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चुनाव के बाद इवीएम मशीनों के ऊपर सवाल क्यों उठते हैं?

आज यूपी विधानसभा चुनावों के बाद मायावती ने इवीएम मशीनों के ऊपर सवाल उठाया है. इवीएम मशीनों के ऊपर पहली बार सवाल नहीं उठाया गया है. 2009 में लोकसभा चुनावों में हार के बाद भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने भी वोटिंग मशीनों के ऊपर सवाल उठाये थे. भाजपा के सेफोलोजिस्ट नेता जी.वी.एल. नरसिम्हा राव ने एक किताब भी लिखी थी ‘डेमोक्रेसी ऐट रिस्क’, जिसमें बड़े शोधपूर्ण तरीके से उन्होंने यह दिखाने की कोशिश की थी कि किस तरह वोटिंग मशीनों के माध्यम से चुनाव परिणामों को प्रभावित किया जा सकता है. बाद में भाजपा ने इस मुद्दे को छोड़ दिया. खुद चुनावों में उसको बहुत सीटें आने लगी. बहरहाल, जी. वी. एल. नरसिम्हा राव की उसी किताब का एक अंश हिंदी अनुवाद में देखिये- मॉडरेटर

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शाश्वत चौकसी स्वतंत्रता की कीमत है- थॉमस जेफरसन

१९८२ के चुनावों में Electronic voting machines (EVMs) की शुरुआत प्रायोगिक तौर पर सीमित रूप में की गई थी, और सार्वभौमिक तौर पर वे २००४ के आम चुनावों से उनका प्रयोग हो रहा है जब paper ballots का पूरी तरह से अंत कर दिया गया. इसलिए अब ऐसा कह पाना संभव है कि पुराने दौर की वे भयानक कहानियां- गलत तरीके से बनाये गए मतपत्र, मतदाता का बदल जाना, booth capturing आदि पुरानी यादें बन चुकी हैं, और यह कि हम स्वच्छ, मुक्त, तथा ईमानदार चुनाव के नए महान दौर में प्रवेश कर चुके हैं? यद्यपि Election Commission of India हमें यह मनवा देना चाहता है, लेकिन जमीनी तौर पर यथार्थ काफी अलग और परेशान करनेवाला है. यह ध्यान रखने वाली बात है कि इस दौरान EVMs का दुनिया के अनेक देशों में व्यापक स्तर पर प्रयोग होने लगा, विशेषकर अमेरिका तथा पश्चिमी यूरोप में. लेकिन उनका अनुभव अच्छा नहीं रहा. हर जगह, electronic voting systems की इस कारण नागरिक समूहों के द्वारा, IT experts, वकीलों एवं अकादमिक समूहों द्वारा आलोचना हुई कि उसमें निष्ठा, पारदर्शिता, परीक्षणीयता और विवादों के मामले में उचित पुनर्मतदान संबंधी अनुमति के न्यूनतम मानकों का पालन नहीं किया जाता.

१००० से अधिक अंतरराष्ट्रीय तकनीकी विशेषज्ञों के समूह ने ‘Resolution on Electronic Voting’ के माध्यम से स्पष्ट तौर पर इस बात के ऊपर जोर दिया है कि: ‘चुनावों की सत्यनिष्ठ को खुलेपन और पारदर्शिता के बिना सुनिश्चित नहीं किया जा सकता. लेकिन voter-verifiable ballots(मतदान के भौतिक सबूत के बिना) चुनाव खुला और पारदर्शी नहीं हो सकता: मतदाता यह नहीं जान सकता कि जो मत बताया गया है वह वही है जो उसने दिया था, न ही प्रत्याशी या अन्य चुनाव की अचूकता को लेकर लेकर मतदान तथा मतगणना की प्रक्रिया के अवलोकन मात्र से आत्मविश्वास प्राप्त कर सकते हैं.’

मतदान को दर्ज करने में हुई गड़बड़ी का पता लगाने या इन मशीनों के माध्यम से जान-बूझकर चुनाव में rigging का पता लगाने का कोई विश्वसनीय जरिया नहीं है. इसलिए, इन मशीनों के उपयोग द्वारा आयोजित किसी भी चुनाव का परिणाम प्रश्नों के लिए खुला रहता है.’  http://www.verifiedvotingfoundation.org The Federal Constitutional Court of Germany(जो भारत के उच्चतम न्यायालय के समतुल्य है) ने मार्च, २००९ में अपने एक ऐतिहासिक फैसले में electronic voting को असंवैधानिक करार दिया क्योंकि औसत नागरिकों से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे electronic voting machines द्वारा मतों को दर्ज करने तथा उनके मिलान की प्रक्रिया में शामिल चरणों को समझ सकें. अदालत के इस फैसले के बाद जर्मनी ने electronic voting machines को प्रतिबंधित कर दिया.

