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शर्मिला बोहरा जालान की कहानी ‘एक अलग उजास में’

शर्मिला बोहरा जालान नए दौर की लेखिका हैं लेकिन पुराने शिल्प में सिद्धहस्त हैं. उनकी यह कहानी कैंसर से मरती एक माँ की कहानी है जिसमें संवेदना का उजास है, राग से मुक्त होते विराग की कथा है. कहानी कुछ लाबी है लेकिन अपने साथ बांधे लिए चली जाती है. कीमोथेरेपी में छिपे जीवन की आस की तरह. पढियेगा- मॉडरेटर

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एक अलग उजास में

“पानी-पानी-पानी दो, पानी चाहिए। पानी है क्या यहाँ?” माँ नींद में बुदबुदायी। स्वाति माँ के बगल में ही सो रही थी, हड़बड़ा कर उठी, क्या? क्या हुआ? क्या चाहिए माँ? बत्ती जलाई देखा, माँ के ओंठ सूखे हुए थे। माँ पानी मांग रही थी। स्वाति ने सहारा देकर मां को उठाया और पानी का गिलास पकड़ाया पूछा – “और दूँ।” माँ बोली – बस, हो गया। स्वाति ने माँ को ध्यान से देखा, पूछा, “सब ठीक है ना। कुछ कहना है? माँ बोली, “नहीं।”

दोनों लेट गईं। स्वाति ने लेटे-लेटे घड़ी की तरफ देखा। रात के तीन बज रहे थे। उसने अपनी आँखें बंद कर ली यह सोचकर कि अभी दो घंटे और सो सकती है। माँ ने भी धीरे से अपनी आँखें बंद कर ली, स्वाति बत्ती बुझा चुकी थी और कमरे में अंधेरा हो गया था। पर आँखें बंद करने के बाद माँ जिस दुनिया में चली गई थी वहाँ अद्भुत आलोक था। सौ-सौ सूर्य एक साथ चमक रहे थे। सब कुछ साफ-साफ दिखाई दे रहा था। आर-पार। कहीं कोई जाला नहीं। ना ही मैल की कोई परत। माँ इस संसार से जो सवाल कर रही थी उन सवालों के उत्तर थे। नींद में माँ चुप थी। बिल्कुल चुप। शान्त प्रस्तर शिला जिसने तन और मन दोनों के कष्ट को सोख लिया था। पर जागने पर बेचैन शरीर, बेचैन मन और बेचैन आत्मा। सिर से लेकर पाँव तक दर्द से कराहता शरीर। अपने हाथ से फिसलता शरीर। कब? कैसे? कैसे कैंसर का घर बना यह शरीर? क्यों? मुझे ही क्यों यह रोग लगा? कौन बताएगा? कौन है मेरा भगवान? हे परमात्मा! कोई तो मुझे बताओ कि मुझे ऐसी बीमारी क्यों हो गई? किससे पूछूँ, बताओ?

माँ बच्ची बन गई। मासूम। सवाल करने लगी, बोली– मैंने कभी प्याज लहसुन नहीं खाया। शाकाहारी भोजन करती रही। वैसा ही अपने बच्चों को भी खिलाती रही। फिर यह रोग क्यों लगा? लोग तो यही कहते हैं न कि भोजन की गड़बड़ी से ऐसी बीमारी होती है, पर एक दम स्वच्छ ताजा शाकाहारी भोजन करने वाली मैं आखिर क्यों चपेट में आ गई? अब माँ बच्ची न रह बड़ी हो गई बोली– “मेरे तीनों बच्चे बड़े हुए एक बहू आई एक बेटी को ब्याह दिया एक बेटे को ब्याहना रह गया। थोड़ा आराम करने का पल आया। पर ऐसा आराम! ऐसा आराम तो नहीं चाहा था? जीवन ही शेष होता दिखलाई पड़ रहा है। लगता है पिछले जन्म की कोई भूल है? इस जीवन में तो मैंने कोई पाप नहीं किया। ये जो पचास वर्ष की मेरी उम्र है उसके बीस वर्ष पीहर में और तीस ससुराल में काटे। एक-एक साल, एक-एक महीने, एक -एक सप्ताह एक -एक दिन की कथा कह सकती हूँ। झूठ नहीं बोला, बड़ों को जवाब नहीं दिया। हाँ बच्चों को, अपने बच्चों को उनकी गलती पर डाँटा। वह कोई अपराध नहीं है, तन मन से विवाह के बाद संयुक्त परिवार के साथ धर्म को निभाते हुए संयम का जीवन गुजारा है। हाँ इतना तो मुझे कहने दो। मुझे अपने बारे में इतना तो कहने का हक है पर क्या हुआ? ऐसी बीमारी लग गई…। माँ चुप हो गई। माँ के चुप होते ही माँ के स्वप्न में एक दिव्य पुरुष का आगमन हुआ। कौन है? यह दिव्य सुगन्ध कहाँ से आ रही है? यह कैसा आकाश है जिसके नीचे मैं एकदम हल्की हो गई हूँ। यह पुरुष जो मेरे सामने खड़ा है क्या कह रहा है? कैसी अजीब बात पूछ रहा है?

पूछ रहा है तुमने प्याज लहसुन क्यों नहीं खाया? वह तो मिट्टी के अंदर अंकुरित होता है? इसलिए नहीं खाया कि मुझे उसमें दुर्गन्ध आती है? जी घबराता है, सिर चकराने लगता है।

तो क्या? जो खाते हैं वे बुरे हो गए? निम्न कोटि के। उन्हें बीमारी हो सकती है पर तुम्हें नहीं होनी चाहिए? वह पुरुष हँसने लगा। जानती नहीं, प्याज, लहसुन का प्रयोग औषधि के रूप में भी होता है। पागल, जरा प्याज लहसुन की दुनिया में उतर कर तो देखो- माँ को लगा वह किसी खेत में जा रही है। ऐसा खेत जहाँ चारों तरफ प्याज ही प्याज बिखरे हुए हैं। ऐसे कच्चे-कच्चे प्याज। हल्का गुलाबी रंग, मोहक वन। पर प्याज तो मिट्टी के अन्दर छुपा बैठा होता है। जिसकी जड़े ऊपर की तरफ निकली होती है। तो फिर यह कैसे खेत है? यहाँ तो यह लताओं में पेड़ों पर लटक रहा है। माँ को देखकर मुस्कुरा रहा है। ललचा रहा है, कह रहा है- मुझे छूकर देखो, मेरी कलियाँ खोलो। पर जो गंध आ रही है उससे तो माँ की साँसें ही उखड़ जाएँगी। उफ, यह क्या नजारा है? माँ उठकर बैठ गई। माँ के साथ-साथ स्वाति भी उठ गई।

माँ की कीमोथैरेपी हुई है। कई तरह के साइड इफैक्ट हो रहे हैं। पूरे-पूरे दिन बदन में खुजली का दौर शुरू डिग्री हो सकता है। उल्टियाँ हो सकती हैं। दस्त लग ही रहे हैं। स्वाति समझती है। माँ को पानी पिलाना होगा। बार-बार पानी। खूब पानी। पानी से साइड इफेक्ट में आराम मिल सकता है। उल्टी होगी? माँ बोली- प्याज और लहसुन के खेत में चली गई थी। क्या? प्याज! स्वाति चौंकी। इस समय माँ प्याज की बात कर रही है? माँ को तो प्याज के नाम से ही उलटी शुरू डिग्री हो जाती थी। जरूर सपना देखा है। उलटा-सीधा जिसका कोई मतलब नहीं। माँ बोली- जानती हो स्वाति मैं भी पागल हूँ कोई प्याज-व्याज से इस बीमारी का कुछ लेना-देना थोड़े ही है? ओह! जी घबरा रहा है। उलटी होगी… उ ऊं ऊबकि नहीं। सिर्फ पानी निकल रहा है मुँह से। लग रहा है कहीं अन्दर से, बहुत अन्दर से कुछ बाहर आना चाहता है। हाँ, हाँ, दस्त। बाथरूम जाना है।

माँ बीस मिनट तक उलटी दस्त में उलझी रही। फिर थक कर निढाल पड़ गर्इ। पड़ते ही फिर आँख लग गई।

नींद। गहरी नींद। नींद में सिन्दूरी सुनहरा होता संसार। माँ को अच्छा लगा। अच्छा लगा कि वह प्याज लहसुन के खेत से बाहर निकल गई है। माँ का मन हुआ वह बोले, बात करे। अन्दर जो कुछ है। सुख-दुख का खजाना, हीरे-कंकड़ का भण्डार। उसे बाहर निकाले। तन के कैंसर ने मन में दफन असंख्य किस्सों की याद दिला दी है। वह दिव्य पुरुष जो माँ के सामने बैठा है, वह अविचल  ज्योति माँ को उकसा रही है मन की गठरी खोलने के लिए। माँ कहना  चाहती है। बहुत कुछ पर माँ के कहने का ढंग एकदम बदल गया है। माँ गुस्से में अंगुली उठाकर नहीं कहती। माँ शान्त होकर कहती है, देखो, मैं कोई गोरी चिट्टी तो थी नहीं कि कोई मेरे रूप रंग की प्रशंसा करता और एक छोटी जगह बांग्लादेश की सीमा के पास के गाँव से कलकत्ता में ब्याही गई थी। और शहरी लड़कियों की तरह बात-व्यवहार आता नहीं था। सो सबको मैं कहाँ अच्छी लगती थी। पर जो भी हो किसी को मुझसे वैसे तो कोई हिंसा नहीं थी। हाँ धीरे-धीरे जब मेरे पति कमाने लगे और उनके भाई पिछड़ गए तब जरूर संसार बदल गया। ये तो होता ही है। लोग बदल जाते हैं जो मीठा बोलते थे थोड़ा तीतापन उनमें आने लगा। जो सीधा बोलते थे थोड़ा टेढ़ा-मेढ़ा बोलने लगे। पर मेरे मन में कहाँ ये सब बातें ठहरती? मैं तो अपने तीनों बच्चों में ही जमी और रमी रहती।

