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शहरयार कलाम ऐसे पढ़ते जैसे कोई धीमी गति का समाचार पढता हो

आज उर्दू के प्रख्यात शायर शहरयार साहब की जन्मतिथि है. जनाब रवि कुमार का संस्मरणात्मक लेख उनकी शख्सियत और शायरी पर पेश है- मॉडरेटर

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 [ उर्दू के प्रसिद्ध शायर प्रो॰ अख़लाक मोहम्मद खाँ ‘शहरयार’ के जन्म दिन पर विशेष संस्मरण ]

बात शायद अप्रैल 1982 की है,  हिन्दी फिल्म ‘’ गमन‘’ की दो ग़ज़लें “ सीने में जलन आँखों में तूफान सा क्यूँ है‘’ और  ‘’ अजीब सानेहा मुझ पर गुज़र गया यारो‘’  से अपनी  शायरी की एक अलग सी कैफ़ियत का एहसास करवा चुके प्रो॰ अख़लाक मोहम्मद खाँ ‘शहरयार’  की बतौर गीतकार दूसरी फिल्म 1981 में बनी ”उमराव जान” की ग़ज़लों का सुरूर पूरी तरह बरकरार था.  इन ग़ज़लों के शायर प्रो॰ अख़लाक मोहम्मद खाँ ‘ शहरयार ‘ का नाम उर्दू के अदबी हलक़ों से बाहर भी  मशहूर हो चुका था, ऐसे में अंजुमने- दोस्ताने– अदब, पठानकोट के मुशायरे में शिरकत फरमाने बाले शायरों की फ़ेहरिस्त में ”शहरयार ” का नाम शामिल होने से हमारे लिए मुशायरे की अहमियत और बढ़ गई थी।

हस्बे- मामूल मुशायरा  सुनने आए श्रोताओं से  पूरी तरह भरे हुए पंडाल में मुशायरा की शुरुआत हुई , मेरे जैसे उर्दू शायरी के कितने ही फ़ैन अपनी-अपनी नोटबुक– पेन लिए पसंदीदा शे’र नोट करने के लिए तैयार बैठे थे और तब अपने मुकाम पर उस मुशायरे के ”विशेष आकर्षण” शहरयार अपना कलाम पड़ने के लिए माइक पर आते हैं, पंडाल में बैठे श्रोताओं की नज़रें उनकी तरफ़ हैं, कान उनकी तरफ़ हैं, शहरयार अपना कलाम पढ़ते हैं, ऐसे के जैसे कोई धीमी गति के समाचार सुना रहा हो और मैं उनके एक-एक शे’र को नोट कर रहा हूँ।  अगले दिन शहर में जहां भी पिछली रात के मुशायरे का ज़िक्र हुआ,  एक सीधी सी प्रतिक्रिया मिली  ”शहरयार फ्लॉप रहे” , लेकिन कुछ दिन बाद जब मैंने मुशायरे में अपनी  नोटबुक में नोट  किए हुए सब शायरों के कलाम को पढ़ना शुरू किया तो ‘ शहरयार ’ का अंदाजे-बयाँ सब अलग लगा,

‘’ या, इतनी न तब्दील हुई होती ये दुनिया

या , मैंने इसे ख़्वाब में देखा नहीं होता ‘’

इसी मुशायरे में पढ़े गए दो और शे’र

‘’ बढ़ा दे मेरी वहशतें, चाक मेरा गरीबां कर दे

कोई है जो ज़िंदगी का सफ़र , मुझ पे आसान कर दे ‘’

‘’ दिखाई न दी, आज तक देखने को जहाँ देख डाला

कोई शक्ल ऐसी की जो आईनों को पशेमान कर दे ‘’

और अब एक ग़ज़ल दो और शे’र

‘’ आहट जो सुनाई दी है , हिज्र की शब की है

ये राय अकेली मेरी नहीं सब की है

सुनसान सड़क, सन्नाटे और लंबे साये

ये सारी फ़िज़ा ऐ दिल तेरे मतलब की है ‘’