हॉलैंड और आयरलैंड ने भी EVMs को त्याग दिया और paper ballots की प्रक्रिया को अपना लिया. और हमारे क्षेत्र में विकसित तथा तकनीकी तौर पर उन्नत देश जैसे जापान एवं सिंगापुर अभी भी paper ballot voting पर ठहरे हुए हैं, इसका कारण यह है कि यह सरल है, इसका परीक्षण संभव है तथा इस व्यवस्था में मतदाताओं का विश्वास है.

आज Electronic Voting Machines की विश्वसनीयता तथा चुनावी नतीजों की सत्यनिष्ठा दुनिया भर में जबर्दस्त राजनीतिक बहस तथा मीडिया के सूक्ष्म परीक्षण के दौर से गुजर रहा है.

प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय प्रकाशनों, the Newsweek पत्रिका तथा the New York Times में हाल में प्रकाशित दो रपटों के अंशों से यह पता चलता है इसको लेकर किस प्रकार का जनमत प्रचलित है:

हम मशीनों पर विश्वास नहीं करते; लोगों ने इलेक्ट्रौनिक मतदान को ख़ारिज किया

द्वारा Evgeny Morozov, २३ मई, २००९ को प्रकाशित

e-voting (on electronic voting machines) के खिलाफ माहौल पूरे महादेश(यूरोप) में बन रहा है… अमेरिका के राज्यों तथा स्थानीय संस्थाओं (local governments) में भी यूरोपीय सरकारों की तरह धीरे-धीरे e-voting को लेकर धीरज खोते जा रहे हैं. मतदाताओं की इस मांग को औचित्यपूर्ण कहा जा सकता है कि e-voting को ही समाप्त कर दिया जाए. इस समय, इसको पसंद करने के कारण बहुत कम हैं.

सम्पादकीय

Electronic Voting पर किस प्रकार विश्वास करें

प्रकाशित: २१ जून, २००९

Electronic voting machines जो प्रत्येक किए गए मतदान का कोई paper record नहीं देता उसके ऊपर विश्वास नहीं किया जा सकता है… paperless electronic voting में मतदाता अपनी प्राथमिकताओं को चिन्हित कर देते हैं, और जब मतदान हो जाता है तब मशीन परिणाम देता है. इस बात को सुनिश्चित करने का कोई उपाय नहीं है कि किसी तरह गलती ना हो या malicious software या  computer hacking के माध्यम से intentional vote theft के द्वारा परिणाम को न बदला जा सके. कुछ मामले मायने रखते हैं तथा यह सुनिश्चित भी करते हैं कि चुनाव परिणामों के ऊपर विश्वास किया जा सकता है. अमेरिका के ५० में से ३२ राज्यों ने इस संबंध में कानून बनाकर अनिवार्य कर दिया है कि प्रत्येक मतदान के लिए verifiable physical record हो. अन्य छह राज्य भी इसी सुरक्षा उपाय का अनुसरण कर रहे हैं, हालांकि उनके कानून के अनुसार यह अनिवार्य नहीं है. २००५ की एक रपट जिसका शीर्षक है Building Confidence in U.S. Elections, में Jimmy Carter (अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति) तथा James Baker III (पूर्व secretary of state), जो bipartisan Commission on Federal Election Reform के सह-अध्यक्ष हैं ने सुझाव दिया कि समस्त  electronic voting machines को निम्नलिखित कारणों से voter-verifiable paper audit trail से लैस होना चाहिए.

क) नागरिकों का विश्वास इस बात में बढाने के लिए कि मतों की जो गणना हुई है वह अचूक है

ख) पुनर्मतदान की अनुमति देता है

ग) मतों के खो जाने या मशीन की गड़बड़ी की अवस्था में उसका       back up रहता है

घ) परीक्षण किया जा सकता है- मशीनों के औचक चुनाव के माध्यम से इस बात का परीक्षण संभव है कि कागजों में भी परिणाम वही है जो electronic result है.

