन-कथा प्रबंध, नया संस्करण:

(सच कहें तो एक बढिया गल्प और गप, इतिहास और मिथक के रचने में कोई खास भेद नहीं।  भेद अगर है भी, तो सिर्फ समझ की सिकुडन और फैलाव का। आलोचकों में यह ज़िद, कि एक सुघड़ कहानी में लकीर की फकीरी करनेवाले क्रम से आदि- मध्य- अंत आना चाहिये, बहुत बाद में अंग्रेज़ी के कथा उपन्यासों से उपजी है। ईमान से देखें तो हर कहानी एक तरह की मस्त यायावरी है। और उसकी रसमय गति किसी रेखागणित के सीधे सतर नियमों पर कदमताल नहीं करती ज़िंदगी की परिक्रमा करती है। जभी हर श्रोता/पाठक के लिये कथा से गुज़रना एक रोचक, कई मोड़ों और मुड़ मुड़ कर पीछे देखनेवाली चक्राकार भटकन साबित होती है। उसमें किसी नये मोड़ पर अचानक कोई पुराना प्रसंग पीछे से आकर झलक दिखला सकता है, और अक्सर किसी सियामी जुडवाँ की तरह  घटनाक्रम की शुरुआत से कथा का अंत भी जुडा रहता है।

हर कथा अपनी आत्मा में कथोपकथन से जुडी है, और अपने गुणसूत्रों के लिहाज़ से वाचिक परंपरा की ही थाती है। लेखन की बारी तो बाद में आई। एशिया में जब तीर्थों और रेशमी राजमार्ग की मार्फत लगातार यायावरी की जाती थी तब तमाम तरह की धर्मशालायें, मंदिर- मस्जिद के प्रांगण और सरायें-चायखाने इसके प्रामाणिक साझा अड्डे थे। उनमें किस्सागो लोग देर रात गये मानवमन की एक साझा कल्पना की रुई से तार खींचते हुए चर्खे के पहिये की तरह जीवजगत की न जाने किस किस तरह की अचरजभरी कथायें कातते हुए भागमभाग से थके श्रोताओं की मन-पतंग कल्पनालोक में उडाने लगते। उनके रसविभोर श्रोता कभी दीवार तो कहीं तकिये की टेक लगाये हुक्के के कश खेंचते उस रस की धार में बस बहते हुए हुंकारा देते रहते। अपनी दादी नानियों से हम एशियाई लोगों को बचपन में ही ऐसे किस्से कहानी सुन कर सोने की लत जो पड़ जाती है।

फिर वे यायावर दस्ते जहाँ जाते, कथायें उनके संग एक मसालेदार गठरी बनी घूमने लगतीं। हर किस्सागोई में सुनी कथा को दोबारा सुनानेवाले बीच बीच में कुछ नये क्षेपक प्रसंग जोड देंगे यह भी तय था। सो हमारी जातक या पंचतंत्र की कथायें हों कि पच्छिमी एशिया से आईं तिलिस्म ए होशरुबा, किस्सा चहार दरवेश या अलिफलैला की कहानियाँ, उनका अपना ही मायालोक बना जिससे सारे जीव जगत की साथ साथ जी गई मिलीजुली ज़िंदगी एक बहुरंगी कथरी हम आज के कथा कहनेवालों ने पाई। तो फिर.. के साथ वही छूटा कथा छोर हम सबने फिर फिर पकड़ा और चर्खा चालू हुआ।  चर्खा निबटा तो खड्डी पर ताना बना चढाया और शुरू की बेलबूटेदार बुनकरी।

तो भाइयो-बहनो, कथासाहित्य का ध्रुव सत्य तो यह है कि पीढी दर पीढी अनगिनत घरों में दादी नानी के गुदगुदे बिछौनों से लेकर सरायों, चायखानों तक में बुनी गई कहानियों के भीतर छुपी कहानियों और उनके बीच बीच में समय समय पर फितरती श्रोताओं द्वारा डाले गये क्षेपकों के इस बैंक से लोन लिये बिना हम कथालेखक काम नहीं चला सकते। शर्त बस यही कि आगे इस पूंजी में हम अपना किस्सा तोता मैना के तोते की तरह कुछ अपना भी नया जोड़ कर नई कथा को नई तरह रस से भीगा सकें। शायद भागवत कथाकार ने इसे ही कहा है -शुकमुखद्रवसंयुतम्- यानी तोते की चोंच के रस से सिक्त हुआ। बात ज़्यादा गंभीर हो गई क्या?

