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प्रकाश के रे की कविताएँ

कविता को हृदय का उद्घोष माना गया है। लेकिन कवि आज के दौर में घोषित रूप से निकृष्ट व्यक्ति है और कविता साहित्य के निचले पायदान पर सिसकियाँ भरती है। कविताओं का मूल्य संसार की तुच्छतम वस्तुओं से भी हीन है। कविताएँ अब क्रांति कर पाने में सक्षम नहीं हैं। भाषा के बंधन में जकड़ी हिंदी कविता स्वयं तक को ललकार पाने में अक्षम है। कविता मात्र सर झुकाए अवहेलना को झेलती है। इन्हीं विचारों को मथते हुए ‘तहख़ाने से कविता-पाठ’ किया है प्रकाश के रे ने| प्रकाश पत्रकार हैं, साहित्य और कला के रसिक हैं तथा फिल्मों पर शोध कर चुके है। आइए पढ़ते
हैं कुछ कविताएँ – दिव्या विजय
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तहख़ाने से कविता-पाठ
1. 
बेचारे कवि
सदैव की भाँति पुनः
निशाने पर
कोई नहीं टोकता
ज्ञान व व्याख्यान के ड्रोनीय हमलों को
टिप्पणीकारों के टिड्डी-दल को
गद्य के गदाधारियों कोकवि, तू रच
कर भच भच
झूठ या सच
नच नच नच
लच लच लच
पच अपच सुपच

2.
गर्म होती धरा
और परिवर्तित होते जलवायु के
इस घोर कलयुग में
दस्तावेज़ बने कार्बन फूटप्रिंट्स के
खेती से लेकर उद्योग तक
सिगरेट से शराब तक
सबसे उत्सर्जित होते कार्बन का हिसाब लगाया गया
किसी ने दर्ज़ नहीं किया
कविताई से पैदा हुए कार्बन का
तब भी नहीं जब कवितायें रह गयीं
महज कार्बन कॉपियाँ
आह! अवहेलने!

3.
छपती रहीं कवितायें
जमती रहीं गोष्ठियाँ
पढ़ा किसने
सुना किसने
इसकी सूचना हालिया जनगणना के आँकड़ों में नहीं है
नेशनल सर्वे सैंपल में भी यह नहीं बताया गया
कि एक दशक में रचित कविताओं की कुल संख्या क्या है
ऐसे में बजट में कवियों के लिए आवंटन कर पाना
वित्त मंत्री के लिए बहुत कठिन था

4.
आँखों से बही थी कविता
सर्वप्रथम
क़स्बे के अख़बार के आख़िरी अंक में
बतौर संपादकीय छपी थी
अंतिम कविता
शास्त्रों ने उस दिन से सतयुग का आरंभ माना है

5.
किसी ने नहीं कहा
कि यह पेंटिंग इस या उस भाषा की है
भाषा के आधार पर चिन्हित नहीं किया गया
संगीत की स्वर-लहरियों को भी
हिंदी कविता को भी नोबेल पुरस्कार मिल सकता था
अगर वह हिंदी में नहीं होती
तरुण से अनंत तक विजय की लालसा हद में दम तोड़ देती है

 
      

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