संजय गौतम कम लिखते हैं लेकिन मानीखेज लिखते हैं. उदाहरण के लिए यही लेख जिसमें इब्ने इंशा की किताब ‘उर्दू की आखिरी किताब’ के बहाने उर्दू व्यंग्य की परम्परा का दिलचस्प जायजा लिया गया है- जानकी पुल.
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व्यंग्य विधा में समकालीनता एवं उपयोगिता का प्रश्न
(‘उर्दू की आख़िरी किताब’ के विशेष संदर्भ में)
व्यंग्य विधा पर विचार करने के लिए मैंने हिन्दी के स्थान पर उर्दू गद्य को आधार क्यूँ बनाया, इससे पहले कि आप पूछें मैं ही बता देता हूँ। एक तो विद्वजनों ने निरंतर दोनों भाषाओं को बहन ही बताया है, सो एक एक-आध दिन मौसी के घर भी चले जाना चाहिए। दूसरे, इब्ने इंशा और मंटो दोनों वर्तमान भारत (लुधियाना) में जन्मे और बाद में पाकिस्तान चले गए। इस दृष्टि से इनकी रचनाओं में अविभाजित भारत तथा बाद के हालात पर किया गया व्यंग्य-लेखन साहित्य की समकालीनता और उपयोगिता के प्रश्न पर विचार करने का बेहतर माध्यम प्रतीत हुआ।
हास्य रस उन प्रधान रसों में से है, जिनके आधार नाट्यसाहित्य में स्वतन्त्र नाट्यरूपों की कल्पना हुई। प्रहसन में तो हास्य रस ही प्रधान है। भारतेन्दु-युग के प्रहसनों से पूर्व भी हिन्दी काव्य-साहित्य में भी हास्य रस का निरूपण बहुत समय तक संस्कृत साहित्य के आदर्श पर होता रहा। कविता में बहुधा आश्रयदाताओं अथवा दानदाताओं के प्रति कटु व्यंग्योक्तियाँ की गयी हैं, जिन्हें हास्य रस के अंतर्गत माना जाता है। गद्य साहित्य में इसकी शुरुआत भारतेन्दु-युग से मानी जाती है। इस काल से ही हास्य-व्यंग्य की छटा काव्य,नाटक, प्रहसन तथा निबंधों आदि अनेक विधाओं में दिखाई देती है। किन्तु आज़ादी के बाद व्यंग्य का एक स्वतन्त्र रूप भी विकसित हुआ। हास्य-व्यंग्य की पाँच-छ्ह पृष्ठों कहानियों और निबंधों का सर्वाधिक सशक्त प्रयोग केशवचन्द्र वर्मा ने किया। तत्पश्चात हरीशंकर परसाई, श्रीलाल शुक्ल, रवीन्द्रनाथ त्यागी, शरद जोशी मनोहरश्याम जोशी आदि बहुत से लेखकों ने लेखन के इस स्वरूप को खूब निखारा।
उर्दू के आरंभिक हास्य लेखकों में रतनानाथ सरशार ने ‘फ़साना-ए-आज़ाद’ एक महत्वपूर्ण कृति माना जाता है। उर्दू काव्य में हास्य-व्यंग्य की परम्परा में नज़ीर अकबराबादी, दाग, अकबर इलाहाबादी, फुरकत, इस्सत देहलवी, दिलावर फ़िगार, हाजी लकलक आदि अनेक कवियों ने आला दर्जे की शायरी की। उर्दू गद्द में ख्वाजा हज़न निजामी, नियाज़ फतेहपुरी, सज्जाद हैदर, मिर्ज़ा अज़ीम बेग चुगताई, रशीद अहमद सिद्दकी, पतरस बुख़ारी, मंटो और इब्ने इंशा आदि लेखकों ने हास्य-व्यंग्य को नए तेवर दिये।
व्यंग्य को आज एक विधा का दर्ज़ा जाता है किन्तु हास्य-व्यंग्य की बात आते ही अक्सर दोनों को एक ही समझा जाता है। दोनों के बीच जो बारीक अन्तर है उसे समझना अत्यंत आवश्यक है। हास्य मनुष्य का मनोभाव है आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने मनोविकार कि चर्चा में इस विषय निबंध भी लिखा। हँसना मनुष्य के जीवन की एक अनिवार्य तथा स्वाभाविक क्रिया है। हँसी-ठिठोली के लिए यह ज़रूरी नहीं है कि उसका कोई लक्ष्य अथवा प्रयोजन हो ही। मन प्रसन्न करने को हास्य भी किसी उपादान का सहारा ले सकता है। व्यंग्य को इसी प्रक्रिया का अगला चरण कहा जा सकता है क्यूँकि व्यंग्य के लिए किसी लक्ष्य की आवश्यकता होती है। व्यंग्य, हास्य रूप में किया गया प्रहार है। व्यंग्य अपनी इस प्रहार अथवा तिलमिला देने की क्षमता के कारण भाषिक हथियार का रूप ले लेता है। सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कविता इसी ओर ईशारा करती है–