चलिये इलाके के नये असामियों के लिये तनिक संजीदा बन कर वैज्ञानिक भाषा में कहें, बेटा ये जो कहानियाँ हैं, ऐन ज़िंदगी की ही तरह ये हज़ारों सालों से फितरती कथावाचकों द्वारा (यूक्लिड और आइंस्टाइन से भी बहुत पहले की) अनेक कालातीत और कालसापेक्ष थ्योरियों को मिला कर घोंटी गई एक विशाल खिचड़ी हैं, जिसे  अनगिनत फुर्सती बीरबल धीमी आँच पर राँधते आये हैं।  हर परोसन में (यदि फितरती परवर्ती कथाकार चाहें और मनोयोग से टटोलें )उनको भी एक बड़े उपन्यास या महाकाव्य के बीज मिल सकते हैं।  

स्थानाभाव से जिसे कहते हैं, थोडा लिखा बहुत जानना। अस्तु।)-लेखिका

नगर प्रबंध:

नये प्रधानमंत्री को सुनने तिरंगा लिये सियेटल से न्यूयार्क भागे गये उसके जो डाक्टर माता पिता पतंग उड़ाने गुजरात में कुछ दिन गुज़ारने आये थे, उनसे दूर रहने का इच्छुक पुत्र सिद्धार्थ उर्फ सिड पिट्ठू उठाये अपने आधे फ़्रांसिसी आधे सेनेगाली दोस्त गेब सहित माता पिता के पुरखों की नगरी देखने उत्तराखंड चला आया।

आकर पाया कि नगरी में उनके वंश का कोई नहीं रह गया था। पुश्तैनी घर खंखड हो चुका था, न बिजली न पानी। तब दोनो मित्र कसार पर्वत शिखर पर एक गांव में जा ठहरे, जहाँ इज़रायली और योरोपीय युवाजनों का एक बडा सा छत्ता जाने कब बन गया था। बताया गया कि मलाणा का सुरदुर्लभ चरस उस बसासत में प्रचुरता से उपलब्ध था।

शाम को जलते अलाव के गिर्द जब कुछ गिटारादि वाद्य बजाये जाने लगे और चरस मसली जा रही थी, बताया गया कि चरस का दम खींचने से पहले यहाँ ‘हा दैव!’ कह कर हाथ से सर ठोकने की परंपरा है। किंवदंती है कि ऐसा न करो तो कश खींचते ही एक ज़ालिम बरम पिशाच पीपल से उतर कर सवाल पूछने को तुमसे चिपक जायेगा।

मसाला भर कर चुरुट रोल कर रहे सिड ने कहा ठीक है करके। गेब ने कहा कुछ अटपटा सा जो सुननेवालों की समझ में तो नहीं आया, पर वे इतना जरूर जान गये कि गेब कश खींचने से पहले, हा दैव ! नहीं कहनेवाला। किसी अनहोनी वार्ता बिना। उनके कहने से सिड ने कश लेने को उद्यत मित्र से बडे प्रेम से कहा कि अरे गेब! अभी सियेटल से फोन आया है कि इधर तुम इंडिया को निकले, उधर तुम्हारी माता का देहावसान हो गया! यह सुन कर गेब ने हा दैव! कह कर अधजला अनपिया चुरुट फेंक दिया।

चुरुट जहाँ गिरा, वहाँ धूल से बरम पिशाच उत्पन्न हुआ। उसने गेब से कहा, तुम्हारे घर पर सब कुशल है। कोई नहीं मरा। तब फिर झूठ क्यों बोला गया? पूछने पर उसने कहा कि हे गेब! तेरा ये जो साथी है सिड, जो पत्नी की तरह तुमसे प्रेम करता साथ रहता है, उसका मैं पूर्वज हूँ। इसके बाप माँ ने मेरा श्राद्ध नहीं किया और समुद्र पार जा बसे। हर साल भूखा प्यासा मैं श्राद्धकाल में पश्चिमाभिमुख उनका इंतज़ार करता हूँ, फिर कुछ नहीं पाने पर यहाँ वालों को सताता हूँ। अब गलती से ही सही तुमने हा दैव! कहा है इसलिये तुमको चिपकूंगा नहीं, पर सब जानकर अब अगर मुझको तुम दोनो ने समवेत यथायोग्य कथा नैवेद्य नहीं चढाया तो मैं तुमको खाता हूँ।

(यहां मूल प्रति में कुछ पाठ छूट गया है।)