मेरी बेटी उसक रंग मेरे जैसा थोड़े ना है। वह एकदम साफ है। झकाझक। सोने सा चमकता वर्ण। गोद में लेने से लगता, सैकड़ों सूर्यमुखी एक साथ खिल उठे। दमकता रूप। मेरी आँखोंे के सामने बस सोना ही घूमती रहती। मेरी सोना। मैंने उसको इसलिए सोना नाम दिया। माफ कर दिया उस भगवान को जिसने मुझे साँवला बनाया। सोना के अलावा दो बेटे राहुल और देवेश। देवेश सबसे बड़ा उसकी पत्नी स्वाति। इन बच्चों के बीच मैं। मैं। मेरे आस-पास तीनों बच्चे। मेरा सौर मंडल। सब कुछ ठीक-ठाक अच्छा ही चल रहा था पर मुझे ग्रहण लग गया? कैसे? कोई बताए कैसे?

माँ नींद में कैसे-कैसे कह रही थी। स्वाति ने माँ को जगाया। माँ सुबह के आठ बज गए हैं। मंजन करना, शरीर पोंछना, नाश्ता करना बहुत काम है। माँ उठ कर बैठ गई। बोली-क्या आज बहुत देर हो गई। स्वाति क्या मैं कुछ बोल रही थी? स्वाति बोली- हाँ, माँ! “कैसे” “कैसे” पूछ रही थीं। क्या कोई दिखा था?

माँ बोली- पता नहीं कौन था? कई-कई रूप। कई-कई आकार नजर आते हैं? कौन है भगवान जाने? पर लगता है उससे कोई अंतरंगता है। वह अंतर्यामी है। कभी-कभी अजीब बात कहता है। और गायब हो जाता है। स्वाति माँ से कुछ और पूछना सुनना चाहती थी पर समय नहीं था। इतना काम होता है घर में सुबह से रात तक बात करती रही तो कुछ भी समय से नहीं होगा।

जबसे माँ के किमो लगने शु डिग्री हुए हैं कोई भी काम ठीक समय पर नहीं होता है। स्वाति का बहुत ज्यादा वक्त माँ के आस-पास, माँ के साथ गुजरता है। स्वाति सब कुछ सम्भाल रही है। रसोई, माँ, घर। पर अकेली नहीं, आरती भी है। अठारह उन्नीस वर्ष की एक परिचारिका। हाथ बँटाने।

स्वाति माँ से बीमारी के बारे में ज्यादा नहीं पूछती। कैंसर का नाम सुन रखा था। पर पहली बार इतने करीब से देखा। उसने माँ के हाथ में किताब देखी। जिस पर केकड़े का चित्र है। जिसे माँ हर समय पढ़ती रहती है। स्वाति का मन उस पुस्तक के कवर को देखकर कैसा-कैसा हो जाता है। उसने माँ से एक दिन पूछा था कि आप क्या पढ़ती रहती हैं? चश्मा लगाए पुस्तक में डूबे हुए माँ ने उत्तर दिया था। जानकारी। बीमारी की जानकारी। दवाओं की। उसके असर की, उसके साइड इफेक्ट्स की। स्वाति माँ को देखने लगी- तो क्या माँ को डर नहीं लगता? क्या वह पूरी किताब पढ़ जाएगी? कैसे? माँ किताब देखकर बोलने लगी इस पुस्तक में लिखा है कि बीमारी का पहला चरण कैसा होता है? दूसरा, तीसरा, चौथा… हे भगवान! स्वाति बोली–रहने दीजिए। आप एकदम ठीक हो जाएँगी। माँ बोली- यही तो मैं भी मानती हूँ। फेफड़े में कीड़े ने एक जगह काटा है। इस बार जो किमोथैरेपी हो रही है वह उस कीड़े को मार डालेगी। उखाड़ डालेगी। कीड़ा मर गया, समझो कष्ट गया। स्वाति माँ को अपनी बीमारी के बारे में बात करते देख हैरान है। पूछना चाह रही है कि माँ आपको डर नहीं लगता? पर चुप है। देख रही है माँ उस किताब को इस तरह पढ़ रही है मानों किसी दूसरे को उसके बारे में बताना है। अचानक किताब बंद कर स्वाति की तरफ देख, बोली- बहुत थक गई हो। इंसान काम करते-करते थक जाता है ना?  आजकल की लड़कियाँ थक जाती हैं तो तुरन्त समझ में आ जाता है। पर हमलोग पूरे-पूरे दिन काम करते-करते थक जाते थे ये किसी को भी घर में ना जाने क्यँू समझ में ही नहीं आता था। हमलोग अपनी थकान छुपाते रहते थे। कहीं तुम्हारी दादीमाँ को पता न चल जाए कि थक गए हैं। माँ अपनी सास के लिए हमेशा यही कहती तुम्हारी दादी माँ।

माँ ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा- उन्हें हर काम समय से निपटा हुआ देखने की आदत थी। घड़ी की सूई देखकर नाश्ता, दोपहर का भोजन, शाम की चाय, रात का भोजन और कई-कई चीजें। हम सब इतनी-इतनी बहुएँ मिल-जुलकर काम करते थे। काम बँटा हुआ था। बारी-बारी से काम। हाँ किसी के हिस्से कम काम तो किसी के ज्यादा। वह सब संयोग और होशियारी की बात थी। कदम-कदम पर दादी माँ की कड़ी हिदायतें। पूरा-पूरा दिन काम में निकल जाता। कमर तोड़ काम। कुछ भी सोचने-समझने का समय नहीं। कब सुबह होती और कब रात उसका हिसाब नहीं। बहुत कुछ सीखा। साथ ही बहुत कुछ सीखने का समय नहीं भी मिला और जो स्कूल कॉलेज के दिनों में सीखा था उसका कोई उपयोग नहीं हुआ। पर स्वाति ये बात तो एकदम पक्की है कि कभी भी कुछ भी सीखा व्यर्थ नहीं जाता। आजकल की लड़कियाँ घर पर रहना नहीं चाहती। घर सम्भालना नहीं चाहती। पर घर की व्यवस्था देखने को छोटी-मोटी बात मत समझना। बहुत समझ की जरूरत होती है तब जमीन तैयार होती है नए पौधों के लिए। अच्छा लगता है उस जमीन को बनाने में। आनन्द आता है। हाँ, हर चीज का मोल तोल करने वाले इस बात को समझ नहीं पाते। कितने साहस और कितने अनुशासन की जरूरत होती है। दादी माँ हमें कितने अनुशासन में रखतीं। हर काम घड़ी देखकर हर काम की घंटी हमारे कान में गूँजती रहती। हम हर पल चौकन्ने रहते। घंटी बजने वाली है और काम पूरानहीं हुआ। अभी घंटा बजेगा। अभी हड़बड़ी होगी। शोर मचेगा। घंटी…घंटा। ऐसा कहते हुए माँ की आँखें बंद होने लगी और माँ सो गई।

नींद में माँ दूसरी दुनिया में उतरने लगी। ऐसी जगह जहाँ सीढ़ियाँ थीं। सैकड़ों सीढ़ियाँ। माँ सीढ़ियों से नीचे उतरने लगी। सम्भल-सम्भल कर पाँव बढ़ाने लगी। पर यह क्या। अंतिम सीढ़ी पर सैकड़ों केकड़े और बिच्छू रेंग रहे थे। माँ सहम गई। पर माँ ने साहस नहीं छोड़ा। माँ के पास एक बड़ी घंटी जो थी जिससे वह कीड़ों को दबा-दबा कर मार सकती थी। माँ ने वैसा ही किया। वे मर रहे थे। माँ खुश थी बहुत उत्साही वह मरे कीड़ों को एक -एक कर गिन रही थी। एक दो तीन चार दस पन्द्रह पच्चीस। पर यह क्या अंतिम सौवें तक आते-आते माँ जैसे ही पीछे मुड़ी चौंक गई। जो मर गए थे। निस्पदं थे उनमें स्पन्दन होने लगा। वे धीरे-धीरे हिलने लगे और एक-एक कर जीवित हो गए। माँ पूरी तेजी के साथ दायें हाथ में घंटी को जोर से पकड़े उन्हें फिर से जल्दी-जल्दी मारने लगी। माँ मारती जाती वे जीवित होते जाते।