स्वतंत्र विशेषज्ञ इस बात को मानते हैं कि भारतीय EVMs इनमें से किसी मानदंड पर खरे नहीं उतरते. और इन आधारों पर चिंता किसी भी तरह से सैद्धांतिक या अकादमिक नहीं हैं. काफी मात्र में शिकायतें जमीनी स्तर पर साधारण मतदाताओं द्वारा, सर्वत्र राजनीतिक दलों द्वारा, तथा चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों द्वारा की जाती रही हैं कि उनके हिस्से के मत को गलत तरीके से रोका गया. शिकायतों, Right to Information (RTI) Act के अंतर्गत सूचना के अनुरोध, चुनाव याचिकाएं एवं कानूनी चुनौतियाँ जो विभिन्न उच्च न्यायालयों तथा उच्चतम न्यायलय में दायर की गईं, उनके प्रति Election Commission of India (ECI) ने व्यवस्थित ढंग से उदासीनता दिखाई, जो यही कहता है कि अनूठे एवं ‘tamper-proof’ हैं.

सच्चाई, हालांकि, यह है कि न केवल हमारे  EVMs, दुनिया के अन्य किसी EVMs, की तरह external hackers द्वारा कई तरीके से गुप्त रूप से बदलाव किए जाने की सम्भावना वाले होते हैं, लेकिन अधिक घातक और हमेशा मौजूद रहने वाला खतरा जो है उसे चुनाव आयोग मानने से इनकार करता है वह है ‘insider fraud’- जिन हजारों अधिकृत कर्मियों की पहुँच मशीनों तक होती है उनमें से किसी के द्वारा. इनमें मशीन के भारतीय डेवलपर्स तथा निर्माता, इसके अवयवों की आपूर्ति करने वाले आपूर्तिकर्ता जिनमें विदेसी कम्पनियाँ भी शामिल हैं जिनको सुरक्षा की दृष्टि से संवेदनशील काम दिया जाता है सॉफ्टवेयर को फ्यूज करने का काम जो वे उनके द्वारा सूत्रित किए गए microchips पर करते हैं, स्थानीय अधिकारी, चुनाव से पहले चुनाव के दौरान तथा चुनाव के बाद मशीन जिनकी संरक्षण में रहते हैं, वे तकनीशियन जिनके ऊपर देखभाल, मरम्मत एवं परीक्षण की जिम्मेदारी होती है, आदि, आदि. इस पुस्तक में जो स्थल रपटें दी गईं हैं उनके आधार पर यह संकेत मिलता है कि insider fraud की इसमें पूरी गुंजाइश रहती है.

हमारी प्रतिनिधात्मक जनतंत्र की व्यवस्था में, केवल चुनाव वह अवसर प्रदान करता है जब व्यक्ति अपनी संप्रभु सत्ता का सीधे तौर पर उपयोग करता है. उसके तत्काल बाद यह सत्ता निर्वाचित प्रतिनिधियों के पास चली जाती है. अगर इस पवित्र सत्ता को मतदान की एक ऐसी व्यवस्था के द्वारा दूषित किया जाए जिसकी सत्यनिष्ठा संदिग्ध हो और जिसमें अंदरूनी धोखाधड़ी के लिए स्थान हो तो यह इस बात का प्रमाण है कि हमारा लोकतंत्र गंभीर रूप से खतरे में है. इस मसले से जुड़े तथ्यों तथा मुद्दों को लेकर आम आदमी में अपर्याप्त सराहना का भाव नहीं है तथा यह महत्वपूर्ण ढंग से उनकी चिंता का कारण बना हुआ है- मुख्यतः इस कारण है कि कुछ भी तकनीकी होता है उसके साथ एक रहस्यात्मकता का तत्व जुड़ा होता है, और चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था में अन्तर्निहित विश्वास का भाव है. दुःख की बात यह है कि इस मामले में राष्ट्रीय मीडिया आत्मसंतुष्टि का भाव है. हालांकि, स्थानीय मीडिया में इसको लेकर विस्तृत तथ्यात्मक रपटें आती रही हैं लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर इसको लेकर चर्चा नहीं होती.

यह पुस्तक सूचना तथा जागरूकता के बीच की खाई को पाटने के उद्देश्य से लिखी गई है. उम्मीद की जाए की यहां जिन मुद्दों को उठाया गया है वे राष्ट्रीय बहस के मुद्दे बनेंगे, जिससे परिष्कृत एवं पूर्ण पारदर्शी, परिक्षणीय एवं जिम्मेदार मतदान व्यवस्था की दिशा में पहलकदमी होगी.

इस साल भारत का चुनाव आयोग अपनी हीरक जयंती मना रहा है. भारतीय जनता की गहरी रूचि इस बात में है यह साल इस तरह समाप्त हो कि जश्न मनाने के लिए कुछ ठोस हो, परिष्कृत मतदान व्यवस्था के रूप में और न कि यह एक गुजरते साल का एक उत्सव भर बन कर रह जाए.

 
      

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