ऐसे शे’र सुनने के बाद,  शहरयार  की शायरी मेरे  दिलो –दिमाग पर  छा चुकी थी उनके ये शे’र मुझे एकांत और रहस्य की की तलाश में निकले इंसान का सफरनामा महसूस होते थे और मैं पूरी तरह उस शायरी के असर में था, वो भी  तब जब मैंने उनकी इन गिनी– चुनी ग़ज़लों के अलावा उनकी लिखी कोई भी दूसरी नज़्म या ग़ज़ल अभी पढ़ी नहीं थी ।

तब  उन्हीं दिनों,  दिल्ली पुस्तक मेले में मैंने उनकी एक किताब ‘’ हिज्र के मौसम‘’ खरीद ली जो शायद 1978 में प्रकाशित हुई थी और उर्दू में छपी थी । उन दिनों उर्दू में लिखा कुछ भी  मेरे लिए काला अक्षर समान था । मेरे घर मेरे पिता जी और  दादा जी उर्दू पढ़ना जानते थे लेकिन मेरा शायरी की तरफ़ दिलचस्पी रखना  उन्हें पूरी तरह नागवार था, सो उन हालात में मैं अपना ये शौक अपने परिवार से छुपा कर इसे एक ऐब की तरह ही पाल रहा था। उन दिनों मेरा कारोबारी सिलसिले में जालंधर आना–जाना लगा रहता था, वहाँ श्री दीना नाथ मेहता जो  बस्ती नौ में स्पोर्ट्स इंडस्ट्री से सबन्ध रखते थे , ब्रिटिश आर्मी में  और भारतीय सेना में भी अधिकारी रह चुके थे, उर्दू शायरी से उन्हें बेहद लगाव था और इसी कारण मेरी उनसे खूब छनती थी ,वो उम्र में मुझ से लगभग 50 साल बड़े थे । मैं जब भी जालंधर उनके पास जाता शहरयार साहब की किताब ‘’ हिज्र के मौसम ‘’ उनके आगे रख देता , वो उर्दू में छपी ग़ज़लें पढ़ते और में उन्हें हिन्दी में लिखता , इस तरह ‘’हिज्र के मौसम ‘’ की ये ग़ज़लें मुझे ज़ुबानी याद हो चुकी  थीं । कुछ पत्रिकाओं के ज़रिये या डीडी पर मुशायरों के ज़रिये उनकी रचनाएं पढ़ने– सुनने को मिलती रहती थीं । उन्हें  1987 में उनकी किताब ‘’ खवाब का दर बंद है ‘’ पर साहित्य अकादेमी अवार्ड  दिया गया जिसका अँग्रेजी अनुवाद भी छपा और इसी किताब  की ग़ज़लों और नज़्मों का हिन्दी संकलन साहित्य अकादेमी ने छापा । मैंने वो रचनाएँ भी पढ़ी ।

   उर्दू साहित्य में उनका एक बहुत बड़ा रचना संसार है , ‘’ इस्मे- आज़म ‘’, सातवाँ दर ‘’ , ‘’ हिज्र के मौसम ,‘’ ‘’ख्वाब  का दर बंद है ‘’, ‘’ नींद की किरचें ‘’और  ‘’धुन्ध की रोशनी ‘’  उनकी उर्दू कवितों के  चर्चित संकलन  हैं । कहीं उनकी शायरी में उस  इंसान की आवाज़ सुनाई देती है  जो आज भीड़  में रहते हुए भी बिलकुल  अकेला पड़ता जा रहा है तो कहीं ये शायरी शांत बहते हुए पानी के अंदर की हलचल और रहस्य को ज़ाहिर करने की कोशिश करती ।

                       ‘’ शदीद प्यास थी फिर भी छुआ न पानी को

                         मैं देखता रहा दरिया, तेरी रवानी को    ‘’