माँ का हाथ ढीला पड़ रहा था। दायां हाथ थकने लगा। पर नहीं बायें हाथ से नहीं। वह हाथ कमजोर हो चुका है। उसकी शक्ति क्षीण हो चुकी है। बायें वक्ष में जब असंख्य कीड़े घर कर गए थे डॉक्टर ने सबकी सलाह से माँ को समझाकर माँ के शरीर में से उस अंग को दूर करना ठीक समझा। माँ ने भी यही ठीक समझा। जो सड़ जाए उसे अपने से दूर करो। ऑपरेशन के बाद उस हाथ में उतनी शक्ति नहीं रही। माँ ने देखा वे कीड़े बायीं तरफ से रेंगते हुए दायीं तरफ आने की कोशिश में पूरी काया में फैल रहे हैं। तभी तो माँ पूरी ताकत से उस घंटी से उन्हें दबा-दबा कर मार रही है। नहीं माँ को थकना नहीं है। विश्राम नहीं करना। मारना सिर्फ मारना। मारते-मारते माँ उस कृष्ण की तरह हो गई जो द्रौपदी का चीर लगातार बढ़ा रहे हैं। दुर्योधन खींच रहा है। कृष्ण बढ़ा रहे हैं। माँ मार रही है। केकड़े और कीड़े जीवित हो रहे हैं। माँ मारते-मारते थक कर निढाल हो गई। बड़बड़ाने लगी। माँ की नींद टूट गई।

सामने स्वाति थी। स्वाति ने पूछा माँ इतनी देर से मैं आपको जगा रही हूँ। ना जाने आपको क्या हो गया। क्या-क्या बोल रही थीं। केकड़े को मारो बिच्छु को मारो। माँ बोली हाँ मैं सैकड़ों कीड़ों से घिरी हुई हूँ। उन्हें मार रही हूँ वे मर तो जाते हैं फिर जिन्दा हो जाते हैं। ऐसा क्यूँ हो रहा है। मर कर जिन्दा। जैसा रामलीला में नाटक में देखा था रावण का सिर धड़ से अलग होता और क्षण भर में ही नया सिर हँसता हुआ वहाँ फिर कहीं से आकर लग जाता। हाँ रावण के प्राण उसकी नाभि में थे वहीं अमृत था और वहाँ तीर लगने से वह मारा गया। वैसे ही इन कीड़ों के साथ भी होगा? स्वाति तुम्हें क्या लगता है ये कीड़े कैसे मरेंगे? स्वाति बोली- क्या बताऊँ माँ कैसे मरेंगे। छोड़िए ना? अच्छा होता आप कुछ खा लेतीं। पेशाब करने का मन है तो आरती को भेज दूँ।

आरती! आरती के नाम से माँ ने मुँह बनाया- वह क्या संभालेगी मुझे। स्वाति को रसोई में जाना है सोचकर बोली- ठीक है भेज दो। पर भेजे किसे स्वाति ने आरती को बुलाया पर उसने जवाब ही नहीं दिया। कहीं किसी कोने में फोन लेकर बैठी होगी और गप्प मार रही होगी किसी से। माँ ने पूछा किससे बात करती रहती है ये लड़की। स्वाति ने कहा- कहती तो है माँ से। पर लगता तो नही। होगा कोई लड़का-वड़का।

माँ बोली – ये मोबाइल भी सच में आफत और झमेले का घर है। फोन क्या इसलिए होता है? पकड़ के बैठे रहो। पहले अपने घर में ही देख लो ना पच्चीस लोगों के संयुक्त परिवार में एक फोन था। उसमें बस हालचाल पूछा जाता। जरूरी बात होती। पर आजकल सब अलग-थलग  रहने लगे। घंटों फोन पकड़े बैठे रहते हैं। मुझे ही देख लो ना राहुल और सोना से कई बार कितनी-कितनी देर बात करती रहती हूँ। बच्चे दूर चले जाते हें तो फोन ही तो सहारा है। कम से कम आवाज ही सुन लो। पर आजकल फेस बुक पर “वैब-कैम” में हम एक दूसरे को देख भी सकते हैं। ऐसा राहुल बता रहा था। माँ कुछ ना कुछ बोलती जा रही थी और स्वाति का मन आरती को ढूँढ़ने में लगा था। उसके जिम्मे कई काम थे।

माँ की कीमोथैरेपी चल रही है। कितना काम है घर में। माँ की बीमारी का पता जब घर में चला पूरा घर काँप गया। फिर बस घर अस्पताल दवा का चक्कर। काम ही काम। स्वाति को लगता है कि कुछ महीने में माँ ठीक हो जाएगी और सब कुछ पहले जैसा हो जाएगा। सोना हैदराबाद में है और राहुल दिल्ली में। सोना की शादी में माँ बीमार हो चुकी थी। दोनों बच्चों की शादी में माँ अपने कीड़े काट खाए शरीर के साथ थी। अपने बायें कमजोर पर दायें सख्त अंग के साथ प्रस्तर की भाँति मजबूत हो अपनी ऊष्मा बिखेरती रही। माँ इन कीड़ों से घबराने और डगमगाने वाली नहीं है। हाँ इन कीड़ों ने जब तब माँ का दुर्बल क्षीण असुन्दर बनाने की भरसक कोशिश की। पहली कीमोथैरेपी में माँ के सिर पर एक भी केश नहीं बचा। माँ रोयी नहीं हँसी। हँसकर गंजे सिर पर हाथ फेरा। सौ पाँच सौ लोगों के बीच कैसे जाएगी माँ? क्यों सिर पर आँचल डाल लूँगी। सोना की शादी में सोना का रूप दमकेगा। मैं सोना की माँ हूँ मेरा सिर नीचा नहीं होगा। माँ पूरी शादी में अपने उसी दुर्बल काया के साथ सबसे घुलती मिलती मौजूद रही।

माँ शरीर नहीं है। माँ मन है। इस मन को किसी कीड़े ने थोड़े ना काटा है? यह मन तो माँ के सौर मंडल में चमकते चांद, तारे, सूरज, देवेश, सोना, राहुल से प्रकाश और ऊर्जा पाता है। माँ का मन बच्चों का मन है। बच्चों का मन माँ का मन है। ऐसा गड़बड़झाला, कैसा गड़बड़झाला। ये चारों मन मिलकर एक मजबूत मन बनते हैं। जो कीड़े-मकोड़े की दुनिया का बहादुरी से सामना करते हैं।

ये कीमोथैरेपी तो शरीर को ही जर्जर बनाएगी ना? बना लो। पर मन डगमगाने वाला नहीं। बच्चों की शादी देखनी है फिर उनकी सन्तानों को जन्म लेते हुए देखना है। इन्तजार धीरज। बहुत धीरज चाहिए। वे सभी काम पूरे करने हैं जिसमें माँ का होना निहायत जरूरी है। माँ धीरज रखे हुए है। माँ में संयम है। धीरज है। वह घंटी है जिससे माँ कीड़ों को मारेगी वह माँ के पास है हिम्मत रखनी होगी। माँ को बहुत हिम्मत रखनी होगी।

पूरे शरीर में खुजली हो रही है। माँ पाउडर पर पाउडर लगा रही है पर खुजली है कि कम  नहीं होती। क्या करे? माँ खाज-खुजली से परेशान। कभी इस कमरे में चक्कर लगाती, कभी उसमें। पाउडर लगाया, लैक्टोकैलामाई का लगाया, एलर्जी की दवा खाई। गीले गमछे से पोंछा। जो समझ में आया किया। देवेश ने डॉक्टर से पूछा- दवा आई। नई दवा। दवा दी गई। माँ के मुँह से यही निकले हे ईश्वर! ये कैसा भोग है? यह खाज खुजली ऐसी राक्षसी की शरीर का रक्त निकालने को आतुर। माँ उसे आँख दिखाए तो वह उलटी पड़े। माँ उसे पुचकारे तो वह शान्त हो जाए। देवेश ने डाँटा क्या पूरा शरीर छील डालोगी? माँ हंस दी। क्या करूँ?

धीरे-धीरे दवा का असर होने लगा। खुजली कम होने लगी। माँ ने देवेश को देखा। दुबला हो गया है। माँ ने प्यार से देवेश का माथा सहलाया और बोली- मेरा चाँद बेटा! देवेश मुस्कुराया बोला- लग रहा है खुजली कम हो गयी है। कम ना होती तो कहाँ जाती? मेरे शरीर में ज्यादा देर कैसे टिक सकती है। साँवली जो हूँ। ऐसा कह माँ हंस दी। वह बोला- माँ तुम तो बहुत सुन्दर हो। बहुत अच्छी। पर तुमने बताया क्यों नहीं?

क्या?