व्यंग्य मत बोलो।
काटता है जूता तो क्या हुआ /पैर में ना सही
सिर पर रख डोलो। व्यंग्य मत बोलो।…
राम-राम कहो/ और माखन-मिश्री घोलो।
व्यंग्य मत बोलो। (प्रतिनिधि कविताएँ पृष्ठ-72)
ज़ाहिर है कि व्यंग्य की मारक क्षमता का ग़लत प्रयोग भी किया जा सकता है या किया जाता है। किसी को नीचा दिखाने या उपहास का पात्र बना पाना आसान हो, इसका प्रयोग समाज के कमजोर, लाचार, बेबस या हाशिये के पात्र अथवा समूह के लिए भी किया जा सकता है। इसके अनेकों उदाहरण फब्तिओं, चुटकलों के रूप में समाज या साहित्य के पात्रों में भी देखे जा सकते हैं। अभिप्राय यह है कि उपयोगिता के स्तर पर इसका घटिया रूप भी हमारे सामने आ सकता है या कहें कि आता है। साहित्य में औदात्य बिना करुणा और संघर्ष के संभव नहीं होता। समाज अथवा लोक के प्रति भावों का विस्तार करना या कहें कि दूसरों के बारे में सहानुभूतिपूर्वक सोच ही श्रेष्ठ साहित्य की रचना को संभव बनाती है। अतः व्यंग्य रचना भी वही श्रेष्ठ होगी इन भावों से परिपूर्ण हो।
व्यंग्य और हास्य दोनों में मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति – हँसना सामान्य है। किन्तु व्यंग्य विधा के संदर्भ में विचार करें तो यह स्पष्ट दिखाई देता है कि यहाँ रचनाकार अपने लक्ष्य को केंद्र में रखता है। इसलिए व्यंग्य में ज़बरदस्ती हास्य पैदा करने की कोशिश अथवा हास्य को मुख्य स्वर बनाने की कोशिश रचना में भटकाव ही पैदा नहीं करती वरन उसे उद्देश्यहीन, प्रतिगामी तथा अनुपयोगी भी बना देती है। हास्य, व्यंग्य का माध्यम होता है उसका उद्देश्य नहीं। इस विषय में प्रेम जनमेजय लिखते हैं, “व्यंग्य वस्तुतः एक सुशिक्षित मस्तिष्क की देन है और पाठक के स्तर पर भी सुशिक्षित प्रतिक्रिया की मांग करता है। वह पाठक को गुड़गुड़ाने के लिए नहीं, बल्कि कीसी विसंगति या विडंबना के उदघाटन से उसके सम्पूर्ण संस्कारों को विचलित करने की प्रक्रिया है। तभी उसमें इकहरापन नहीं होता, अभिव्यक्ति-शिल्प के अधिकाधिक उपादानों का खुलकर प्रयोग होता है। अतिशयोक्ति, विडंबना, संदर्भशीलता, पैरोडी, अन्योक्ति, आक्रोश-प्रदर्शन, एलिगेरी, फंतासी आदि इसके प्रमुख उपादान हैं।” स्पष्ट है कि व्यंग्य लेखन के पीछे लेखक का निश्चित दृर्ष्टिकोण तथा चिंतन होता है। यूँ तो साहित्य को ही “समाज का आलोचक” कहा गया है। किन्तु एक विधा के रूप व्यंग्य में विशिष्ट तरीके से समाज अथवा परिस्थितियों कि प्रत्यक्ष्य रूप में आलोचना करता है। जिसके लिए परिस्थितियों के स्पष्ट आकलन तथा समीक्षा का भाव अपेक्षित है। इसलिए जिस समय और समाज को राजनीतिक और सामाजिक विसंगतियाँ और तनाव तथा विडम्बनाएं मौजूद रहती हैं, वहाँ मात्र हास्य नही बल्कि व्यंग्य की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। साहित्य में व्यंग्य की उपस्थिति तीन रूपों में दिखाई देती है। 1- रचना में व्यंग्य, 2-टिप्पणी तथा 3- व्यंग्य रचना।
साहित्यिक रचनाओं में सामाजिक स्तिथियों की आलोचना सीधे-सीधे भी दिखाई देती है। व्यंग्य का स्वभाव ही कुछ इस तरह का है की उसके लिए मुक्तक अथवा छोटी विधाएँ ज़्यादा मुफ़ीद होती हैं। उदाहरण के लिए सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की एक कविता का देखें-
पेड़ हो या आदमी/ कोई फरक पड़ता नहीं
लाख काटे जाइए जंगल हमेशा शेष है।
क्या गज़ब का देश है यह क्या गजब का देश है।
बिन अदालत औ’मुवक्किल के मुकदमा पेश है।
प्रश्न जितने बढ़ रहे हैं/ घट रहे उतने जवाब
होश में भी एक पूरा देश यह बेहोश है।
खूँटियों पर ही टंगा / रह जाएगा क्या आदमी?