अब तक  मेंने  ‘’ शहरयार ‘’  की  शख़्सियत को सिर्फ़ उनकी शायरी के ज़रिये ही जाना था, तभी एक इतिफ़ाक़ हुआ कि पठानकोट में  स्प्रिचुअल अवयरनेस फाउंडेशन की और से उस्ताद शायर स्व॰ पंडित ‘ रत्न ’ पंडोरवीं साहब की याद में  जश्न – ए – रत्न – पंडोरवीं , इंटरनेशनल मुशायरे  का आयोजन होना था, जिसके  लिए  20 , सितम्बर 2008  की तारीख़ निश्चित  की गई, , मुशायरे में शिरक़त के लिए शहरयार साहब पठानकोट आ रहे थे , सुबह अहमदाबाद एक्सप्रेस से ,  पहले  मुझे शीन काफ़ निज़ाम साहब को रिसीव करना था और दूसरी ट्रेन शालीमार एक्सप्रेस से शहरयार साहब को। मैं मन ही मन खुश था ,शीन काफ़ निज़ाम साहब से मैं पहले ही परिचित था शहरयार साहब आएंगे या नहीं इस बात को हमेशा लेकर असमंजस बना ही रहता था। ख़ैर दोनों को रिसीव किया शहरयार साहब से रु –ब – रु ये पहली मुलाक़ात थी । दिन भर होटल के जिस कमरे में वो ठहरे बातों का दौर चलता रहा मैं उन्हें उनकी कई ग़ज़लें, नज़्में याद दिला रहा था, बीच – बीच वो मुझे हैरत से देखते । इसी  दौरान मुझे किसी काम से जाना था ।  वापसी पर मैं घर से शहरयार साहब की  किताब  ‘’  हिज्र के मौसम ‘’ लेता गया मैंने वो किताब   उन्हें दिखाई तो वो मेरी हैरानी से देख रहे थे कहने लगे , ‘ये 1978 में छपी  थी ‘ ‘, मैंने कहा ,” जी मैंने 1983 में दिल्ली अंजुमन तरक़्की उर्दू  के स्टाल से उस वक़्त इसे 9 रुपये में ख़रीदा था ” । शहरयार साहब सवालिया लहजे से मेरी  में ओर देखा ” पंजाब में तो उर्दू  की तालीम नहीं तो क्या आप उर्दू जानते हो , ”  मैंने कहा नहीं जब मैंने ये किताब खरीदी थी तब मैं उर्दू बिलकुल नहीं पढ़ सकता था , हाँ आज ज़रूर कुछ जोड़- तोड़ कर पढ़ लेता हूँ । मैंने उन्हे सारा क़िस्सा सुनाया ,कैसे मैंने उर्दू जानने वाले बजुर्ग की मदद से उनका पूरा कलाम हिन्दी में लिखा । उस वक़्त निज़ाम साहब भी उसी कमरे में बैठे थे शहरयार उनकी तरफ देख कर कहने लगे ,’ निज़ाम साहब रवि मेरी शायरी का फैन है इस से भी कहीं ज़्यादा बड़ी बात ये है कि ये लोग उर्दू शायरी और उर्दू ज़बान को ज़िंदा रखने का काम किस शिद्दत से कर रहे हैं ’।

