यतीन्द्र मिश्र इन दिनों ‘लता सुरगाथा’ पुस्तक लिखने के बाद अपने लेखन का बसंत जी रहे हैं. लेकिन वे मूलतः कवि हैं. आज फागुन के इस मौसम में मुझे उनकी कविता ‘फाग बंधाओ’ की याद आई. आज के सन्दर्भ में बहुत माकूल कविता- कविता का प्रसंग यह है कि हज़रत निजामुद्दीन ने एक बार एक बच्चे की मृत्यु पर ख़ुशी के सारे मौके मनाने बंद कर दिए. अचानक कुछ लड़कियों को फाग गाते सुनकर औलिया इतने आनंदित हुए कि उन्होंने बसंत मनाने की अनुमति दे दी, जिसके बाद सारे पर्व मनाये जाने लगे. कहते हैं इसी दिन से औलिया-खुसरो की परम्परा में कनेरी फूलों वाले पीले रंग का प्रवेश हुआ और होली के उल्लास का पद गायन प्रारंभ हुआ.
फाग बंधाओ
जैसे कुछ सोचते हुए
और अमामे को सर पर सँभालते हुए
परेशान है खुसरो
कुछ हो गया है अजब
जिसको बयाँ नहीं कर सकती
अल्फाज़ की कोई भी ताकत
अपने औलिया के आसपास
खुसरो रहम का गोशा ढूंढते हैं
निजामुद्दीन औलिया की लम्बी सफ़ेद दाढ़ी भी
छुपा न पाई है चेहरे की पाकीजगी में
रहने वाले आंसुओं को
जो आँखों से ढुलक कर कब के सूख चुके
जब से देखा है इस हाल में खुसरो ने
अपने महबूब-ए-इलाही को
निहंग हैं उसके शब्द
कबूतरों की आवाजाही भी
चीर नहीं पाती ख़ामोशी का सर्द सीना
जलावतन हैं मुबारक के सारे मौके
कोई भूल से अपने लिए फ़रियाद तक नहीं करता
ऐसे में कुछ लड़कियां खेल रही हैं
बसंत के पीले रंग
और कुछ शब्द गाते हुए
गुजर जाती है औलिया के करीब से
इस तराह बहुत दिनों बाद
अचानक ही फूटती है कायनात में उमंग
खुसरो की निगाह में दमकता है
पीर-ओ-मुर्शिद का मुस्कुराता हुआ चेहरा
कनेरी रंग की ओढ़नी पहने
लड़कियां अब भी गा रही हैं…
‘रितु बसंत तुम अपने उमंग सों
पी ढूंढन मैं निकली घर सों’
निजामुद्दीन औलिया और खुसरो के यहाँ
फाग बंध रहा है
बसंत के रंग से निकलकर
होली का फाग
वह भी बिना एक शब्द
या सरगम उठाये
6 comments
Pingback: remington 870
Pingback: ufabtb
Pingback: โปรแกรมพรีเมียร์ลีก
Pingback: jorjno
Pingback: check out the post right here
Pingback: ดูหนังเต็มเรื่อง