सोचता, उसका नहीं यह खूंटियों का दोष है।
इब्ने इंशा ने अपनी ग़ज़लों और कविताओं में व्यंग्य-शैली का भरपूर प्रयोग किया है। अन्याय के विरूद्ध कोई सामाजिक प्रतिरोध न होने और लोगों में व्याप्त भय की स्तिथि, लोगों की चुप्पी पर इंशा जी कहते हैं-
हक़ अच्छा पर उसके लिए कोई और मरे तो और अच्छा
तुम भी कोई मंसूर हो जो सूली पर चढ़ो, खामोश रहो
उनका ये कहना सूरज ही धरती के फेरे करता है
सर आँखों पर, सूरज को ही घूमने दो-खामोश रहो
गर्म आँसू और ठंडी आहें, मन में क्या-क्या मौसम हैं
इस बगिया के भेद न खोलो, सैर करो, खामोश रहो
साहित्यकार अपने समय की नब्ज़ पकड़ने लिए इतिहास और का परम्परा का सहारा लेता है जिससे उसके आलोचनात्मक दृष्टिकोण का निर्माण होता है। समुचित विवेकशीलता के कारण लेखक अपने वर्तमान की दशा ही नही बल्कि भविष्य की दिशा भी पहचानता है। मंटो ने अपने लेखन में व्यंग्य का जमकर प्रयोग किया है। ‘प्रगतिशील कब्रिस्तान’नामक लेख में (जो उन्होने अपनी माँ की मृत्यु के बाद मुंबई के कब्रिस्तान में जाने को ले कर लिखा था) वे अपने समय की ही बात नहीं करते बल्कि समाज के भविष्य की दिशा पर भी टिप्पणी कराते हैं। प्रगति, विकास बाज़ार, विज्ञापन, संवेदनहीनता और आर्थिक विषमता जैसे विषय पर उनकी आशंकाएँ आज सही साबित हो रही हैं। काबिस्तान में वे एक बोर्ड पर लिखी सूचनाओं को पढ़ते हैं। जिसमें क्रियाकर्म सम्बन्धी रेट-लिस्ट के साथ-साथ हिदायतें भी लिखी हैं। जिसमें यह भी लिखा है, कब्रिस्तान में किसी को रहने की इजाज़त नही है …कोई शख्श कब्रिस्तान में दंगा-फसाद न करे। अगर करेगा तो उसे पकड़ कर पुलिस के हवाले कर दिया जायेगा। मंटो कहते कि बहुत मुमकिन है कि जमाने की तरक्की के साथ इस ऐलान में सुधार भी होते जाएं और ज्यादा पैसा खर्च करनेवालों के रिशतेदारों की कब्र को एयर-कंडीशन की सुविधा भी मिलने लगे।
आज के समय में बढ़ते बाज़ार के साथ विज्ञापन और भारी छूट या सेल एक आम बात हो गयी है। मंटो बाज़ार कि इस प्रवृत्ति पर को भाँपते हुए लिखते हैं-
“आगे चलकर कब्रिस्तान वाले भी कुछ रिआयत अपने ग्राहकों को दे दिया करें। … ऐलान कर दिया जाय- ‘जो साहब साल में दो बड़ी कब्रें खुदवायेंगें, उनको एक छोटी कब्र मुफ्त खोदकर दी जाएगी’या ‘जो साहब एक वक़्त में दो कब्रें खुदवायेँगे,उनको गुलाब की दो कलमें मुफ़्त दी जाएंगी’या ‘जो लोग कफ़न-दफ़न का सामान हमारे यहाँ से खरीदेंगे उनकी कब्र का नम्बर एक खूबसूरत बिल्ले पर कढ़ा मुफ़्त मिलेगा। …कब्रों की एडवांस बुकिंग हुआ करेगी।” आनेवाले समय में बाज़ार के बढ़ते स्वरूप के साथ ही बढ़ती संवेदनहीनता की आहट इस लेख में दिखाई देती है। वे लिखते हैं-