सिड के सेवाभाव और गेब के तंत्र वाद्य से संतुष्ट हुए ब्रह्मराक्षस ने कहा: हे युवाओ माँगो क्या माँगते हो। सिड तथा गेब ने जो बारी बारी कहा उसका सार था, कि दोनो माता पिता से भाग रहे हैं। और कथालेखक बनना चाहते हैं। उसीके लिये वे यहाँ इतनी दूर जड़ें खोजते हुए आये हैं।

ब्रह्मराक्षस हँस कर बोला बच्चो, मैं गवाह हूँ कि माता पिता से जगत में निस्तार हो भी जाये तो भी निगोड़ी आत्मा से उनका विरेचन असंभव है। जड़ों पर उनका कापीराइट है। उनसे परे रह कर खोज करने का एक ही तरीका है कि कथालेखक को एक ही चोले में रहनेवाला उभयलिंगी जीव बन सके। और मुझे दिख रहा है कि तुम पुरुष चोले के भीतर नारी हृदय रखते हो, और नारीवत् आचरण भी सीख गये हो। किंतु इतने मात्र से तुम नारी चरित्र को नहीं जान सकते। इस बात के प्रमाणस्वरूप अभी मैं तुमको जीवन की अपरिमित जटिलता की बानगी सिर्फ एक कथा से देता हूँ। लो, सुनो तुम्हारे अपने मातृकुल में कई पीढी पहले जल मरी महिला, हिमुली उर्फ हेमांगिनी देवी की कथा।

हेमा पहाड़न, एक ज्वलनशील कहानी : 

बाप और बाघ में कौन ज्यादे खतरनाक होता है?

पन्द्रै की होते होते हेमा उर्फ हिमुली इस अजीब से सवाल का जवाब कुछ कुछ जान गई थी, पर पूरी तरह नहीं। बात ही ऐसी ठहरी कि पक्की सहेली से भी खुल कर पूछना कठिन था।

बाघ के बारे में सब जानते थे कि जब वह कभी चोट लगने से या कि बुड्ढा हो जाने से जंगल के जानवर पकड़ने में अक्षम हो गया तो मनुष्यों पर हमला करने लगता है कर के। बचपन में ही दादी नानी लोग घसियारियों से खबर पाते ही बच्चों को चेता देनेवाली हुईं, कि कोई आदमखोर बना बाघ गाँव के आसपास चक्कर लगाने लग गया है। और हरामी कहाँ कहाँ घात लगा कर बैठ सकता है। सब को पता हुआ कि विधाता की तरफ से राहगीरों को चेताने को उन जगहों से बाघ की साफ बास आती है और रात के अंधेरे में कैसे उसकी अंगारे जैसी आँखें दूर से चमकती हैं कर के। यह भी कि गलती से साँप या बाघ का असिल नाम ले लो तो वो जरूर सामने आ पड़ेंगे। इसलिये तबके लोग सांप को दिन छिपने के बाद कीड़ा और बाघ को स्यूं कहते थे।

पर बाप बेटों के बारे में कोई किसी को कुछ नहीं बताता था, खासकर लड़कियों को। बाप बेटा तो एक ही शब्द जैसे ठहरे और उनके रिश्ते के बारे में हर घर में मर्दानखाने से रसोईघर तक में तमाम बातें होती रहती थीं। बेटा पिता का अंश हुआ, सो होंठ के ऊपर रेख जमने पर कभी बाप की ही तरह खाना पसंद न आने पर थाली पटक दे या कि टोकने पर सर उठा कर बाप से कुछ ऊंचा नीचा बोल भी दे तो ये कोई खास दुर्गुण नहीं गिने जानेवाले हुए। कोई ताऊ या कका कह हुक्का खींचते हुए सदा कह देनेवाले हुए, कि यार संस्कृत ग्रंथ कह गये हैं कि लड़के को बस सोलह बरस तक ही मार सकते हो, फिर दोस्त की तरह व्यवहार करना उचित हुआ। खासकर अगर मर्द बच्चे को बाप का जूता फिट आने लगा हो।

पर लड़कियों के लिए बाप के सामने पड़ने का सीधा मतलब हुआ डर अदब और चुप्पी। बाप तो घर का पहरुआ हुआ। माँ न भी हो तो भी सर पर उसकी छत्रछाया बनी रहने से ही जवान होती लड़कियों की इज्जत कायम रह सकनेवाली हुई। बिन बाप बिन भाई की लड़की जैसे बिन ग्वाले- गुसाईं की बाछी, बूढी औरतों का कहना था।

