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हेल को समझना कोई खेल नहीं है!

प्रकाश के रे खूब पढ़ते हैं., अलग अलग विषयों को लेकर सोचते लिखते हैं. इस बार उन्होंने हेल, जहन्नुम, नरक के बारे में सोचते हुए यह छोटा सा लेख लिख दिया- मॉडरेटर

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‘व्हाट [इज़] द हेल!

अक्सर हम रोज़मर्रा के जीवन में ‘गो टू हेल’, ‘जहन्नुम में जाओ’, ‘टू हेल विद’, ‘नरक में जाओगे’, ‘दोज़ख़ की आग में जलोगे’ जैसे जुमले इस्तेमाल करते हैं. आज मुझे भी किसी अज़ीज़ ने बातों-बातों में ‘गो टू हेल’ कहा. ‘हेल’ शब्द मुझे बहुत भाता है. जहन्नुम तो और भी. नरक भी क्या ख़ूब लगता है सुनने में. हाँ, नर्क में बहुत मज़ा नहीं है. बहरहाल, थोड़ा चक्कर लगाते हैं, ‘हेल’ की अवधारणा पर और इसकी समझदारियों पर.

रिचर्ड बाख ने नरक को परिभाषित करते हुए लिखा है कि यह वह स्थान, समय और चेतना है जहाँ प्रेम नहीं है.

महान सूफ़ी राबिया अल-बसरी ने गाया था-
‘अगर मैं तुम्हें जहन्नुम के डर से चाहती हूँ, तो मुझे दोज़ख़ में जला!
अगर चाहती हूँ तुम्हें ज़न्नत की चाहत में
तो मुझे फ़रदौस से बाहर रख मुझे.
पर अगर मैं चाहती हूँ तुम्हें सिर्फ़ तुम्हारे लिए
तो मुझे अपनी अनंत सुंदरता से इनकार न कर.’

उमर ख़य्याम ने पाया कि उनकी रूह ही ज़न्नत और जहन्नुम है. विलियम ब्लैक ने लिखा कि जो प्रेम स्वार्थी नहीं होता, वह दूसरों के लिए नरक के संत्रास में स्वर्ग की रचना कर देता है. मिल्टन के महाकाव्य ‘पाराडाइज़ लॉस्ट’ में आदम और हव्वा को बरगलाने के बाद शैतान नरक में आकर अपने षड्यंत्र का जश्न मनाता है और कहता है कि अब स्वर्ग पर उसका एकाधिकार हो जायेगा. तभी वह उसके साथी देवदूत साँपों में बदल जाते हैं और चिर काल तक वैसे ही रहने के लिए अभिशप्त हो जाते हैं. यह लुसिफ़र शैतान स्वर्ग का सबसे ख़ूबसूरत देवदूत है, पर कहता है, ‘स्वर्ग में नौकर बनने से बेहतर है कि जहन्नुम में राज किया जाये.’ बौद्ध धर्म में वे लोग ‘नरक’ में जन्म लेते हैं, जिनके बुरे कर्मों का हिसाब बहुत लंबा हो जाता है. पर, कई अन्य धर्मों की तरह बौद्ध धर्म में किसी दैवी आदेश या निर्णय से लोग नरक नहीं भेजे जाते और फिर वे वहाँ अंतहीन समय के लिए भी नहीं रहते.

बहरहाल, दुनियाभर की धार्मिक व्यवस्थाओं और पौराणिक संस्कृति में अलग-अलग तरह के नरक का वर्णन है. हिंदू धर्म में भी है, पर उसके बारे में कुछ भी कहना आजकल ख़तरनाक है. इस धर्म के स्वयंभू ठेकेदार भारतभूमि को ही नर्क बनाने के काम में अनवरत लगे हुए हैं.

बरसों पहले मैंने एक तस्वीर देखी थी जिसमें नरक में दी जानेवाली सज़ाओं का चित्रात्मक वर्णन था, जैसे- बदन में कीलें ठोकी जा रही हैं, बड़े-बड़े औज़ारों से शरीर के टुकड़े किये जा रहे हैं, आग में जलाया जा रहा है, बुरी तरह से पीटा जा रहा है आदि आदि. उसके एक चित्र को याद कर आज भी मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं. उसमें तेल की कड़ाही में लोगों को तला जा रहा था. हालाँकि वह कैलेंडर हिंदू आस्था से जुड़ा हुआ था, पर नरक की ऐसी संकल्पनाएँ हमें पूरे विश्व में अधिकतर संस्कृतियों में मिलती है.