फिर वही बात। माँ समझ गई। बोली- छोड़ो देवेश। देवेश ने छोड़ दिया। माँ से पूछना छोड़ दिया। पर मन में ढेरों सवाल। क्यों? माँ ने क्यों छोड़ दिया। क्या माँ को पता नहीं था कि माँ के बायें वक्ष में कुछ अंकुरित हुआ है। क्यों? क्यों? माँ ने क्यों ध्यान नहीं दिया? बताया नहीं। सुध नहीं ली।

क्या माँ भी वही सोच रही है जो देवेश सोच रहा है। हाँ देवेश का मन जहाँ अटका है वहीं माँ का भी मन है। कुछ ठीक से याद नहीं माँ को। बीस बाइस वर्ष पहले सबसे छोटे राहुल ने जब माँ का दूध पीना छोड़ा था शायद राई के आकार का मोती सा कुछ अंकुरित हुआ था। दुग्ध ही रहा होगा। जो जम गया होगा। माँ की अंगुलियाँ उसको स्पर्श करती पर भूल जाती। भूलना माँ का दूसरा नाम ही है भूलना। दोनों भौहों के बीच कोई बिन्दी नहीं। माँ लगाना भूल गई। आज एकादशी है घर में चावल नहीं बनेगा, माँ भूल गई। पूर्णिमा का दिन है। सीधा निकालना है, भूल गई। बड़ी दीपावली के बाद वाले दिन सुबह-सुबह गोबरधन पूजा है भूल गई। बच्चे कुछ पूछते माँ कहती भूल गई। पापा कुछ कहते माँ कहती भूल गई। शरीर में कुछ उगा है माँ देखती छूती फिर भूल जाती। भूलती रही बार-बार भूलती रही। साल पर साल निकलते गए माँ भूलती रही। एक दो तीन आठ दस बारह पन्द्रह अठारह बीस। इतने-इतने साल। महीने पर महीने। दिन पर दिन, माँ भूलती रही। माँ के साथ पापा भी भूल गए। भूलते रहे एक छोटी भूल। भूलने की भूल। जानकर अनजान बने रहने की भूल। ध्यान में आने के बाद ध्यान न देने की भूल। भूल ने सृष्टि कर दी ऐसे भंवर की जिससे निकलना मुश्किल। भूल ने जन्म दिया एक नन्हें कीड़े को। राई भर कीड़ा पर इतना शक्तिशाली की महायुद्ध छिड़ गया। माँ अपने तन-मन व अपने सौरमंडल-राहुल, सोना, देवेश के साथ एक तरफ। वह कीड़ा दूसरी तरफ। कौन जीतेगा? कौन जानता है? लड़ाई लड़नी है जीवन और मृत्यु की। एक भूल की लड़ाई।

पर माँ अकेली नहीं है। माँ को थामे है माँ के चांद तारे। यह सच है ऑपरेशन माँ का हुआ। किमियोथैरेपी माँ की हो रही है। रेडियेशन माँ को झेलना पड़ा पर चेहरा पापा, देवेश, राहुल, सोना का भी उतना ही सूखा। माँ की एक-एक धड़कन के साथ तीनों बच्चों की धड़कन आती-जाती। माँ दर्द हो रहा है क्या? माँ पानी पी लो। माँ कैसा लग रहा है? माँ सब कुछ ठीक हो जाएगा। माँ हर बात का उत्तर हाँ बेटा, हाँ बेटा कहकर देती। माँ कहती नहीं पर सब जानते। माँ ठीक होगी। माँ ठीक होना चाहती है। माँ के सामने है एक संसार जिसमें है माँ के बच्चे। माँ के बच्चों के बच्चे। जिसके साथ माँ रहना चाहती है। माँ अपने दो कमरों वाले छोटे से घर की खिड़की से बरामदे से उस रास्ते को देखती है जिसमें आ जा रहे हैं सैकड़ों लोग। माँ का मन उन्हें आते-जाते देख लग जाता है। फुर्सत के समय माँ ऐसे ही मन लगाती है। लोगों को आते-जाते देख आने वाले दिनों की राह देखती है। समय बदलेगा। घर बदलेगा। जीवन बदलेगा। सब कुछ बदला पर साथ ही काया भी बदल गई। यह जो माँ का शरीर है वह माँ के देखते-देखते बदल गया। माँ ने स्वाति से कहा- इस जीवन का सारा उल्लास आनन्द उत्साह सब कुछ इस शरीर के पीछे ही है। देखो मेरा शरीर मेरे सामने बदल रहा है। धीरे-धीरे मैं इसे बदलते देख रही हूँ। मैं क्या करूँ? कैसे इसे बदलते हुए रोकूँ? कैसे समझाऊँ कि यह मेरी बात सुने। रूप ना बदले। मुझे तो इसके अन्दर ही रहना है मैं और मेरा शरीर। दोनों अंतरंग साथी हैं। यह क्यों मेरी बात नहीं सुनता? पहले तो जो कहती थी सुनता था पर मैंने भी इसकी कहाँ सुनी। इसे भुला दिया।

स्वाति माँ की बात समझी नहीं वह यह समझी कि यह सब किमो का असर है। वह करे भी तो क्या? माँ की बात सुनने का समय और धीरज उसके पास नहीं। उसे तो हर क्षण काम नजर आता है। आरती जब देखो मोबाइल लिए रहती। एक फोन दो सिम। एक आइडिया का दूसरा रिलायन्स का। रात ग्यारह से सुबह छह तक शायद रिलायन्स में कॉल मुफ्त। इतने का टॉक टाइम भरवाओ तो इतने कॉल फ्री। आरती को सब पता है। सभी स्कीमों की जानकारी। तीखे नैन नक्शवाली आरती भले ही काली हो पर कोई एक बार उसे देखे तो दुबारा देखना चाहे। ऐसी चपल चंचल कि उसके होने से घर में मलयानिल बहे। हँसती-बोलती। भागती दौड़ती काम करती पर यह फोन। ज्यादातर समय फोन पर चला जाता। माँ का नाश्ता, दूध, फल का जूस, टमाटर-सूप सभी कुछ बनाने में कुशल पर मन कहीं और सो जो बनाए वही बेस्वाद बन जाए। स्वाति देवेश से कई बार कह चुकी एक दूसरी महरी को रखना होगा। कोई लड़का ही सही। पर लड़के का नाम लेते ही देवेश कहता- आजकल के नौकरों को रखना मौत को बुलाना है। जानती तो हो सामने वाले फ्लैट में कैसा कांड हुआ। धानुका जी गद्दी गए थे और उनकी पत्नी दोपहर में अकेली थीं। शाम को जब दरवाजा तोड़ा गया तो देखा चार-पाँच साड़ियों से उनको बाँध कर उनकी नृशंस हत्या कर दी गई है। सोना-चाँदी-नगद सब ले गए। घर में सिर्फ तुम हो और माँ बीमार। राहुल दिल्ली में है, सोना की शादी हो गई। पापा और मैं शाम को आते हैं। कभी-कभी रात को । मैं नौकर रख कर सिरदर्द नहीं पाल सकता।

स्वाति चुप हो गई। उसका मन हुआ वह रो दे। सब कुछ कठिन लगा। खुद को सम्भाला कुछ महीनों की बात है। किमियोथैरेपी हो जाने के बाद माँ ठीक हो जाएगी। सब कुछ सामान्य हो जाएगा। आरती के मोबाइल से आते हुए गाने की आवाज स्वाति तक पहुँची वह गुस्से में भुनभुनाई-आज उसका यह सेल उठाकर सीधे नीचे फेकूँगी। पर देवेश ने रोक लिया। चली जाएगी तो और परेशान होगी।

रात माँ के बगल में पापा सोए हुए थे। माँ समझ रही थी। पापा भी समझ रहे थे। बहुत महँगी है ये दवा। ये किमियोथैरेपी। पापा बोले- तुम क्यों सोचती हो? चिंता छोड़ो। माँ ने चिंता छोड़ दी। सो गई। दवा का असर है। कभी-कभी माँ पूरी रात जगी रहती तो कभी रात दिन मिलाकर सोती रहती। माँ के सिरहाने पानी का गिलास रखा होता। पानी। माँ को पानी पीना है। पानी पीओ। सोना फोन पर कहती माँ पानी पी रही हो ना। देवेश पानी का गिलास देखकर कहता तुमने अभी तक पानी खत्म नहीं किया? राहुल फोन पर कहता-माँ पानी पीने से किमियोथैरेपी का जहर कम होगा। पीते रहना। पापा कहते- तुमसे पानी भी नहीं पीया जा रहा। स्वाति बार-बार माँ के पास आती कहती- माँ गिलास में पानी पड़ा है। माँ कहती- बार-बार मत कहो। कोई कितना पीयेगा। स्वाति सहम कर चली जाती।

माँ देखती उसके चारों तरफ पानी है। पानी ही पानी। माँ पानी पी रही है। पानी पर पानी। वह पानी जो गर्मी के दिनों में काम करने के बाद थक कर चूर होने पर पसीने से तर बतर होने पर मीठा और अमृत लगता वह इतना तीता कैसे हो गया। माँ समझ नहीं पाती। कहती मैं बहुत पानी पीना चाहती थी। पूरे-पूरे दिन प्यास लगी रहती। उन दिनों दम मारने की भी फुर्सत नहीं होती तो पानी क्या पीती। आज फुर्सत ही फुर्सत है। पर पी नहीं पा रही, क्यों? माँ पानी की तरफ देखकर कहती क्या मैंने पानी दान नहीं किया? हमारे घरों में ग्यारस के दिन पानी का दान होता था। मैंने भी दी थी। ब्राह्मणों को सुराही। सुराही पर सुराही, डाभ पर डाभ, गिलास पर गिलास। फिर भी मुझसे पानी पीया नहीं जा रहा। नजर लग गई। लोहे के चाकू से पानी काट कर पीना होगा। जब राहुल दूध नहीं पीता तब घर में एक टोटका किया जाता था। लोहे के चाकू को दूध पर चार बार घुमाया जाता, क्रास करते हुए फिर उस दूध को राहुल को पीने दिया जाता।

