युवा शायर सीरीज में आज पेश है विकास शर्मा ‘राज़’ की ग़ज़लें – त्रिपुरारि
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ग़ज़ल-1
चल रहे थे नज़र जमाये हम
मुड़ के देखा तो लड़खड़ाये हम
खोलता ही नहीं कोई हमको
रह न जाएँ बँधे-बँधाये हम
प्यास की दौड़ में रहे अव्वल
छू के दरिया को लौट आये हम
एक ही बार लौ उठी हमसे
एक ही बार जगमगाये हम
जिस्म भर छाँव की तमन्ना में
‘उम्र भर धूप में नहाये हम’
ग़ज़ल-2
पसे-ग़ुबार आई थी सदा मुझे
फिर उसके बाद कुछ नहीं दिखा मुझे
मैं ख़ामुशी से अपनी सिम्त बढ़ गया
तिरा फ़िराक़ देखता रहा मुझे
मुक़ाबला किया ज़रा-सी देर बस
फिर उसके बाद शेर खा गया मुझे
ये और बात रात कट गयी मगर
तिरे बग़ैर डर बहुत लगा मुझे
वो एक शाम रायगां चली गयी
उस एक शाम कितना काम था मुझे
मगर मैं पहले की तरह न बन सका
उधेड़ कर जो फिर बुना गया मुझे
ये शह्र रात भर जो मेरे साथ था
सहर हुई तो दूसरा लगा मुझे
जो तंज़ कर रहे थे दोस्त थे तिरे
तिरा न टोकना बुरा लगा मुझे
कई दिनों से कुछ ख़बर नहीं मिरी
मैं हूँ भी या नहीं, पुकारना मुझे
ग़ज़ल-3
अब ग़ार में पाँव धर रहे हैं
हम किसकी तलाश कर रहे हैं?
सम्तों की ख़बर नहीं किसी को
सब भीड़ में से गुज़र रहे हैं
रात इतनी सियाह भी नहीं है
हम लोग ज़ियादा डर रहे हैं
ग़ज़ल-4
न काँटे हैं न है दीवार अब के
मिरे रस्ते में है बाज़ार अब के
उसे इग्नोर करके बढ़ गया मैं
किया मैंने पलट कर वार अब के
मिरी नज़रों में है हर चूक उसकी
मिरा दुश्मन भी है हुशियार अब के
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