अभिनेता बलराज साहनी हिन्दी सिनेमा की एक महान व अविस्मरणीय शख्सियत रहे हैं। आज उनका जन्मदिन है. लोगों कोम ही याद है कि वे लेखक भी थे और कहानियां, कविताएँ भी लिखते थे. उनकी और उनकी पत्नी की रचनाओं का समग्र भी प्रकाशित हुआ. आज उनकी कुछ कविताएँ- मॉडरेटर
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१.
जेहलम नदी के मोड़ पर
नदी के मोड़ वाले इस बांध पर
हम आ पहुंचा करते थे
लुक-छिप कर कभी कभी,
कोमल हरी घास वाले बांध की ढलान पर,
जगह जगह उगी थी झाडियाँ
कहीं बिच्छू बूटी, कहीं नर्गिस की!
और नीचे, नदी तट से कुछ परे
बारिश का पानी रुका हुआ
तालाब सा बना ना कोमल काई वाला.
बेंत वृक्षों की हलके हरे पत्तों भरी
शाखाएं एक दूसरे में मिल
सघन वन सा बना रही.
तालाब के पानी में चोंच डुबो
नीलकंठ नन्ही मछलियाँ पकड़े
तैरती धूप-छाँव में जाल के दायरे बनाते.
नदी के मोड़ वाले इस बांध पर
थी एक छोटी-सी कोठरी
पानी के महकमे की.
वह बनी कोठरी, खिड़कियों वाली,
दरवाजे पर था ताला, अंदर पाइपों से
पानी की आती आवाज़ गर्र! गर्र!
कोठरी की ओट में हम दोनों
ढलान पर शाख-वेलरिया भांति
आलिंगन में होते.
मचलते यौवन, सौंदर्य के आकर्षण में
हम बेखबर एक सुरक्षा दृष्टि फिर भी
राह गुजरती पर रखते.
कोठरी की छत पर घोंसला बैठा
रहता था एक बुलबुल जोड़ा
बन गया था हमारा मित्र.
हमारे सन्मुख कोमल घास पर वह
खेलें खेलना, चहकता! खेलता
हमारे स्नेह की कलगियाँ लगाता.
पर हाय! तेरे-मेरे
स्नेह यौवन की प्रतीक
इस कोठरी की भी नहीं सुरक्षा हुई.
खड़ी है सुनसान, वीरान टूटी-फूटी
भीतर-बाहर से नोची-खरोची
छत की शहतीरें छत से अलग.
हाँ पर, ढलान की घास पर
खेल-चहक रहा एक बुलबुल जोड़ा
क्या यह वही है?
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२.
आशा-निराशा
एक बार पहले भी भटका था दर-बदर,
तुझे खोकर,
वह पाने के लिए जिसकी आशा नहीं थी.
आज फिर भटक रहा हूं
तुम्हें पाकर,
जो पाने की आशा थी
उसे खोकर.
पी.डब्ल्यू.डी. महकमे के पोस्टरों की तरह
‘बचाव में ही बचाव है.’
मेरी, अब तो
गति में ही गति है.
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३.
लूट
मेरी यौवनमयी सुंदरता
को ईर्ष्या से देखे तू
और तो सब कुछ छीन लिया
अब हुस्न भी छीना चाहे तू!
मेरी सफलता करनी का फल,
बख्शी सेहत है कुदरत ने
मेरे हुस्न में अंश ईश्वर का
काहे लंबे सांस भरे है तू!
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४.
नमः नमः मम जननी बंग भूमि
ऐसे तो नहीं होना था, इधर तो नहों था जाना
हाथ में हाथ पकड़ खोज लेना था अपना ठिकाना
भोले भैया! तू तो बैरियों से जा मिला हो अनजान
वहां, जहां बहे हवस की हवा और भूले दोस्तों की नहीं पहचान.
जहां गीधें हैं मंडराती है बैठी बीच शमशान.
और उनके वारि वारि जाना जिन्हें शर्म, न आन?
आंसू सूखे, आहें मूक हुई अब एक ही वचन निभाना
हक के बैरी का, नामुमकिन जीते वापिस जाना!
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५.
मनोकामना
मीठे बोल बोल बुलबुल आज प्रभात
छेड़ जाए फल फूल शाख और पात.
बुलबुल सा हिय ने झांक न देखा
तो किस काम आया मेरा लिखना लेखा!
सावन भादो मेह की झड़ी,
काली रात सितारों भारी,
सी भावना यदि उमड़ न आई
तो किस काम आई मेरी लिखाई.
चिंगारी जो, साथी! आग न बनी यदि
सोचें, जो विश्व-आंदोलन न बनी,
गाँव-शहर में जिन्होंने बिगुलें न बजाई
तो किस काम आई मेरी लिखाई!
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