माँ ने स्वाति को पुकारा बोली- पानी काटकर दो तब पीयूँगी। स्वाति माँ को देखने लगी। माँ बोली- नजर लग गई है। मेरे पानी-पीने को नजर लग गई है। नजर उतारो।

माँ ने सबको बुलाया। पापा को, देवेश को बोली- मेरी नजर उतारो। मैं क्या करूँ मुझसे पानी नहीं पीया जाता। जीभ बेस्वाद हो गई है। क्या मेरी जीभ के स्वाद वाले तन्तु मर गए हैं? माँ घबरा गई। देवेश ने डाँटा। कैसी बात करती हो। यह सब किमो के कारण है। देखना दो-तीन रोज में यह सब ठीक हो जाएगा। फिा पुचका लाऊँगा। खाना। तुम्हें पुचका खाने का बहुत शौक है ना? धीरे-धीरे माँ ठीक होने लगी। पहले सप्ताह में जिस तरह उल्टी, दस्त, खाज-खुजली का हमला होता रहा। दूसरे सप्ताह सब बहुत कम हो गया। माँ को अच्छा लग रहा था। माँ को अच्छा देख पापा, देवेश, स्वाति सभी को अच्छा लग रहा था। सभी हल्के नजर आ रहे थे। देवेश का मन हुआ माँ को थोड़ा घुमा फिरा लाए। पर घर से निकलते ही धूल-मिट्टी का हमला होता माँ की तबियत बिगड़ सकती थी। देवेश ने माँ से पूछा कहीं घूमने चलोगी। माँ ने मना कर दिया।

माँ हमेशा से ही घर में रही। वह जब भी घर लौटता माँ होती। तीनों बच्चे बाहर जाकर जब भी घर आते माँ घर पर होती। घर यानी माँ। माँ कपड़े दो, खाना दो, पानी दो। माँ चाय पीना है, माँ मोजे गुम हो गए। माँ चाभी कहाँ है? माँ हर क्षण मौजूद। किसी प्रश्न का उत्तर नहीं मिल रहा माँ पढ़कर दे देती। माँ पढ़ी-लिखी है। ग्रेज्युएशन किया है। नानाजी ने माँ को पढ़ाया। माँ एक बार कुछ भी पढ़ लेती तो माँ को याद हो जाता। दूध वाले का हिसाब देखते ही देखते चुटकी में जोड़ देती। बड़े-बड़े सवाल मुँहजबानी कर देती। पापा माँ से जोड़ घटाव करवाते। बच्चे माँ से पढ़ते। एक-एक हिज्जे को दस बार बीस बार, लिखवाती। सौ बार लिखने पर इतने पैसे मिलेंगे इनाम तय करती। राहुल ने तो पूरी गुल्लक हिज्जों की कॉपियाँ लिख-लिखकर भर ली। माँ तीनों बच्चों का भरपूर ख्याल रखती। घर यानी माँ। माँ यानी घर। बच्चे बाहर जाते घर लौटने के लिए। घर पर माँ है। माँ पैसे चाहिए ले लो। अलमारी में रखे हैं। ना माँ पूछती किसलि। ना बच्चे छुपाते इसलिए। ना माँ पूछती कितना लिया ना बच्चे झूठ बोलते कि इतना ही लिया। माँ का कमरा; देवरानी जेठानी के बच्चों के लिए भी घर बना हुआ था। उस कमरे में कई बच्चे आते-जाते रहते। माँ का कमरा खुला-खिला रहता। बच्चों की आवाज से उनकी हंसी खिलखिलाहट से। माँ और माँ का भरापूरा संसार। माँ कहीं आती जाती नहीं। पापा के साथ माँ को ना ही फिल्म जाते देखा न कभी कोई होटल। माँ अपना मन बरामदे में खड़ी हो सड़क देखते हुए लगाती। कमरे में बच्चों के साथ माँ जुटी रहती। सुबह शाम रसोई के काम में डटी रहती।

आज भी माँ घर पर है। बीमारी से जुझने के लिए। अब माँ का मन घर में नहीं लगता। उचट जाता है। माँ का कमरा खाली हो गया है। देवरानी जेठानी के लड़के एम.बी.ए.करके मुम्बई, हैदराबाद, लन्दन चले गए। लड़कियाँ सी.ए. की पढ़ाई करने दफ्तर जाने में व्यस्त हो गईं। किसी के भी पास समय नहीं है। माँ कैसे मन लगाए। देवेश और स्वाति है।

देवेश ने दो दिन बाद माँ को पुचका लाकर दिया। गोल गोल कुरकुरे पुचके संग। आलू का मसाला और चटपटा पानी। माँ ने एक पुचका बहुत चाव से मुँह में लिया। जैसे ही पुचका अन्दर गया वैसे ही बाहर भी आ गया। माँ ने थूक दिया। गंध। उफ अजीब सी गंध है। कहाँ से लाया है? स्वाति ने गंध वाली प्लेट में डाल कर मुझे दे दिया। प्याज है। इसमें प्याज डाला हुआ है। फेंको। इसे फेंको। फेंक दो। मेरे सामने से हटा दो। यह पुचका, इसका मसाला, इसका पानी सब बासी है बेस्वाद गंध से भरा। स्वाति एकदम ध्यान नहीं देती। बदल गई है। गंदी प्लेट में पुचका लाकर दे दिया।

देवेश ने एक पुचका खाया, स्वाति ने भी मुँह में लिया। दोनों को ही पुचका अच्छा और ताजा लगा। हाँ मसाला कम ही था। पर माँ को क्यों अच्छा नहीं लगा? ना जाने क्यों माँ को हर चीज में गंध आती। स्वाति क्या फेंके और क्या खिलाए? देवेश के लिए कुछ बनाती तो माँ को उसमें भी गंध आती। डाँटती यह सब क्या खिलाती रहती है। स्वाति ना जाने तुम्हें क्या उलटा सीधा परोस देती है। आजकल की लड़कियाँ।

देवेश जानता है माँ को प्याज लहसून की गंध अच्छी नहीं लगती। यहाँ तक की मोटे चावल की गंध भी। नानाजी के घर में नौकर जब अपना चावल पकाते माँ अंदर कमरे में चली जाती। माँ हर हमेशा अपना एक हाथ नाक पर रखती। कभी माँ को भोजन में गंध आती कभी बर्त्तनों में।

माँ कहती- मुझे हर चीज में गंध नहीं आती। फल मुझे बहुत पसंद है। बचपन में मैंने तरह-तरह की चीजें खाई हैं। ढेरों फल। नानाजी जब फल खरीद कर लाते ढेरों फल घर में रहते। केला आ रहा है तो केला पर केला। आम आ रहे हैं तो आम पर आम। कभी सेब कभी फ़ालसा, कभी नाशपाती कभी आलू बुखारा। माँ ने खूब फल खाया है। घर का दूध दही मक्खन भी। क्या स्वाद आता था खाने में। ब्याह कर जब से शहर आई खाने का स्वाद ही नहीं मिला। वह स्वाद सुगंध और मजा आया ही नहीं।

माँ ने पुचका छोड़ दिया। दोपहर का भोजन भी नहीं किया। भूख लगी पर खाया नहीं गया। माँ लेट गई। देवेश थक कर सो गया। माँ की आँखों में आँसू थे। वह दीवार देख रही थी। कई तरह की बातें मन में बन-बिगड़ रही थी।

लगभग चार वर्ष हो गए, कैंसर हुए। पहले बायें वक्ष का ऑपरेशन। फिर रेडियेशन चला। और अब हर साल दो बार किमियोथैरेपी। फेफड़े का कैंसर। कीड़ा जैसे ही बढ़े उसे मारने की दवा का छिड़काव। कब तक चलेगी यह लड़ाई? माँ की आँखों से आँसू झर रहे हैं। कोई भी लड़ाई माँ लड़ सकती है माँ ने जीवन में कई तरह के उतार-चढ़ाव झेले हैं। पर माँ के साथ हर लड़ाई में था- माँ का वह कमरा जो बरामदे में खुलता था। जिससे वह नीचे सड़क देखती थी और ऊपर आकाश। आकाश में बादलों को चलते देखती। बादल घिरते देखती। बारिश होते देखती। शाम को सूरज ढलते देखती। कभी-कभी तो इन्द्रधनुष भी दिख जाता। माँ का पूरा दिन सँवर जाता सुगन्धित हो जाता। माँ को लगता वह ना जाने किस आलोक से भर गई है कि हल्की होकर उड़ रही है। माँ आकाश में पक्षियों को घर लौटते देखती। कभी-कभी नई चिड़िया देखती। बरामदे से दिखता सिन्दूरी आकाश और कमरे में बैठे रहते कई-कई बच्चे। ऐसा इन्द्रधनुषी माहौल।

पर अब वह कमरा कहाँ? वह घर जो बदल गया। दूसरे फ्लैट में वे लोग आ गए। इस नए फ्लैट को देखकर माँ का दिल धक से रह गया। बन्द कमरे। खिड़की और बारामदा जहाँ खुले वहाँ कोई भी सड़क नहीं बल्कि बंगाली परिवार दिखाई पड़े। जहाँ पकती मछली की गन्ध माँ को ऊपर से नीचे तक चिड़चिड़ा बना दे। माँ ने इस फ्लैट में अपने कमरे की खिड़कियाँ बन्द कर दी। ऐसी बन्द की जो खोली ना जा सके। अब मन लगाने के लिए माँ के सामने था टेलिविजन।

