राजकमल प्रकाशन से इस साल कई युवा कवियों के संकलन आए हैं. इनमें एक अलग तरह का कवि समर्थ वशिष्ठ है. उनकी कविताओं का संग्रह है ‘सपने में पिया पानी’. वे अंग्रेजी में भी कविताएँ लिखते हैं. हिंदी में यह उनका पहला कविता संकलन है. उसी संग्रह से बिना कुछ अतिरिक्त कहे दस कविताएँ. इस कवि की रेंज देखिये और भाषा के प्रति उसका आत्मीय बर्ताव. निश्चित रूप से हिंदी कविता में उपलब्धि हैं उनकी कविताएँ- मॉडरेटर
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इराक़, एक प्रार्थना
मेरी
धूसर-हरी
ज़मीन पर
वज्रपात
गड़गड़ाहट
चुप्पी
रक्त
मेरी
धूसर-हरी
ज़मीन पर
पास्ता, कैचॅप
भागम-भाग
निंदनीय
मेज़ के सलीक़े
मेरी अंजुरी में
रौशनी
रौशनी
छूता हूँ मैं
रौशनी
ये मेरा संसार
रौशनी
तुम धूल में मिला देती हो
मुझे
जैसे कोई नन्हा दानव
सीख रहा हो
अपने त्रिशूल का उपयोग
प्रभु मेरे!
धृष्टताओं के
रंगों के
अग्नि के
जैसे
कोई चायवाला
उबालता है अपना दूध
बारम्बार
जैसे
जंग खाया
कोई कवि
जोड़ता है शब्द
भरो
मेरे घाव
पूरे करो
मोटापे में देखे ख़्वाब
लौट आओ
दो जय
दो पराजय
दो जीवन
दो मृत्यु
जन्म लेता है एक शब्द
हौले-हौले जन्म लेता है
एक शब्द
जैसे जुड़ी हो उसके साथ
भरे-पूरे किरदारों वाली
कोई कथा
आप कहेंगे ज़मीन
तो मौजूद हो सकती है वहां
बख़्तरबंद सिपाहियों की पूरी कतार
भूमि पर चढ़ाई करती
यूंहि नहीं कह सकते
आप किसी फल को आम
अपनी जिव्हा पर टपक आए
रस का आस्वादन किए बगैर
पीड़ा से बिलबिला उठेंगे आप
ततैया के दंश से
पर कुछ भी नहीं होगा वह
भिरड़ के लड़ने के दर्द के मुक़ाबले
बैंगलोर्ड हो जाएगा अमरीका में कोई
डूब जाएगी आर्नल्ड श्वाज़ेनेगर की छवि
प्लूटो के ग्रहत्व की तरह।
हौले-हौले जन्म लेता है एक शब्द
उसे गढ़ता है तीन साल का एक बच्चा
भूल जाता है, फिर करता है याद
तीन बरस के अपने बच्चे से खेलता हुआ।
नदी सा बन जाता है कभी कोई शब्द
जैसमीन के फूल की सफ़ेदी में
जुड़ जाता है क्रांति का रंग
हौले-हौले यूं बना कोई शब्द
जब देता है शब्दकोश पर दस्तक
तो चौंक जाती है अचानक भाषा
कि अरे, देखा ही नहीं मैंने
आते हुए दबे-पांव तुम्हें!
प्रेतछाया
गुज़रता कुछ भी नहीं
पकता है भीतर
आइंस्टीन के दुरूह सिद्धांत के बावजूद
तुम्हारी आंखों में रहती है
चौंधियाते उजाले से भरपूर एक रात
नासिका में बसीं
हज़ारों-हज़ार गंधों में एक खुशबू
नहीं जुड़ पाती किसी स्वाद से साथ
गाहे बगाहे
किसी दु:स्वप्न के कुटिल तर्क से भागते तुम
टूटती तंद्रा में पाते हो वे स्पर्श
जो होने न थे
न होने थे
कुटिल तर्क
सपने में गटकता हूं
दो घूंट पानी
बार-बार
सूखा ही रहता है तालू
उठकर देखता हूं कि अरे!