पर मर्दों के उलट औरतें भी बड़ी होती लड़कियों को अपना जाना वह सब नहीं बतातीं जिसे राम, राम, जीभ पर लाना अपनी ही हथेली का माँस खाने जैसा हुआ। जैसे कि शराबी बाप या भाई के घर रहते शाम गये घर भीतर अँधेरे में किसी लडकी के लिये अकेले में बैठ कर साग पात काटना भी शेरवाले रस्ते से घास लाने जितना खतरनाक हो सकता है।

यहीं से उपजी हिमुली की अनकही कहानी, जिसे कहना अपनी ही हथेली का माँस खाना, अपनी धोती उघाड़ कर घुटने का कोढ दिखाने जैसा।

मुक्ताभरण सप्तमी का दिन हुआ जब घर की लुगाइयां पूजा पाठ में लगी थीं और घर के सब बाप भाई लोग बाहर थे। सिवा हिमुली के बाप के। हाथ पकड़ कर रजाई वाली कोठरी में खींचते हुए ले जाकर फिर बेदर्दी से उसे गिरा कर बाप ने उससे, अपनी ही जाई औलाद के साथ उस दिन जो किया उसके बाद हिमुली अहिल्या जैसी बैठी रह गई थी जैसे चक्कू से किसी ने दिमाग निकाल लिया हो।

हिमुली के भाई नहीं हुआ। माँ गरीब मायके से आई थी और तीन लड़कियों को पैदा करने के बाद एकदम बेचारी बन कर सुरग सिधार चुकी थी। जितना हिमुली ने उसे जाना, उसे लगता था कि माँ के स्वभाव में खुल कर दु:ख या खुशी प्रकट करने की क्षमता ही न बची थी। वह मर गई तो उसी की तरह कोई जब घर में आता तो चाय पानी पूछे बिना चुपचाप मशीन की तरह उसकी टहल करना और उनके चले जाने के बाद भी उनकी बाबत किसी का कोई बात न करना हिमुली के खाते आ गया था। तब औरतें घर घर पीटी जाती थीं, कभी सही कारणों से कभी गलत। पर अगले दिन उस पर मर्दों के चले जाने के बाद औरतों की स्वेटर बुनती, मटर छीलती पंचायत बैठती तो कम उम्र बेटियाँ भी घुटनों से लगी कहानियों के तार निकलते देखती सीखती रहतीं।

बिन मां की हिमुली उन बैठकों में शामिल नहीं हो सकी। उसके बाप को अपनी बेटी का दूसरी लुगाइयों के बीच दिन दिन भर गप लागाना अच्छा नहीं लगता था। फिर घर का काम निकाल कर वह उसको वैसे ही दिन रात घेरे रखता था। घड़ी के कांटे से निबटाया जानेवाला काम और साथ में बाप का साफ सफाई का खब्त। क्यों ? सदा डरती हिमुली ने कभी जानने की कोशिश नहीं की हालाँकि इस बीच वह कई बार चाचा लोगों को अपनी घरवाली पर हाथ छोड़ते, उसे बैचल्ली, गँवार या बेशहूर कहते सुना। दिन रात मार खाती उन औरतों पर उसे तरस कम गुस्सा अधिक आता पर गलती उसे हमेशा औरत की ही लगती। मर्दों के आगे किसकी चलती है वह सोचती।

बहरहाल उसके साथ जो अघट घटा हिमुली उसकी बाबत किसको क्या बताये देर तक तय नहीं कर सकी। आखिरकार उसने भी चाचियों की ही तरह चुप रहने की ठान ली। रात रात भर वह अब जाने क्या क्या सोचती, बार बार हाथ धोती, पोंछती रहती। पर गंध नहीं जाती। कुचली पत्तियों जैसी गंध, शराब की खट्टी गंध। मर्दाना पसीने की, तंबाकू चबाने से सड़ते मसूडों की गंध। न घरवालों ने पूछा कि वह इतनी खामोश क्यों होती जा रही है, न उसने कुछ कहा। कहती भी तो किस भाषा में? हिमुली की दुनिया सर के बल खडी हो गई थी।

पिता बार बार आने लगे रात गये बिल्ले की तरह दबे पैर। कितना सोच कर रखती पर हर दफे उसे लगता उसे लकवा मार गया है। बिना शब्द बिना आँसू के वह बिलखती जाती कि उस जैसी गंदी लड़की होते होते ही क्यों न मरी? मर सकती तो जिंदगी नरक नहीं बनती।