माँ आकाश भूल उसी में मन लगाने लगी। माँ को बचपन में फिल्में देखने का बहुत शौक था। अक्सर बचपन में जब फिल्म देखने जाती आरामदायक सीट उनके लिए रिजर्व रहती। हर नई फिल्म, पहले दिन पहला शो माँ जरूर देखती। फिल्में देखने का खूब शौक। सिर्फ फिल्म नहीं देखती फिल्मों के नायक नायिकाओं के निजी जीवन की भी जानकारी रखती। बचपन के इस शौक से आज फिर मन लगाया जा सकता है। माँ फिर फिल्म देखने लगी थी। पर ज्यादा नहीं देख पाती। सिरदर्द होने लगता। आजकल फिल्मों के बीच इतने विज्ञापन रहते कि एक डेढ़ घंटे की फिल्म को खत्म होते-होते अढ़ाई-तीन घंटे लग जाते। माँ टेलिविजन बन्द करती। फिर ऑन करती। उठकर बारामदे में जाती और खोजती अपना आकाश। वहाँ दिखता एक लाल मकान और दीवारें। माँ के अन्दर कुछ नहीं उगता। ऐसा सपाट दिन। अपनी काया के साथ निस्संग पड़े रहो। कोई धूप का टुकड़ा आकर जगाने वाला नहीं। ऐसे कैसे चलेगा। कैसे लड़ेगी माँ अपनी लड़ाई।

माँ ने स्वाति को कहा- अखबार दे दो। समाचार ही पढ़ लूँ। पूरा-पूरा दिन समुद्र सा बिछा हुआ है। ओर-छोर दिखाई ही नहीं पड़ता। निपट एकाकी यात्रा। मन लगाना होगा। अखबार ही सही। माँ ने अखबार पढ़ना शुरु किया। अखबार पढ़ते-पढ़ते स्वाति को पुकारने लगी। स्वाति स्वाति। इधर आओ, देखो। मुझे कभी बासी चीज नहीं देना। स्वाति ने कहा कभी भी नहीं देती। मुझे पता है आपके लिए ताजा भोजन अच्छा है। माँ फिर बोली- सिर्फ मुझे ही नहीं तुमलोग भी ताजा ही खाया पिया करो। सुबह का भोजन शाम, शाम का सुबह मत किया करो। देखो क्या लिखा है आज के अखबार में। मुम्बई के एक सुधार गृह में दो दिन पुराना लौकी का हलवा खाने से 32 बच्चे बीमार हो गए। यह भी लिखा है कि मिठाई बनने के आठ घंटे बाद उसे नहीं खाना चाहिए। स्वाति ने पूछा क्या हलवे को उन्होंने फ्रिज में नहीं रखा? और यह बाल सुधार  गृह जेल होता है क्या? माँ बोली हाँ। जहाँ छोटे बच्चों को रखा जाता है जो चोरी वोरी करते हुए या कोई भी गलत काम करते हुए पकड़े जाते हैं। स्वाति बोली- माँ क्या अन्दर में सुधार कार्य चलता है। माँ बोली – पता नहीं कितना क्या होता है पर सुना है वहाँ उन्हें प्रशिक्षण दिया जाता है। कई तरह की चीजें सिखाई जाती हैं। कम्प्यूटर, पढ़ाई वगैरह भी होती है।

पहले तो चोरों, डकैतों खूनी के लिए जो जगह होती वह जेल होती थी। आजकल हर चीजों के नाम बदल दिए गए है। अब देखो बच्चा जन्म लेता है तो हिजड़ों को जाने कहाँ से खबर मिल जाती है। वे अपने दल के साथ आ जाते हैं और मुँह माँगे पैसे ले जाते हैं। मेरे तीनों बच्चों के जन्म के बाद हिजड़े आए और दादी माँ से पैसे, चावल ले गए। हम तो उन्हें हिजड़े ही कहते हैं। पर अखबार में टी.वी.में किन्नड़ शब्द लिखा रहता है। मुझे तो समझ में नहीं आता “किन्नड़” क्यों रखा गया। किन्नड़ तो नृत्य करने वाले हुए ना? और नहीं तो वेश्याओं को नाम दे दिया सेक्स वर्कर। मुझे तो गणिका नाम अच्छा लगता है। मेरी माँ एक भजन गाती थी “हरि नाम लेकर वह गणिका तरी थी”। अब देखो ना शहरों के नाम बदल दिए गए हैं। कलकत्ता को कोलकाता। तभी माँ बोली यह कैंसर नाम अच्छा नहीं है। यह शब्द सुनते ही लगता है दर्द और पीड़ा की ऐसी भयावह दुनिया जो इंसान को जीतने नहीं देगी। हार ही हार। स्वाति झट से बोली- माँ कैंसर की जगह, कीड़ों का असर सुनने में ठीक लगता है। माँ बोली- हाँ , बेहतर। सांप काटने का जो बुरा असर होता है आदमी दवा खाकर स्वस्थ हो जाता है। मधुमक्खी काटने, चींटी, ततैया, काटने का भी प्रभाव दवा से कम होता है, ठीक होता है। तो यह कैंसर कौन से कीड़े का असर है जो शरीर में रच बस जाता है। रेगिस्तान के रेत की तरह ओर छोर नजर नहीं आता। कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता।

चार साल से पड़ी हूँ। उलझी हुई हूँ। ना दवा खत्म होती है ना बीमारी। दूर-दूर तक फैले आकाश की तरह असीम। पूरे शरीर में रेंगती बीमारी। रक्त की धमनयिाँ सूख रही हैं।

कीमोथैरेपी का एक-एक डोज 21-21 दिन के अंतराल पर पड़ता है और उसके पहले रक्त जाँच। सूई घुसाई जाती है और धमनियाँ नहीं मिलने पर निकाल ली जाती है। खून चाहिए। बहुत थोड़ा सा। जाँच के लिए पर शरीर से निकालना मुश्किल। खून लेने वाला गोविन्द दा परेशान। देवेश परेशान। माँ दर्द सहन करती हुई। आह, ऊँह करती हुई। माँ ने तंग आकर कहा यह कंपाउण्डर ठीक नहीं। कौन? देवेश ने पूछा। माँ बोली-यह गोविन्द दा। इसे खून निकालना आता ही नहीं। सूई घोंप-घोंप कर पूरी हथेली को छतनी किए जा रहा है। कोई क्या करे? जब खून ही कम है शरीर में तो। नलियाँ भी सूख रही हैं। इस बार खून निकल आता है। सही जगह सूई घुसाई गई थी। खून की जाँच की जाएगी। फिर अगली दवा तय होगी।

दवा पर दवा। दवा ही दवा। सुबह-शाम दवा। कभी ऐलोपैथी, तो कभी होमियोपैथी, कभी आयुर्वेदिक। किसी ने बताया एक जड़ी-बूटी है जो रात में भीगो कर रख दी जाए और सुबह उसका पानी पिया जाए तो फायदा होता है। पापा के हाथ में सप्ताह के अन्त में पूरे सप्ताह की जड़ी बूटी रहती। रोज रात नियम से एक टुकड़ा भिगोया जाता, सुबह माँ उसका पानी पीती। स्वाति ने ढेर सारे गमले मँगवाए और बरामदे में उसमें जौ रोपा ताकि उसमें से जो पौधा  निकले उसका पानी माँ को दिया जा सके। बीमारी दूर होगी और माँ स्वस्थ। बनारस से कोई पुड़िया आने वाली है। माँ उसका काढ़ा पियेगी औेर बीमारी छू मंतर। कटक के एक डॉक्टर बाबू ने दवा दी है। होमियोपैथी। उससे उलटी कम होगी। भूख भी लगेगी। देवेश महीने में एक बार रिसड़ा जाता है। एक वैद्यजी की दवा लेने। उन्होंने कहा है यह दवा बहुत असरदायक है। बीमारी बढ़ ही नहीं सकती। एक परिचित मिलने आए थे बोल गए कि हरसिंगार का चार फूल सुबह-सुबह खाने से बीमारी कभी नहीं फैलेगी। माँ को विश्वास है। अगाध विश्वास। कीड़े ही तो हैं मर वर जाएँगे। स्वाति सोचती है हरसिंगार के निरीह कोमल नाजुक क्षण भंगूर फूल जो दो घंटे में ही मुरझा जाते हैं क्या औषधि बन सकते हैं? जो जो कहा जाए माँ वहीं सब करे।

माँ इतनी आयुर्वेदिक घरेलू ना जाने कौन सी दवा जो खाती है उससे सुबह की चाय फिर नाश्ता, जूस सूप सभी का समय आगे पीछे हो जाता है। कभी कुछ छूट जाता है कभी कुछ। आरती को समझाया कि माँ एक चीज खा ले तभी दूसरी चीज बनाना पर वह सुने तब ना। सुबह-सुबह एक साथ सब कुछ बनाकर रख दे। सो कभी जूस फेंकना पड़े तो कभी सूप। स्वाति कई बार सोचती कि माँ के लिए बनाया सूप और जूस वह पी ले पर सिर्फ हरि सब्जियों वाला सूप स्वाति को पसंद नहीं था और ना ही जूस। किसी भी चीज को फ्रिज में कल के लिए रख नहीं सकती थी। सो फेंका ही जाता।

