युवा शायर सीरीज में आज पेश है मुदिता रस्तोगी की ग़ज़लें – त्रिपुरारि
ग़ज़ल-1
सुनो एक बात थी जो तुमसे कहनी थी…चलो छोड़ो
है छोटी उम्र और है दास्ताँ लम्बी, चलो छोड़ो
उठा कर, खेल कर, दिल तोड़ कर देखे कई उसने
पता की क़ीमतें सबकी के फिर बोली, चलो छोड़ो
यही बस सोच कर मैंने अधूरी हर ग़ज़ल छोड़ी
तुम आओगे मुक़म्मल हो ही जायेगी, चलो छोड़ो
वो बोसा लेने आये होंठ तक और हंस के यूं बोले
के लो जाओ तुम्हारी ज़िंदगी बख़्शी, चलो छोड़ो
ग़ज़ल-2
हमें अब रहा क्या है ऐसे में सुनना
बुला कर कहा उसने कमरे में…सुनना
वो गूंगा जो बाज़ार में घूमता है
बहुत बोलता है अकेले में सुनना
करें शोर कितना ये अल्हड़ उजाले
मुझे सुनना हो तो अँधेरे में सुनना
वही माँ ज़ुबाँ जिसकी खुलती नहीं है
कभी उसकी आवाज़ चौके में सुनना
कभी सुनना पॉकेट में नोटों की खुसफुस
खनक सिक्कों की फिर कटोरे में सुनना
मुहब्बत, ख़ुदा, मौसिक़ी हर जगह है
है इक ताल दो के पहाड़े में, सुनना
ग़ज़ल-3
पियाले से जो देखूँ तो ज़मीं सीधी लगे है
हो अम्बर ज़ेर-ए -पा तस्वीर ये अच्छी लगे है
मेरी बदसूरती ने हुस्न जानां तुझको बख़्शा
के मेरे साथ ही सूरत हसीं तेरी लगे है
तेरा पहलू में होना भी तो कम आफ़त नहीं है
के बदलूँ जो ज़रा करवट तेरी कुहनी लगे है
बुहारें आँधियाँ आँगन औ’ छत सब अब्र धोवें
ये सावन भी तेरे आने की तैयारी लगे है…
ग़ज़ल-4
जाने क्या क्या पाया हमने जाने क्या क्या छोड़कर
इक किनारे आ गए हैं इक किनारा छोड़कर
लौटते क़दमों से मेरे लग समंदर रो पड़ा
जा रहे हो वस्ल की शब् जान प्यासा छोड़कर
हम दीवानों की बदौलत चल रहा बाज़ार ये
जाओ तुम भी जाओ मेरे सर ख़सारा छोड़कर
देख कर हालत मेरी हैरानगी से बोले वो
हम तो तुमको जां गए थे अच्छा खासा छोड़कर
तुम गए जबसे कैलेंडर मेरा छोटा हो गया
सब है इसमें मार्च का वो इक महीना छोड़कर
अब किसी भी काम का छोड़ा न हमको आपने
क्या कहें छोड़ा ही क्या है दिल हमारा छोड़कर
बहुत खूब मुदिता, यूँ तो कई ग़ज़ल सुन चुकी थी, दोबारा पढ़कर अच्छा लगा…
शुक्रिया सुनीता जी 🙂