जलाना तो ईसाईयत और इस्लाम में शायद जहन्नुम की सबसे भयावह सज़ा है. यह भी उल्लेखनीय है कि वैदिक धर्म के प्रारंभिक शास्त्रों-वेदों- में नर्क की अवधारणा सिरे से अनुपस्थित है. यह बाद का जुगाड़ लगता है. यह भी मज़ेदार है कि आप को नर्क के आस्तित्व को सिद्ध करनेवाले वीडियो और लेख इंटरनेट पर बहुत मिल जायेंगे और ये तकरीबन हर बड़े धर्म से जुड़े हैं. इंटरनेट पर गूगल सर्च में लोग यह भी पूछते हैं कि क्या ‘हेल’ नाम की कोई जगह नॉर्वे में है. मज़ा आ जाये, कोई अगर मुझे नॉर्वे के ‘हेल’ में भेज दे!

अभी कुछ दिन पहले ही आयी एक डॉक्यूमेंट्री का नाम है – ‘हेल ऑन अर्थः द फ़ाल ऑफ़ सीरिया एंड द राइज़ ऑफ़ आइसिस.’ इसमें कोई दो राय नहीं है कि दुनिया के उन सभी हिस्सों की हालत आज दोज़ख़ जैसी है जहाँ अलग-अलग तरह की हिंसा का माहौल है. ज़िया जालंधरी ने कहा है- ‘कि आदमी आदमी का दोज़ख़ बना हुआ है / अजब तज़ादात का मुरक़्क़ा है आदमी भी.’ जिगर बरेलवी नसीहत देते हैं- ‘दोज़ख़ को यही जन्नत कर दे जन्नत को यही दोज़ख़ कर दे / हम तुझ को बताएँ क्या हमदम क्या चीज़ मोहब्बत होती है.’ पाकिस्तान में ज़ियाउल हक़ के दौर से देश छोड़ने को मज़बूर अहमद फ़राज़ ने किसी और देश में जब हमवतनों को देखा, तो ये लफ़्ज़ फूट पड़े- ‘हर हिज्र का दिन था हश्र का दिन / दोज़ख़ थे फ़िराक़ के अलाव.’ फ़ैज़ साहब कहते हैं- ‘दोज़ख़ी दश्त नफ़रतों के / बेदर्द नफ़रतों के / किर्चियाँ दीदा-ए-हसद की / ख़स-ओ-ख़ाशाक रंजिशों के…’

तो बाख की बात पर लौटते हैं. मसला यही तय होता है कि जहाँ मोहब्बत नही, जहन्नुम वहीं. सिराज औरंगाबादी ने तो साफ़ ऐलान किया- ‘रंगीं बहार-ए-जन्नत दोज़ख़ है मुझ को उस बिन / दोज़ख़ है उस के होते दारुसस्लाम गोया.’

अब्बास ताबिश ने क्या ख़ूब फ़रमाया है- ‘कितनी सदियाँ सूरज चमका कितने दोज़ख़ आग जली / मुझे बनाने वाले मेरी मिट्टी अब तक गीली है.’ अभी इंसान बन रहा है, इंसानियत अभी नम है, पकने की प्रक्रिया चल रही है. मौत के बाद अगर कहीं जाना होगा, तो चले ही जायेंगे या भेज दिये जायेंगे, पर जब तक ज़िंदा हैं, इतना तो कर ही सकते हैं कि वह ज़न्नत की तो तस्वीर हमारे ज़ेहन में है, उसका कुछ रंग, कुछ नूर यहीं इसी ज़मीन पर, अपने भीतर, और आस-पास सजाने की जुगत लगायें. प्यार-मोहब्बत, दोस्ताना, अपनापन तो हमारे ही हैं, इसी धरती पर ही तो गढ़े-बने हैं, तो फिर उनके सहारे अपना जहन्नुम कुछ कम करने की क़वायद तो की ही जा सकती है.

फ़िलहाल मैं इस अपने मक़बरे में वायलिन का कुछ रियाज़ कर लूँ.

 
      

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