मैत्रेयी पुष्पा की किताब ‘वह सफ़र था कि मुकाम था’ पर चल रहे विवाद पर जेएनयू में कोरियन विभाग में शोधा छात्रा रोहिणी कुमारी की टिप्पणी-
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हिंदी जगत को ठीक से नहीं जानती हूँ लेकिन रूचि होने की वजह से पढ़ने की प्रक्रिया अनवरत चल रही है, जब भी मौक़ा मिला ख़रीद कर पत्रिकाएँ पढ़ती रही और अब ऑनलाइन के इस दौर में ख़रीदना नहीं पड़ता बस क्लिक किया और कहानियां और कविताएँ और साथ में गॉसिप्स भी आपके सामने.
साहित्य के जगत में राजेन्द्र यादव मेरे लिए वही हैं जो संगीत और फ़िल्मों की जगत में गुलज़ार. ऐसा इसलिए कह रही हूँ की मैं फ़िल्मों के प्रति गुलज़ार के कारण ही आकर्षित होती थी और साहित्य के प्रति वो आकर्षण मुझे राजेन्द्र यादव के ‘हंस’ से होता था.
साफ़ साफ़ बता देती हूँ कि मैं क्यों राजेन्द्र यादव के बारे में इसलिए लिख रही हूँ क्योंकि मुझे हिंदी जगत की एक और साहित्यकार की बात करनी है. जी हाँ मैत्रेयी पुष्पा. हिंदी अकादमी की अध्यक्ष और प्रसिद्ध लेखिका. जो हमेशा से ही चर्चा का विषय रही है. कभी अपने लिखने की वजह से तो कभी अपने तथाकथित प्रेम सम्बंध की वजह से.
मैंने मैत्रेयी जी को राजेन्द्र यादव के हवाले से जाना था. पहली बार उनका नाम राजेन्द्र यादव के कारण ही सुना था. और आज भी इस लेख को लिखने का कारण यही है.
मैत्रेयीजी एक बार फिर से हिंदी जगत में चर्चा में हैं. और इस बार इस चर्चा की वजह है उनकी आत्मकथा “वह सफ़र था कि मुक़ाम”. मैत्रेयी जी ने इसे आत्मकथा कहा है लेकिन साहित्य जगत का विमर्श कहता है कि यह एक उपन्यास हो सकता है आत्मकथा तो कतई नहीं, क्योंकि इसमें उन्होंने जो भी लिखा है उसमें सब सच नहीं. बाक़ी हिस्सों की बात ना करते हुए सारी बहस किताब के उस हिस्से पर है जिसमें मैत्रेयी जी ने राजेन्द्र यादव और उनकी पत्नी मन्नू भंडारी के रिश्ते के बारे में लिखा है. उनके कथाननुसार उनका सम्बंध प्रेम से नहीं बल्कि विवाह से जुड़ा था. जबकि हम सब जानते हैं मन्नू भंडारी ने किस तरह अपना रिश्ता राजेन्द्र यादव के साथ निभाया. एक स्त्री जिसने प्रेम किया, उसी इंसान से विवाह किया और फिर उसी प्रेम के सहारे अपना जीवन गुज़ार रही है.
मेरी समझ इतनी नहीं कि मैं प्रेम को परिभाषित करूँ या उस बारे में कुछ कहूँ, लेकिन प्रेम आपको अपना रिश्ता महान और किसी दूसरे के रिश्ते को छोटा बनाना तो बिलकुल नहीं सिखाता. मैं नहीं जानती की मैत्रेयी जी ने जो कुछ भी लिखा है उसमे कितनी सत्यता है? लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अगर इन सब बातों में सत्यता है भी तो इसे अब लिखने का क्या मतलब? क्यों आप ख़ुद के रिश्ते को बड़ा और दूसरे को छोटा दिखाने में अपनी महानता देख रही है? मन्नू भंडारी अभी जीवित हैं लेकिन उस हालात में नहीं कि वह इस पर किसी भी तरह की टिप्पणी कर सकें और जहाँ तक मैं समझती हूँ वह अगर इस योग्य होती भी तो वह इतना छोटा काम कभी नहीं करती. राजेन्द्र यादव का वह लेख मुझे आज भी याद है जिसमें उन्होंने लिखा था कि वह मन्नू जी के गुनाहगार हैं, और कुछ नहीं तो मैत्रेयी जी को उनके इसी कथन का सम्ममन करते हुए इन बातों को अपनी आत्मकथा में दर्ज नहीं करनी चाहिए थी. सम्भव है जब इंसान अपने रिश्ते में वह सब कुछ नहीं खोज पाता जो उसे चाहिए तभी वह किसी और में उन सब को तलाशने की कोशिश करता है और मेरी समझ से इसमें कुछ ग़लत भी नहीं. जो था है और जो भी है उससे कुछ बदलना नहीं है. उनके बीच का रिश्ता बस वही जान सकते हैं, बाक़ी तीसरा कोई भी बस अटकलें लगा सकता है इससे ज़्यादा कुछ नहीं.
मैत्रेयी समेत हम सब कुछ भी लिखने को स्वतंत्र ने हैं लेकिन जब आपका स्थान आम इंसान से ऊपर हो जाए और लोग आपको आपके काम से ज़्यादा आपके निजी जीवन के लिए जानने लगे तो सतर्क होने का समय आ जाता है. आप बड़ी साहित्यकार हैं, एक ऊँचे पद पर आसीन भी हैं, इसलिए आपसे इतनी उम्मीद करना कि आप इस तरह की लेखनी को अनदेखा करें भले ही वह जीवनी के हवाले से की जाए या फिर किसी और हवाले से ज़्यादा नहीं है. वे दो लोग जिनकी बातें हो रही हैं उनमे से एक की हालत ऐसी है नहीं कि वह इस पर कुछ कह सकें और दूसरा इस दुनिया में ही नहीं सकारात्मक या नकारात्मक किसी भी तरह टिप्पणी देने के लिए.
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