“कब्रिस्तान की तरफ से भी ऐसे विज्ञापन छपें तो कोई ताज्जुब न होगा- शहर का सबसे आधुनिक कब्रिस्तान जहां मुर्दे उसी तरह सोते हैं, जिस तरह आप अपने नर्म-गर्म बिस्तरों में। … संस्थाएँ बन जाएंगी …संयोग से आपके नौकर को मौत आ दबोचती है। आपको उसकी मौत का बहुत अफ़सोस है।… पर आपको दोस्तों के साथ पिकनिक पर जाना है। आप तुरन्त किसी संस्था के मैनेजर को बुलायेंगे। जनाज़े के साथ संस्था के पेशेवर कन्धा देने वाले होंगे, ऊंची आवाज़ में कुरान शरीफ़ की आयतें पढ़ते हुए जाएंगे। …सागर तट पर आप बड़े इत्मीनान से अपने दोस्तों के साथ हँसते-खेलते रहेंगे और यहाँ भी हँसते-खेलते आपके नौकर की कब्र तैयार हो जाएगी।”
उपरोक्त अंशों से स्पष्ट होता है श्रेष्ठ व्यंग्य रचना तिथि से नहीं बल्कि अपनी कथ्य और तेवर से समकालीन और उपयोगी कैसे बन जाती है
इब्ने इंशा की पुस्तक उर्दू की आख़िरी किताब पूर्णतः एक व्यंग्य रचना है। यह पुस्तक उसी शैली में लिखी गई है जैसे स्कूल की पाठ्य-पुस्तक लिखी जाती है। इसमें इतिहास, भूगोल, गणित, विज्ञान, व्याकरण आदि अनेक विषयों पर पाठ तथा प्रश्नावलियाँ भी दी गई हैं। पाठ तथा प्रश्न दोनों ही व्यंग्यात्मक शैली में लिखे गए हैं। अब्दुल बिस्मिल्लाह जी के शब्दों में-
“इस‘आख़िरी किताब’ जुमले में भी व्यंग्य है, की छात्रों को जिससे विद्यारम्भ कराया जाता है वह प्रायः ‘पहली किताब’होती है, यह ‘आख़िरी किताब’है। … इंशा के व्यंग्य में जिन चीजों को लेकर चिढ़ दिखाई देती है वे छोटी-मोटी चीज़ें नही हैं। और अपनी सारी चिढ़ को वे बहुत गहन-गम्भीर ढंग से व्यंग्य में ढालते हैं।-इस तरह की पाठक को लज़्ज़त भी मिले और लेखक की चिढ़ में वह खुद को शामिल भी करे।”
इस किताब अलग-अलग विषयों पर जो कुछ लिखा गया है उसके कुछ अंश प्रस्तुत हैं-
ये भारत है। गाँधी यहीं पैदा हुए थे। यहाँ उनकी बड़ी इज़्ज़त होती थी। उनको महात्मा कहते थे। चुनांचे मारकर उनको यहीं दफन कर दिया और समाधि बना दी। …अगर गाँधीजी न मारे जाते तो पूरे हिंदुस्तान में अक़ीदतमंदों के लिए फूल चढ़ाने के लिए कोई जगह न थी। यह मसला हमारे यानी पाकिस्तानवालों के लिए भी था। हमें क़ायदे आज़म का ममनून होना चाहिए कि वे खुद ही मर गए और सेफारती (पर्यटक) नुमाइन्दों की फूल चढ़ाने की एक जगह पैदा कर दी। वरना शायद हमे भी उनको मारना ही पड़ता। (पृष्ठ-27)
अंग्रेजों ने कुछ अच्छे काम भी किए। लेकिन उनके जमाने में खराबियाँ भी बहुत थी। जो उनकी हुकूमत के खिलाफ़ बोलता था या लिखता था उसको जेल भेज देते थे। घूसख़ोरी आम थी, आजकल नही है। दुकानदार चीज़ें मंहगी बेचते थे और मिलावट करते थे… अमीर और जागीरदार ऐश करते थे। गरीबों को कोई पूछता भी नही था। आज अमीर लोग ऐश नही करते और गरीबों को हर कोई इतना पूछता है कि वे तंग आ जाते हैं। अंग्रेज़ शुरू-शुरू में हमारे दस्तकारों के अंगूठे काट देते थे। आज कारखानों के मालिक हमारे अपने लोग हैं, दस्तकारों के अंगूठे नहीं काटते। हाँ, कभी-कभी पूरे दस्तकार को काट देते हैं। आज़ादी से पहले हिन्दू बनिये और सरमायादार हमें लूटा करते थे। हमारी ख़्वाहिश थी कि यह सिलसिला खत्म हो और हमें मुसलमान बनिए और सेठ लूटें। अलहमदुलिल्लाह ! कि यह आरज़ू पूरी हुई। (पृष्ठ-22)
