आजकल ऐसा फील गुड माहौल है कि कोई कुछ भी लिख दे कोई उसकी परवाह नहीं करता. पत्रकारिता के नाम पर जमकर पीआर किया जा रहा है किसी को कोई परवाह नहीं. ऐसे में पत्रकारिता में पीएचडी, गंभीर अध्येता और मीडियाकर्मी अरविन्द दास की यह टिपण्णी पढ़िए. देखिये कि वे कितनी गहराई से समकालीन पत्रकारिता पर नजर रखते हैं- मॉडरेटर
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पिछले कुछ वर्षों में पत्रकारिता में येलो जर्नलिज्म, एमबेडेड जर्नलिज्म के अलावे एक नया टर्म भी सुनाई देने लगा है-कैलेंडर जर्नलिज्म! जिसका मतलब किसी सेलिब्रिटी के जन्म दिवस, स्मृति शेष, एनिवरसरी आदि को देख कर लेख, फीचर लिखना या कोई कार्यक्रम प्रोडूयस करना है.
जब पत्रकारिता में न्यूज का मतलब ही मनोरंजन हो गया हो तो इस तरह की पत्रकारिता पर किस पत्रकार-संपादक को भला आपत्ति होगी! पर जब कोई लेखक-समीक्षक इस कैलेंडर जर्नलिज्म के मुताबिक लेख लिखे और उसे राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित कोई वेबसाइट प्रकाशित करे तो लेखक-संपादक से अपेक्षा होती है कि एक बार उसे पब्लिक स्फीयर में लाने से पहले देख-परख ले, संपादित कर ले. और संभव हो तो सुधार ले. पर इस भागमभाग पत्रकारिता के दौर में किसके पास फुरसत है.
बहरहाल, पिछले दिनों फिल्म समीक्षक और लेखक मिहिर पांड्या ने अपने फेसबुक वॉल पर एक अपना लिखा लेख शेयर किया (http://www.thelallantop.com/bherant/sneha-khanwalkar-music-director-of-gangs-of-wasseypur-oye-lucky-lucky-oye-and-khoobsurat-birthday-spacial/) जिसे पिछले साल लल्लन टॉप ने छापा था (इपंले भी लल्लन टॉप के लिए लेख-टिप्पणी आदि लिखता रहा है). यह लेख स्नेहा खानवलकर के फिल्मी संगीत में योगदान के बरक्स उनके जन्मदिन को ध्यान में रख कर लिखा गया है और 28 अप्रैल को मिहिर ने फिर से सेलिब्रेट करते हुए शेयर किया. निस्संदेह, स्नेहा नए दौर की उभरती हुई संगीतकार है जिन्होंने फिल्मी संगीत में लोक धुनों का जम कर इस्तेमाल किया है .पर मिहिर पांड्या ने जिस तरह से उनकी संगीत यात्रा की समीक्षा की है वह समीक्षा के नए प्रतिमान गढ़ता प्रतीत होता है.
मिहिर ने लिखा है कि ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में जब स्नेहा ने वुमनिया गाने को संगीत में पिरोया तब ‘वुमनिया नए समय का एंथम’ बन गया. पर यह एंथम कैसे बन गया यह लेख पढ़ कर स्पष्ट नहीं हो पाया. सच में ऐसा है क्या? कम से कम उत्तरी बिहार के हमारे इलाके में अभी भी शादी-विवाह या अन्य मौके पर शारदा सिन्हा या भोजपुरी गाने की ही धूम है!
मिहिर आगे लिखते हैं कि ‘इस गीत की बदमाशी में एक पवित्रता है’. कहने को तो कुछ भी लिखा-कहा जा सकता है, पर चूँकि मिहिर जैसे सुधी समीक्षक लिख रहे हैं तो मैं सोचने लगा कि बदमाशी और पवित्रता का क्या नाता है (जैसे निष्ठा का विष्ठा के साथ)? खिलंदड़ापन इस गीत के बोल में हैं (कनिया, पटनिया, चौन्निया, वूमनिया आदि), जिसे वरुण ग्रोवर ने लिखा है जो तुकबंदी के अलावे कुछ नहीं. संगीत भी सामान्य ही है, मेरी समझ में. ढोलक की थाप की प्रमुखता है.
हां, इस गीत में मुख्य गायिका रेखा झा का स्वर निस्संदेह उभर के आता है. वैसे, मिथिला में (जहाँ की रेखा झा है) आज भी लोक में गीत-संगीत की पंरपरा है और यह सामूहिकता को लिए ही होता है. पर मिहिर लिखते हैं-स्त्री स्वर की सामूहिकता जैसे उसे आज़ाद कर देती है. लोक में कला सामूहिकता में ही आकार पाती है. इसमें विशिष्ट जो कुछ भी है वह सबका है. और कला तो आज़ाद ही करेगी, बांधेगी नहीं. मिथिला में नई वधूएँ आज भी जब गौने के बाद आती हैं तो उन्हें गाना गाना पड़ता है. और फिर कोरस में दियादनी-गोतनी, ननद-सास की आवाज़ शामिल होती है.
इसी तरह लेख में मिहिर ‘एलएसडी’ फिल्म के गीत ‘आई कांट होल्ड इट’ को गर्ल्स हॉस्टल्स का ‘नेशनल एंथम’ कहते हैं. इसे स्नेहा ने गाया भी है. क्या कोई किसी गाने के लिए ‘नेशनल एंथम’ विशेषण का इस्तेमाल कर सकता है. क्या कोई और विशेषण हिंदी के शब्दकोष में नहीं बचे हैं! स्नेहा के अगले शाहकार के लिए कौन सा विशेषण बचेगा फिर. ले-दे के तो एक ही नेशनल एंथम है हमारे पास!
और अंत में ‘इस गीत को गाने के लिए मिहिर स्नेहा को’ ग्रैमी, ऐमी टाइप कोई पुरस्कार’ दिए जाने की सिफारिश कर रहे हैं. पता नहीं, फिर देरी क्यों हो रही है.
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