कौशल लाल एक पाठक हैं. प्रधानमंत्री के साथ नीतीश कुमार के भोज पर उनकी एक टिप्पणी है. उनका यह मानना है कि तीन साल की सबसे बड़ी उपलब्धि है नीतीश जी का भोज में जाना. यह उपलब्धि भाजपा के लिए है या नीतीश जी के लिए यह लोगों को तय करना है- मॉडरेटर
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हमारे बचपन में ये बहुत प्रचलित था- तीन तिगारा काम बिगारा … अर्थात तीन का आंकड़ा किसी भी मायने से सही नहीं माना जाता। यह उसी प्रकार है जैसे आप दान दक्षिणा अथवा चढ़ावे में एक सौ न देकर उसे एक सौ एक कर देते है। जब एक में कुछ रखा ही नहीं तो क्यों भगवान के नाम पर एक रूपये का भी बैर लाया जाए। अगर क्षमता दस की है तो यह ग्यारह हो जाता, बीस है तो इक्कीस और इसी तरह….. लगता है इसी का प्रभाव है कि आप कुछ खरीदने जाए तो निन्यानवे का आंकड़ा मिलेगा उन्हें पता है ये दानी ग्राहक एक का तो दान कर ही देंगे।और सच मानिए हम इसपर यक़ीन भी करते थे । पर समय बदलते है और मान्यताएं बदल जाते है। देखिये इस तीन बर्ष में उपलब्धि तलाश रहे है। हमारे हिसाब से इसका मूल्यांकन इस विषम वर्ष में न कर लगले सम वर्ष होना चाहिये।
आखिर सांस्कृतिक नव राष्ट्रवाद की सरकार है।क्योंकि इसमें तीन का इकाई जो है। किन्तु लोग है कि मूल्यांकन में लगे है। खैर समय बदलते है और धारणाये बदल जाते है। जड़ धारणाये आपके विकास को रोक देता है । अतः आप अपनी धारणाओं का समय समय पर उसके फलानुक्रम में मूल्याङ्कन करते रहे। इस मामले में अगर वर्तमान राजनेताओं में देखा जाय तो नीतीशजी से ज्यादा प्रतिभाशाली और प्रभावशाली राजनेता दूर दूर तक नजर नहीं आते। आखिर इस बेचारे राज्य की बागडोर जो इस कंधे पर है। कहते है किसी को न्योता देकर भोज न करे इससे बुरा कुछ नहीं हो सकता। किन्तु नीतीशजी सामाजिक मान्यताओं को ताक पर रख ऐसा करने में कोई परहेज नहीं किये। लोगो ने काफी बुरा भला कहा। किन्तु उनको कोई मलाल नहीं। समय रहते उनको सामाजिक ताना बाना में बढ़ते छिद्र को देख लिया। उनको महसूस हुआ की विकास की यह अवधारणा जिस समाज को बनाती है उससे हमारे प्राकृतिक संपदा सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहा है इसलिए जंगलो का विनाश अंततः नुकसानदायी है। सो राज्य को ही जंगल बना दिया जाय तो इससे बढ़िया विकास क्या हो सकता। देखिये उन्होंने कितनी जल्दी मान्यताये बदली और धारणाओ को नए जामा पहना दिया।
महान कार्य हेतु आपको कुछ न कुछ बलिदान तो देना ही पड़ता और बरसो पुरानी दोस्ती को “गुड बाय” कहने में उन्होंने कोई हिचक नहीं दिखाया”। और इस भागीरथी प्रयास में उन्होंने जंगल राज्य के विशेषज्ञ को अपना हमसफ़र बनाया। लोगो की आलोचना को महन व्यक्तित्व कभी ज्यादा तव्वजो नहीं देते। उनका ध्येय तो अब लक्ष्य पर होता है। किन्तु अब ज्यादा जंगल भी तो ठीक नहीं और विकास पुरुष की छवि कही इन जंगलो में न खो जाए। अतः पुनः नीतीशजी की अवधारणा अब पुनर्विचार के मार्ग से गुजर रहा है। जो आकर अब दिल्ली में दावत के मेज पर रुका। कभी तस्वीरों से भी परहेज करने वाले साथ साथ जायका का स्वाद ले रहे है तो लगता है कि जायका बदल रहा है। राज्य और खुद की सेहत के लिए शायद अब ये धारणा बन रहा हो की अब जायके को बदल दिया जाय। कल नितीश जी के राह में अगर कोई हमसफ़र बदल जाए तो आश्चर्य न करे। बात नीतीशजी की हो और मूल्यांकन केंद्र का… बात कुछ जमती नहीं । फिर भी मुझेे ये तीन साल में सबसे बड़ी उपलब्धि दिखाई पड़ रही है। यह उपलब्धि केंद्र के लिए है या बिहार के लिए …..??? इस पर आप विचार करे और बदलते धारणाओं को बदलते रहने का प्रयास करे । देखिये तो क्या क्या दीखते है। आखिर हमारा देश बदल रहा है और शायद बिहार भी…।
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