बाद को औरतें उसे अजीब तरह से देखने लगीं। उनकी लडकियाँ भी। उसके आते ही बातचीत थम जाती, खाँसियाँ छिड़ने लगतीं। फिर जाने क्या हुआ कि इतना अहसान ही किया गया उस पर, कि उसे घर से दूर किसी तीर्थनगरी में भिजवाना तय कर दिया गया। भजन ध्यान करती हुई जहाँ उसके सींग समाये चली जाये। आखिरी बात कही नहीं गई, पर जितना उसे समझना था हिमुली भली तरह समझ गई।

और इस तरह एक दिन दही चीनी चाट कर माथे पर रोली का विदा तिलक लगाये हिमुली उर्फ हेमांगिनी देवी पहाड से उतरी और गंगा के मैदानी इलाके में दाखिल हुई। वहाँ स्वर्गाश्रम में संवासिनी बिल्ली जैसी कंजी आँखोंवाली मंजु दीदी मिली। उससे हिमुली ने जितना वह कर सकती थी, उतना अच्छा परिचय गाँठ लिया।

‘-पैसा वैसा तो कुछ फिर भी भेजते ही होंगे?’ मंजु दीदी ने कहानी का हिमुली संस्करण सुनने के बाद पूछा था। हिमुली ने स्वीकृति में सर हिलाया।

‘कितना?’

हिमुली ने भीतर ही भीतर कुछ गुना।

‘इतना कि जरूरी खर्चा निकल आये।’

‘कुछ न कुछ तो तूने भी तड़ीपार किया ही होगा, या छुट्टियों में बाप से ऐंठ लिया होगा नहीं?’

हिमुली ने कुछ नहीं कहा | मंजु दी उसे बता ही चुकी थीं कि किस तरह उनका सौतेले भाई भी मौका पाकर उसे बार बार घर की एक अँधेरी कोठरी में घसीट ले जाता था। तब वह तो तेरह की भी नहीं थी।

हिमुली से मंजु ने कहा तू खूब कमा और खा। चार पुरुषों से समागम करना हो तो वह भी कर। इसी में सत्व है।

कालांतर में हिमुली का चार पुरुषों से संसर्ग हुआ: एक पिता बन कर, एक पुत्र बन कर, एक भाई और एक पति बन कर उसके साथ रहे। फिर दसेक साल बाद हिमुली ने एक दिन चितारोहण किया। एक पुरुष उसके साथ जल मरा। एक देशांतर गया और उसे जिलाने को विशेष जल लाया। एक उसके अस्थिविसर्जन को गया। एक वहीं श्मशान में कुटी बना कर भस्म की रखवाली करता रहा। अब हिमुली जब भस्म से जलसिंचन द्वारा जिला ली गई तो चारों लड़ने लगे कि यह मेरी है।

यहां पर अचानक कथाक्रम रोक कर ब्रह्मपिशाच ने पूछा, हे सिड, तू यदि नारी चरित्र की समझ रखता है तो बता हिमुली इन चारों में से किसकी पत्नी कही जायेगी?

सिड ने गेब की तरफ देखा। दोनो ने ब्रह्मराक्षस से कहा। क्षमा करें गुरुदेव, हम नहीं जानते।

ब्रह्मराक्षस ने बताया: सांसारिक नियमानुसार जो चिता में आग दे वह हिमुली का अगिनसहोदर भाई हुआ। जो अस्थि ले गया वह पुत्र। जिसने उसे जल शोधन से जिलाया वह बाप हुआ जिसने भस्म की रखवाली की थी वह हुआ पति। फिर यहां पर कपाल पर हाथ ठोंक कर ब्रह्मराक्षस बोला, हा दैव! चार पुरुषों में से एक मैं भी था। फिर भी हिमुली हम चारों से कह गई: तात पिता बंधु भ्रात तुममें से मेरा कोई मेरा पिंडदान नहीं करेगा। न आज, न आगे। उसकी चिता को दाग देने के बाद भारी ग्लानिवश मैं भी उसी चिता में कूद गया और आत्महत्या के पातक से ब्रह्मराक्षस बना।

यह कह कर सिड का ब्रह्मपिशाच पुरखा फिर से धुआँ बन कर हवा में विलीन हो गया। और कथा सुन चुके गेब और सिड के मन से स्त्री चरित्र और पुरुष भाग्य का जानकार होने का सारा गर्व जाता रहा।

 

 

 
      

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6 comments

  1. प्रदीप शुक्ल

    ओह! हिमुली …. सांस रोक कर पढ़ डाली तेरी कहानी.

    मृणाल पाण्डेय जी को प्रणाम

    – प्रदीप शुक्ल

  2. Hey there! Do you know if they make any plugins
    to safeguard against hackers? I’m kinda paranoid about losing everything I’ve worked hard on. Any suggestions?

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