माँ- रोज अखबार पढ़कर स्वाति को कोई न कोई नई खबर बताती सुनाती रहती। एक दिन बोली- अखबार में लिखा है एक वैज्ञानिक की मौत करेला और लौकी का रस मिलाकर पीने से हो गई। उस बेचारे को “शुगर” की बीमारी थी और उसने कड़वा करेले का जूस पी लिया साथ ही कड़वी लौकी का भी।

अखबार पढ़ते-पढ़ते माँ कभी-कभी बचपन की बात करती, तो कभी युवा दिनों की। माँ ने बचपन में अरेबियन नाइट्स, सकुमार राय की कहानियाँ और गोपाल भांड की कहानियाँ पढ़ी थीं। माँ उन दिनों को याद करती। जब वह किताबें पढ़ती थीं फिल्म देखती थीं। चिंतारहित बचपन। फिर यह वैवाहिक जीवन का दैंनंदिन जीवन। तीस वर्ष घर और बच्चों को सजाने सँवारने में निकल गए। एक -एक पैसों का हिसाब रखना। ना जाने कितने -कितने दिन इसी जोड़-घटाव में बहते चले गए। ढेर सारा समय रसोई घर में गुजरता। पूरा-पूरा विराट दिन घर और रसोई में गुजरने लगा।

फिर यह बीमारी। बीमारी क्या व्यस्त जीवन से छुट्टी। बस पूरे-पूरे दिन पुरानी बातों को याद करते रहो। बचपन में कितनी फिल्में देखती थी। छोटी जगह के छोटे सिनेमा हॉल में आरामदेह सीट पर बैठकर पहला शो देखना। रंग और आवरण की जादुई दुनिया। माँ का मन उड़ने लगता। माँ चाहती कि वह भी एक फिल्म बनाए।  कहानी क्या होगी? वही अरेबियन नाइट की शहजादी की तरह की कहानी। जो लगतार चलती ही रहे। खत्म ही ना हो। एक जादुई दुनिया। जिसमें एक जादुई गलीचा, जादुई दीपक, जादुई दर्पण। जादुई घोड़ा।

ऐसा गलीचा कि जहाँ मन हो बैठकर चले जाओ। ऐसा दर्पण जो मन हो देख लो। ऐसा दीपक घिसो तो निकले जिन्न। जो चाहे माँग लो। कामधेनु, कल्पवृक्ष की तरह इच्छा पूरी करने वाले तंत्र, जीव। अलीबाबा चालीस चोर की खुल जा सिम-सिम वाली दुनिया।

माँ करवट बदलती । उस जादुई दर्पण को अपने सामने पाती, जो वह सब कुछ दिखाता जो वह चाहे। वह कहती दिखा ऐ दर्पण। दस साल बाद मैं कैसी लगूँगी?

धुँआ निकलता ढेर सारा धुँआ। उस धुँए को हटाने से उसके अन्दर दिखलाई पड़ता एक चमकता हुआ दर्पण और माँ की तस्वीर। एक घर है और वहाँ लगी है माँ की तस्वीर। जिस पर गेंदे के फूल की माला चढ़ी हुई है। माँ चौंकती है। क्या? यह मैं हूँ? नहीं मैं तस्वीर  नहीं हूँ। मैं तो दो हाथ दो पाँव एक शरीर हूँ। जिसमें है मेरा मन मेरी आत्मा।

क्या यह कैंसर उस बाघ की तरह है जो मुझे हरा डालेगा। माँ को याद आती है कल पढ़ी हुई एक कहानी जिसमें कुछ लोग वन में बाघ को देखने- खोजने जाते हैं। दो दिन गुजर जाते हैं पर बाघ दिखाई नहीं पड़ता। एक दिन अचानक कुछ हाथियों के सामने एक बाघिन आकर खड़ी हो जाती है बाघ को देखने- खोजने गए लोग डर कर भगवान से प्रार्थना करने लगते हैं। एक दूसरे से लिपट जाते हैं। तथा डर से कांपने लगते हैं। माँ सोचने लगती हे कि पूरे दो पन्ने में बाघ आएगा, बाघ आने वाला है का वर्णन है और बाघ नहीं आता।  आती है तो बाघिन और वह भी धीरे से पीछे हट जाती है और अपने बच्चों के पास चली जाती है।

वैसे ही इस बीमारी का अंत मौत है। यह सबके मन में समा गया है पर मौत आ नहीं रही और उसके पहले, मौत होगी, मृत्यु होगी यह सब सोचकर ही बीमारी से जूझते-जूझते सबकी हड्डी-पसली एक हो गई है। पर दर्पण ने जो दिखाया है उस हिसाब से बाघ दिखेगा। मौत होगी। मैं एक तस्वीर बन जाऊँगी। सचमुच कब? क्यों? इलाज तो चल रहा है। माँ उदास थी। सोचने लगी क्या उम्र है मेरी? पचपन। अगर अभी मर जाऊँ तो पचपन में जीवन लीला खत्म और यह बीमारी ना होती तो हो सकता है 75 की होकर मरती यानी 20 वर्ष बाद। मेरे ना होने से क्या होगा? मेरे होने से क्या होगा? मैं तुरन्त मर जाऊँ तो कहानी खत्म। अगर जीवित रहूँ बीस वर्ष और? देश क्या कुछ दूसरी तरह का होगा। क्या-क्या बदलेगा। फिल्मों की दुनिया में भी बहुत कुछ बदल जाएगा। देवेश के, सोना के एक-एक दो बच्चे हो जाएँगे और बड़े होकर कुछ बन वन जाए। राहुल की शादी होगी। उसकी भी संतान होगी। तीनों बच्चों का काम धंधा फलेगा-फूलेगा। हो सकता है मंदा भी पड़ जाए।

देश की राजनीति में तो लगता है औरतें ज्यादा आ जाएँगी। पर घरों का क्या होगा? बच्चों का क्या होगा? हम तो अपनी आँखों के सामने बच्चों को बड़ा होते देखते रहे। उनके खाने, पीने, सोने सभी का हिसाब किताब घड़ी-घंटों के हिसाब से रखते रहे। मैंने तो अपने तीनों बच्चों को अपनी आँखों से ओझल नहीं होने दिया। देवेश छोटा था तो रात को भूख के कारण उठ जाता। उसके पापा उसे गोदी में उठाए भजन सुनाते थपकी देते, पानी पिलाते और जब तक वह सो नहीं जाता हम दोनों जागे रहते। ऐसा सिर्फ देवेश के साथ नहीं था। राहुल और सोना को भी उतने ही लाड़ प्यार से पाला। सीने से लगाकर रखा। राहुल पढ़ने बाहर गया। फिर नौकरी करने तो उसे कैसे भेजा ये मैं ही जानती हूँ। आज भी राहुल से पूरे पूरे दिन में एक दो बार बात नहीं होती तो मन उचाट हो जाता है। कितनी अच्छी-अच्छी बात करता है राहुल। कितना समझाता है मुझे। कहता है माँ तुम्हें कष्ट सहते-सहते ही मुक्ति मिलेगी। सच कहता है। मेरे दर्द का ना आदि है ना अंत। काया में यह रोग ऐसा रच बस गया है कि शरीर के साथ ही जाएगा।

सच, मैं चली जाऊँगी। मुझे जाना होगा मेरे जाने के बाद। मेरे सौर मंडल का क्या होगा? ईश्वर देगा शक्ति। फिर सभी का अपना-अपना संसार भी तो है। बच्चे पति घर। पर देवेश के पापा। उनका क्या होगा? उनको तो थोड़ा जोर से बोलने की आदत है, बच्चे उन्हें गलत समझने लगे तो? खाने-पीने में भी तो वह बहुत परेशान करते हैं। किसी का कुछ भी बनाया उन्हें पसंद नहीं आता। क्या वे भूखे रहने लगेंगे। क्या करूँ? मुझे जीना होगा। उनके भोजन के लिए। माँ हंसने लगी। क्या किसी को दो समय भोजन बना के दे सकूँ। इसलिए जीना चाहती हूँ। वैसे भी चार पाँच वर्ष हो गए। कौन सा मैं पका कर  उन्हें खिला पा रही हूँ। खा ही रहे हैं आरती और स्वाति के हाथ का बना खाना। कच्चा-पक्का, स्वाद, बेस्वाद, कहाँ कुछ बोलते हैं? कभी-कभी चिड़चिड़े होकर दो रोटी की जगह एक ही खा लेते हैं। आदत तो पड़ ही चुकी है। वैसे और भी कई तरह की अजीब आदतें हैं उनमें। वह सब क्या बहू बेटियाँ समझेंगी।

माँ का मन बेचैन हो गया। वह कुछ कुछ बड़बड़ाने लगी। मुझे एक मृत्युपत्र लिखना चाहिए। मुझे एक दिन जाना है और वह दिन जल्दी आएगा सो एक मृत्युपत्र लिखना चाहती हूँ।

