सदी के आर पार
कोई नदी है
जिसके आर पार खड़े होकर
हम खुद को देखते हैं
गुज़रते हुए
हम गुज़रते हैं या गुज़रता है वक्त
या फिर वह कुछ और ही है जो
गुज़र जाता है
भीतर तक इक रिसाव चलता है
टपटपाते हुए
नसे सुन्न होकर फड़फड़ाती भी हैं
फिर कभी फड़फड़ाहट टलती है
और हम होशोहवास में अपने लौट
आते हैं
फिर न वक्त न आखिरी मुहाना ही
कहीं किसी सिरे से जुड़ा मिलता है
हम खुद ही वक्त हैं
खुद ही मुहाना भी
खुद ही नदी भी
खुद ही किनारा भी
खुद ही कटते हैं
काटे भी जाते हैं
पर सदी गुज़री कटते कटाते
नदी के कई पाट टूटे हैं
और वक्त भी कई बार फिसला है
हाथों से
हमने भीतर की दरगाहों में बान्धे धागे कई
जो अब कई गांठो में उलझे हैं
पता नहीं वो धागे भी हम क्या खुद हैं?
हमारे भीतर नाखुदा हैं कई
अपने जिस्मो में लिपटी अपनी रूहे
अपना तिलस्म भी हम ही हैं
अपना कारवां हैं हमी
हम गुज़र जायेंगे
वक्त नहीं गुज़रेगा
वो खड़ा होगा फिर
किसी तिलस्म के साथ
फिर किसी बड़े मुहाने को काटेगा
फिर गुज़रेॻा किसी सदी से
गुज़रते हुए ।
– रिम्पी खिल्लन
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