     रात उस मुशायरे में पढ़ने वालों में डा शहरयार , निदा फाज़ली , राहत इंदोरी , शीन काफ़ निज़ाम ,डा मलिकज़ादा मंसूर अहमद , राजिन्दर नाथ रहबर , मंसूर उसमानी , हसन क़ाज़मी , डा रवि ज़िया और भी कई मोतबर नाम थे , मैंने भी उस मुशायरे में पढ़ा l रात मुशायरा खूब जमा , अगली सुबह शीन  काफ निज़ाम  साहब की ट्रेन 11 बजे थी, उन्हे  विदा करने के बाद मुझे और डॉ रवि ज़िया को कोरल रिवर रिज़ॉर्ट , माधोपुर पहुँचना था जहां दिनेश महाजन साहब  के निमंत्रण  पर निदा फ़ाजली , शहरयार और राहत इंदोरी  भी वहीं पहुँच चुके थे।  कुछ शायरी,  कुछ बातें , महफ़िल जम हुई  थी , निदा अपनी तबियत अनुसार नई उर्दू शायरी के विषय पर बोल रहे थे  , इतने में शहरयार कहते हैं ‘’ निदा , आप इतना बोलते हो , आपको को तो किसी  university  में प्रोफेसर होना चाहिए‘’। निदा तपाक से जवाब देते हैं ‘’ और तुम्हें बिलकुल नहीं होना चाहिए था, तुम तो बोलते ही नहीं हो‘’। शहरयार सिर्फ मुस्कुरा देते हैं । निदा साहब की फ्लाइट जम्मू से है वो जम्मू के लिए रवाना हो रहे हैं , राहत इंदोरी साहब को भी पठानकोट से ट्रेन लेनी है। शहरयार साहब ने जम्मू मेल से जाना है  डॉ रवि ज़िया और मैं उन्हें साथ लिए पठानकोट रेल्वे स्टेशन  के लिए चल रहे हैं ।डॉ  रवि ज़िया गाड़ी चला रहे हैं , शहरयार उनके साथ वाली सीट पर बैठे हुए हैं और मैं पिछली सीट पर । डॉ रवि ज़िया धीमी रफ्तार से गाड़ी  चला रहे हैं ।  शहरयार साहब के साथ गुज़र रहे इन लम्हों का हम दोनों पूरा– पूरा फायदा उठाना चाह रहे हैं । शहरयार साहब बताते हैं ‘’जब भी मुझे किसी मुशायरे के लिए निमंत्रण  आता है मैं कबूल भी कर लेता हूँ , फिर सोचता हूँ  नहीं जाऊंगा , न जाने कैसे लोग होंगे कई बार चला जाता हूँ  और कई बार नहीं जाता , और जब चला जाता हूँ तो कुछ अच्छे लोग भी मिल जाते हैं ‘’।  पठानकोट रेल्वे स्टेशन पहुँच चुके थे । थोड़ी देर बाद ट्रेन आई और उन्हें विदा किया ।  उसके बाद उनसे फोन पर बात ती रहती। एक दिन मुझे उनका फोन आया ‘’ हाँ  रवि कैसे हो ,   ये शे’र सुनना ‘’ वक़्त तेरी ये अदा मैं आज तक समझा नहीं , मेरी दुनिया क्यूँ बदल दी , मुझ को क्यूँ बदला नहीं ’’। इस तरह फोन पर अक्सर बात होती रहती थी ।

  टीवी पर न्यूज़ आ रही  थी  बर्ष 2008 के लिए ज्ञानपीठ  अवार्ड शहरयार को , मैंने फ़ौरन शहरयार साहब को फोन लगाया ‘’ शहरयार साहब मुबारक हो , आपको ज्ञानपीठ अवार्ड मिला है ‘’।

 ‘’ हाँ, अभी – अभी पता चला है , तुम कैसे हो ‘’।  जवाब सुनकर मैं हैरान था , इतना बड़ा सम्मान मिलने बाद भी लहजे में कोई बनावट नहीं , कोई गरूर नहीं । भारतीय साहित्य का सब से बड़ा सम्मान जो अब तक  उर्दू के चार साहित्यकारों मिला पहली बार पंडित रघुपत सहाय ‘ फिराक ’ गोरखपुरी दूसरी बार कुरत्तुल ऐन  हैदर,  तीसरी बार अली सरदार ज़ाफरी  और चौथी बार शाहरयार साहब को मिला ।

  2011, के आख़िर में कैंसर से जूझ रहे थे और 13 फ़रवरी 2012 को उनका निधन हो गया । पठानकोट रेल्वे स्टेशन से उन को विदा करते हुए उस आखिरी मुलाक़ात की याद आज भी ताज़ा है, उन्हीं का ये शे’र जिंदगी की कितनी बड़ी हक़ीक़त को बयाँ करता है ……

‘’ बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी

दिल में उम्मीद तो बाकी है , यकीं कुछ कम है‘’

                                                      [   रवि  कुमार  ]

                                                       09463605955

                                         Email… poetravikumar@gmail.com

 
      

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