मृत्युपत्र-1

1          यह मृत्यु पत्र उस भौतिक सम्पति के लिए नहीं है जो मेरे पास है। वैसे मेरे पास है क्या? जेवर, नगद। वे राहुल की शादी होने पर उसकी बहू और सोना की बेटी यानी मेरी दुहिती को तथा पोते पोती को मेरे पति की इच्छानुसार समय और स्थिति के अनुसार दे दिए जाएं।

2          मेरा मन मेरी आँखें, मेरी आत्मा देवेश लेगा।

3          मेरा मन मेरी आँखें मेरी आत्मा मेरी दृष्टि, बुद्धि राहुल के लिए।

3          मेरा मन मेरी आँखें मेरी आत्मा मेरी हँसी सोना लेगी।

5          मेरा क्रोध मेरी काया के साथ जला दिया जाए।

नहीं, नहीं मैं अपना मन जैसी हालत है वैसी हालत में बच्चों को कैसे दे सकती हूँ? मुझे उसे चमकाना होगा। उस पर मैल चढ़ गया है। वह मैला मन मैं कैसे दे सकती हूँ? कीड़ा तो शरीर को लगा है। हाँ यह काया नष्ट हो जाएगी उसे जलने दो। पर मन? मन हीरे सा होता है ऐसा बचपन में पढ़ा था। उसे फिर से हीरा बनाना होगा। कैसे? बार-बार इस पर दुख की छाया पड़ती है। कष्ट की छाया। यह मलिन हो जाता है।

मेरी आँखें उसे मैं कैसे दे सकती हूँ? वह तो आजकल बस दुख उदासी ही देख पाती है। उसे इन्द्रधनुष दिखायी ही नहीं पड़ता। हर जगह सलाइन की नली, दवा, अस्पताल नजर आता है। सूरज चाँद तारे नदियाँ दिखाई ही नहीं पड़ते।

मेरी आत्मा! आत्मा कैसे दे सकती हूँ? वह तो चिन्ताग्रस्त है। हँसी! हँसी तो मुझे आती ही नहीं। हंसी कैसे दे सकती हूँ? मैं अंतिम बार कब हँसी थी किस बात पर?

नहीं यह मृत्यु पत्र ठीक नहीं। माँ ने उसे फाड़कर फेंक दिया।

मृत्युपत्र-2

1          मेरे जेवर, नगद मेरे पति अपनी इच्छानुसार समय और स्थिति के अनुसार बच्चों में बाँट दें।

2          मेरा मन मेरे बड़े बेटे को दे दिया जाए पर तब जब वह हीरे सा चमकने लगे।

3          मेरी आँखें मेरे छोटे बेटे को दे दी जाए पर तब जब वह मलिन ना लगे उसे साफ नजर आए।

4          मेरी हँसी मेरी बेटी को दे दी जाए पर तब जब वह निर्मल हो।

5          मेरी आत्मा मेरे तीनों बच्चों को मिलेगी पर तब जब उस पर अवसाद की छाया न हो।

बचा हुआ समय मुझे अपना मन आत्मा आँखें हँसी को निर्मल व स्वच्छ करने मे गुजारना होगा। देखते ही देखते सात आठ वर्ष हो गए। बीमारी ने मेरे शरीर को असुन्दर बना दिया वह मेरे हाथ में नहीं है। मेरे हाथ में है मेरा मन मेरी आत्मा मेरा शरीर।

माँ का बायां हाथ और पाँव सुन्न हो रहा है। हे भगवान क्या ये लकवे के लक्षण हैं। भाग दौड़। देवेश और पापा अस्पताल जा रहे हैं सोना और राहुल भी आ गए हैं। रेडियेशन शुरू डिग्री होने वाला है। साथ ही फिजियोथैरेपी।

माँ धीरे-धीरे ठीक हो रही है। पर यह क्या? यह गर्दन का नया दर्द कैसे शुरू डिग्री हो गया। माँ दर्द से कराह रही है। गर्दन में इस तरह का दर्द है मानों गर्दन की हड्डी टूट गई हो। सचमुच टूट गई है क्या? ऑपरेशन। गर्दन में पीछे की तरफ जो हड्डी है उसका ऑपरेशन। माँ को मनाना होगा। माँ दर्द से तड़प रही है। देवेश ऑपरेशन के लिए माँ को मना रहा है। माँ कह रही है और कितना ऑपरेशन झेलूँगी? नहीं। माँ को समझाया गया कि हड्डी गल गई है। वहाँ दूसरी बैठानी होगी। यह दर्द इसलिए ही है। माँ मान गई। ऑपरेशन। ‘आई.सी.यू.रूम’ फिर प्राइवेट रूम। दर्द कम नहीं हुआ। भयंकर तकलीफ। माँ को समझ में आ गया। अब समय नहीं है। माँ कुछ कहना चाहती है, कुछ लिखना चाहती है। माँ को एक कागज और कलम की जरूरत है। माँ एक बार फिर अपना मृत्यु पत्र लिखना चाहती है।

लगता है मैं अब नहीं बचूँगी। मैं जीना चाहती थी। रहना। बच्चों के बीच और समय गुजारना पर शरीर का इतना कष्ट। अब सहना मुश्किल है। मन उचाट हो गया है। बच्चे अपनी-अपनी दुनिया में आबाद रहें पर उनके पिता! उनको थोड़ी मुश्किल होगी। स्वाति ने मेरी देखभाल की है उनकी भी करेगी। अगर मैं जापानी होती या अमेरिकन या फ्रांसिसी तो क्या कोई स्वाति मेरे बगल में सोती? लग रहा है बहुत सारे तोते एक साथ उड़ रहे हैं। लग रहा है कोई औरत मेरे सामने नए कपड़े पहन कर आई है जिसका चेहरा मेरे चेहरे से मिल रहा है। लग रहा है यह शरीर एकदम हल्का हो गया है। कहाँ है दर्द। वह कष्ट, पीड़ा जो आठ साल से मुझे घेरे हुए थी। कहीं भी महसूस नहीं हो रही। मैं दौड़ रही हूँ। हरी हरी मुलायम घास पर। ऊपर नीला आकाश है और उसमें इन्द्रधनुष बना हुआ है। बच्चे मुझे देख रहे हैं। देवेश, राहुल, सोना। तीनों। अब मैं उनके साथ कैसे चल सकती हूँ।  मुझे तो अकेले चलना होगा। रमेश बाबू अकेले खड़े हैं। कमजोर लग रहे हैं। मुझे अकेले दूसरी यात्रा पर जाना है। नहीं किसी के भी सहारे की मदद की जरूरत नहीं। मुझे आसमान से कोई लेने आने वाला है। वही दिव्य ज्योति वही आलोक मुझे अपनी तरफ खींच रहा है। जो मुझे अक्सर दिखता था। मेरे अन्दर से कोई ज्योति निकल उस आलोक में मिल रही है। देवेश समझ गया है। जो मुझे लेने आने वाला है उसने देवेश को भी कहा है कि माँ को मेरे साथ जाने दो। देवेश इसलिए बेचैन है। वह रात भर सोया नहीं है। मैं इस शरीर को यहीं छोड़ जाऊँगी, इसे नहीं ले जा सकती। यह जला दिया जाए तो अच्छा है। टूटा-फूटा जीर्ण-शीर्ण शरीर।

दूसरे दिन नर्स माँ को उठाने आई। माँ उठ नहीं रही। नर्स घबरा गई। पापा को कहा पेशेंट जवाब नहीं दे रहा। पापा ने माँ को उठाया। हिलाया बोले रात तो ठीक थी बात कर रही थी। शकुन्तला। फोन की घंटी बजी। माँ हिल डुल नहीं रही। पापा ने काँपते हाथ से फोन कान पर लगाया बोले- माँ बोल नहीं रही। ना जाने तुम्हारी माँ को क्या हो गया? माँ क्या अब कभी नहीं बोलेगी? पापा एक कोने में सुन्न होकर देखने लगे। माँ को ढक दिया गया। डॉक्टर आ गए। धीरे-धीरे एक -एक करके घर के लोग रिश्तेदार आने लगे। नर्स ने पापा को एक कागज लाकर हाथ में थमा दिया। पापा ने काँपते हाथों से कागज को देखा। माँ की लिखावट थी।

मृत्युपत्र-3

रमेश बाबू अब आप मुक्त हैं।

मैं मुक्त कर रही हूँ। सभी को। देवेश, सोना, राहुल, स्वाति, और उन सभी को जो मुझसे तन औन मन से जुड़े हुए हैं। बहुत समय गुजर गया। घर, अस्पताल, दवा-दा डिग्री में अब यह सब झंझट नहीं होगा। पर नए-नए कई झंझट जन्म लेंगे। उनका सामना भी इसी तरह करना होगा। मैं उदास नहीं हूँ।  अब भार-मुक्त हूँ। सभी का अपना-अपना जीवन है। मेरा मन मेरी आत्मा सब आपलोगों के साथ है। आपलोगों के पास है। जीवन निर्बाध गति से बह रहा है उसकी मधुर ध्वनि सुनिए। प्रसन्न रहिए।

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9 comments

  1. dhirendra pratap singh

    एक बेहद मर्मस्पर्शी,हृदयग्राही,भाववत्सल और आधुनिक समय और समाज की कई मामलों में खत्म हो रही संवेदना का परिचय।

  2. Great post! We will be linking to this great content on our website.
    Keep up the good writing.

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