सपने में पिया पानी
सपने में घुड़सवार हूं मैं
दुश्मनों से घिरा
रेगिस्तान के बीचों-बीच
बिल्कुल नहीं घबराता
सपनें में मूछें हैं
ताव भी
वैसा जैसा
कभी नहीं स्वीकार्य होगा
मुझे
सपने के दफ़्तर में
काँफ़्रेंस-कक्ष का लांघता हूं दरवाज़ा
तो पुरखों के मकान की
बैठक में पहुंच जाता हूं अचानक
जहां अब भी बैठे हैं दादाजी
श्वेत-श्याम टी०वी० पर देखते ख़बरें
कई रंगों में दिखते हैं अब
मुझे सपने
बरसों चलती इस वैज्ञानिक बहस के बावजूद
कि क्या रंगीन होते हैं सपने
मुझे इंतज़ार है कि एक दिन
सपने में बदल जाएगी
मेरे लिए ये दुनिया
दूसरे रंगों से ज़्यादा
रह जाएगी नीली, धूसर और हरी
जैसा होना चाहिए उसे यकीनन
और जब खोलूंगा मैं आंखे
एक लम्बी नींद के बाद
बचा रहेगा कुछ मेरा सपना
मेरे साथ।
कितनी तकनीकी, स्वामीनाथन
कितनी तकनीकी, स्वामीनाथन
कि ग्रीष्म से झुलसी सड़क पर
चलते तुम्हारे पांव
पाएँ कुछ आराम
सत्तर पार की इस उम्र में
सुबह जब तुम लौटाओ
किसी परेड में तैनात
सिपाही सी कड़क मेरी कमीज़ें
विस्मय से भरीं तुम्हारी आंखें
समझें मेरे लैपटॉप की टिमटिमाती बत्तियां
फोन के छुअन से चलने का विज्ञान
मन करता है स्वामीनाथन
करूं तुमसे बहुत सी बातें
पूछूं तुम्हारे पोतों के नाम
जानूं तुम्हारे महानायकों के
काले चश्मे पहनने का रहस्य
तुम जानते भी हो स्वामीनाथन
पहली दुनिया में गिना जाने वाला है
भारत
कितनी तकनीकी
कि हमें मिल जाए चार शब्दों की एक भाषा
जिसमें बतिया पाएं सिर्फ़ एक बार खुलकर
तमिल की छंटी क्यारियों
और हिन्दी के सुघड़ स्तनों
से परे
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(चेन्नई प्रवास की दौरान लिखी कविताओं में से)
परिचय
जुलाई की एक नम सुबह
जब हम हुए तिपहिए में एक साथ
तो संयोग था और जेब की मजबूरी
आधे उजाले में अपनी देह ढकती
कोने में सिमटी बैठी तुम
पहली नज़र में लगी सलोनी
उनींदी आंखों में गुज़रती जाती थी दिल्ली
कि राजघाट भी पीछे छूट गया हो शायद
जब हुई मुझे कंघी की हाजत महसूस
कनखियों से देखा मैंने कई बार
और तुम्हें बाहर ताकते देख अविराम
मन ही मन दोहराए भूरे रंग के कई प्रकार
बहुत वक़्त नहीं बीता होगा वैसे यूं
कि यकायक रेडियो की भारी-भरकम आवाज़ से
सकपका गए मेरे कानों में गाते मेहंदी हसन
और फिर मीलों चलती उदास सड़क के बाद
जैसे दिखा हो कुछ जाना-पहचाना
कि दांएं मुड़ने का किया तुमने इशारा
निकल आई थी हल्की धूप भी तब तक
संकरी गली में अपना पर्स टटोलते देख तुम्हें
जाने क्यूं मन किया कि कहूं धन्यवाद!
रोज़गार
एक झक सफ़ेद कमीज़ में
सूचनाओं को परोसते
उसने पूछा
क्या भीतर के अनगढ़ को
बदल पाओगे
सूचनाओं में?
यूं मैंने खरीदे
घड़ियां, कपड़े, साजो-सामान
मार्क्स
कपड़े खंगालते अचानक
आई तुम्हारी याद
तुम्हारी दाढ़ी-सी धवल मेरी कमीज़ पर
चढ़ आया था कोई रंग
मैं
…………………………….
बेसमेंट की पार्किंग में
उड़ान ले रहा है
एक पक्षी
…………………………….
नवगीत
खाली हो टंकी जब सूखे हों नल
शॉवर में रहता है थोड़ा सा जल
ऐसे ही जाता है जीवन निकल
जगमग उजालों से लगता है डर
घर लौटूं, तकिए पे रखूं जो सर
राहत कि जैसे हो गर्मी में ज्वर
दिनभर निकलते ही रहते हैं काम
खाली सी आंखों में दुनिया तमाम
इंसान होने के सब ताम-झाम
चिल्लाती सुबहों में फैले उजास
जागूं मैं ज्यूंही इक कविता उदास
जम्हाई लेती सी आ बैठे पास।
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