जुगराफिया में सबसे पहले यह बताया जाता है की दुनिया गोल है। एक ज़माने में बेशक यह चपटी होती थी, फिर गोल करार पायी गयी। गोल होने का फ़ायदा यह है कि लोग मशरिक़ की तरफ से जाते हैं, मग़रिब की तरफ जा निकलते हैं। कोई उनको पकड़ नहीं सकता। स्मगलरों,मुजरिमों और सियासतदानों के लिए बड़ी आसानी हो गई है।… गैलीलियो नामक एक शख्स आया और उसने ज़मीन को सूरज के गिर्द घुमाना शुरू कर दिया। पादरी बहुत नाराज़ हुए कि यह हमको किस चक्कर में डाल दिया है। गैलीलियो को तो उन्होने सज़ा देकर आईन्दा इस किस्म की हरकात से रोक दिया, ज़मीन को अलबत्ता नही रोक सके। (पृष्ठ-25)
दूसरा फरीक़ कहता है कि नही, कोलम्बस ने जानबूझकर यह हरकत की, यानी अमरीका दरियाफ़्त किया। बहरहाल अगर ये ग़लती भी थी तो बहुत संगीन ग़लती थी। कोलम्बस तो मर गया, उसका खमियाज़ा हम लोग भुगत रहे हैं। (पृष्ठ- 25)
अकबर अनपढ़ था। बाज़ लोगोंको गुमान है कि अनपढ़ होने की वजह से ही इतनी उम्दा हुकूमत कर गया। उसके दरबार में पढ़े-लिखे नौकर थे। नवरत्न कहलाते थे। यह रिवायत उस ज़माने से आजतक चली आती है कि अनपढ़ लोग पढ़े-लिखों को नौकर रखते हैं और पढ़े-लिखे इस पर फख्र करते हैं। (पृष्ठ-67)
माद्दे (पदार्थ) की किस्में — ठोस का मतलब है ठोस। जैसे ठोस दलीलें, ठोस कदामात, ठोस नताएज वगैरा।… सबसे ठोस दलील अबतक लाठी ही साबित हुई है, भैसों के लिए भी, इन्सानों के लिए भी। ठोस एकदामात इतने ठोस होते हैं की कभी किए नही जाते बस हुकूमतें उनके ठोस वादे किया करती है।… ठोस अश्या (चीज़ें) अपनी शक्ल नहीं बदलतीं, हाँ दूसरों की बदल देती हैं। पत्थर ठोस है, जैसा है वैसा ही रहता है। लेकिन किसी आदमी को लगे तो वह कैसा ठोस क्यों न हो उसमें से मायअ (द्रव्य) और गैस वगैरा निकलने लगते हैं। द्रव्य-आँसू , गैस – जैसे आहें, गालियाँ वैगरा। (पृष्ठ- 111)
तफ़रीक़ (घटाना)
मैं सिंधी हूँ , तू सिंधी नहीं है।
मैं बंगाली हूँ, तू बंगाली नहीं है।
मैं मुसलमान हूँ, तू मुसलमान नही है।
इसको तफ़रीक़ पैदा करना कहते हैं।
हिसाब का यह क़ायदा भी क़दीम जमाने से चला आ रहा है।
तफ़रीक़ का एक मतलब है मिन्हा करना।
यानी निकालना एक अदद में से दूसरे अदद को।
बाज़ अदद अज़खुद निकल जाते हैं।
बाज़ों को ज़बरदस्ती निकालना पड़ता है।
डंडे मारकर निकालना पड़ता है।
फ़तवे देकर निकालना पड़ता है। (पृष्ठ- 96)
हरारत का मतलब है गर्मी। हरारत नापने का आला थरमामीटर कहलाता है। आदमी भी इसी उसूल पर काम करता है। पैसे वाले ग़रीबों की मुतालिबात (इच्छाएं) सुनते है गर्मी खाते हैं और उनका पारा चढ़ जाता है। हरारत से चीज़ें फैलती हैं, इसकी बहुत सी मिसालें हैं एक आप भी जानते होंगें कि जब किसी की मुट्ठी गर्म न की जाए, काम नही करता। (पृष्ठ-115)
गुरुत्वाकर्षण— यह न्यूटन ने दरयाफ़्त की थी। गालेबान उससे पहले नहीं होती थी। न्यूटन उससे दरख्तों से सेब गिराया करता था। आजकल सीधी पर चढ़ कर तोड़ लेते हैं। आपने भी देखा होगा कि कोई शख़्स हुकूमत की कुर्सी पर बैठ जाए तो उसके लिए उठना मुश्किल हो जाता है। लोग ज़बरदस्ती उठाते हैं। (पृष्ठ- 115)
रौशनी बड़ी अच्छी चीज़ है। रौशनी पैदा करने के कई ज़राए हैं। मोमबत्ती, बल्ब, लालटैन और सूरज वगैरा। सूरज रौशनी तो खूब देता है, लेकिन दिन में उसका निकालना बेफायदा है। दिन में तो वैसे भी रौशनी होती है। … रौशनी की रफ़्तार एक लाख छियासी हजार मील फ़ी घण्टा है। अंधेरे की रफ़्तार कभी नापी नही गई। आप उसकी रफ़्तार रौशनी कि रफ़्तार से कुछ ज़्यादा ही समझिए। अंधेरे को तारीकी भी कहते हैं और जुल्मात भी। (पृष्ठ-120)
सवाल – हमारे मुहल्ले कि सड़कों पर हमेशा अंधेरा रहता है। उसकी वजह पर रौशनी डालो।
यह अख़बार वाला बड़ा निडर है।
बातिल (झूठ) से नहीं डरता।
लोगों से नहीं डरता।
कभी-कभी खुदा से नही डरता।
बस सरकार से डरता है।
बड़ा अच्छा करता है। (पृष्ठ- 148)
उपरोक्त अंश व्यंग्य के उत्कर्ष के उदाहरण हैं। जिनसे साबित होता है साहित्य की अन्य विधाओं की भाँति व्यंग्य भी अपने समय और समाज से ही नही जुड़ता बल्कि वह देश-काल आदि की सीमाओं को भी लाँघता है। इस रूप में वह समाज के कमजोर तबक़े का मनोरंजन मात्र नहीं रहता बल्कि सम्पूर्ण समाज की सच्चाई और विसंगतियों को भी उघाड़ कर रख देता है। व्यंग्यकार कई बार एक मुखौटा पहनकर आता है और दोषियों पर शब्द-बाणों की वर्षा करते हुए सभ्यता-समीक्षक का काम कर जाता है। यदि व्यंग्यकार को समाज का ऑपरेशन करने वाला सर्जन कहा जा सकता है। यह उनकी कृति से ही तय होता है मरीज़ की हालत सुधरेगी या वह और अधिक मरणासन्न हो जाए। यही व्यंग्य और उपहास के बीच का अन्तर होता है। नज़रिए का अन्तर होता है। यह तय होता है इस बात से कि व्यंग्यकार किसके पक्ष में खड़ा है। एक प्रकार का ढोंग रचते हुए भी व्यंग्यकार ढोंग को दूर ही करता है। इब्ने इंशा के ही लफ़्ज़ों में कहें–
फ़र्ज़ करो ये जी की बिपता, जी से जोड़ सुनाई हो
फ़र्ज़ करो अभी और हो इतनी, आधी हमने छुपाई हो
फ़र्ज़ करो ये जोग बिजोग का हमने ढोंग रचाया हो
फ़र्ज़ करो बस यही हक़ीक़त बाकी सब कुछ माया हो
-इति –
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