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रविदत्त मोहता की कविताएँ

आज प्रस्तुत हैं रविदत्त मोहता की कविताएँ – संपादक
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यादें कभी अस्त नहीं होती

मैं यादों के आसमान का
पक्षी हूँ
सदियां हो गयीं
मैं सो नहीं पाया
यादों के आसमानों का सूर्यास्त
हो नहीं पाया
कोई कहता है
मैं किताब हूं
कोई कहता
हिसाब हूं
पर मैं तो पंछी हूं
डाल पर सो नहीं पाता
और
यादों के आकाश में
सूर्यास्त हो नहीं पाता…

गंध

रात की कोई गंध नहीं होती
पर बेइंतहा पसंद होती है
सुबह में सुगन्ध होती है
पर वहां तुम नहीं होती
दिन नोकरी करने दफ्तर चला जाता है
और शामें.. मां-बाप सी बूढ़ी हो जाती है
कभी कभी लगता है
जैसे हम कुछ तारीखें हैं
और कलेण्डर सा हमारा जीवन
दीवार पर लटके लटके ही
समाप्त हो जाता है..
कल मैंने अपने बेटे को देखा था
कलेण्डर के नीचे खड़े
चुपचाप..
तारीखे गिनते..

वो जो मुझमें रहता था

मां की गोद से वो उतरा
तो फिर चल ना पाया
मुझमें एक लड़का रहता था
वो फिर मिल न पाया
मां के साथ जो चुपचाप रोता था
पिता के सब कपड़े धोता था
वो इतना छोटा था..
आज तक बड़ा हो न पाया
अपने घर का रोशनदान था वह
मां की रसोई का कटोरदान था वह
पिताजी जब कभी उदास हो जाते थे
घर का छोटा-मोटा बटुआ था वह
आजकल मुझमें वो रहता नहीं
किसी से कुछ कहता नहीं
बस देखता रहता है लोगों को
आंख से एक आंसूं भी बहता नहीं
वो कहती है ..वो मर चुका है
मां कहती है ..अभी कुछ बचा है
पिता धुंधली आंखों से उसे पूरा देखते
माँ का हाथ पकड़ते और कुछ नहीं कहते
इस तरह उसके हाल हुए बेहाल हैं
मुझमें एक लड़का रहता था
न जाने आजकल कहाँ है
लोग कहते हैं देश खुशहाल है..
दोस्त कहते हैं कमाल है
पर मैं जानता हूँ यहां कुछ नहीं है
सब कुछ है ………पर वो नहीं है..

रूहानी उदासी की धूप

देख रहा हूँ
धूप सीढ़ियां उतरकर
अब आंगन में आ बैठी है
माँ के पैरों के पास
पिसे हुए आटे जैसी
सफेद-झक..
और मां आंखों में पानी भरे
देख रही है पिताजी को
उदास..
उठाये गोदी में
यादों के बच्चे उजास
इधर पिताजी देख रहें हैं
धूप को
मां के पैरों में बैठे हुए
ऐसे
जैसे वो हो उनकी
पहली प्रकाशित किताब
उधर मैं
सीढियां चढ़कर
यह जानने की कोशिश करता हूँ
कि धूप सीढ़ियां उतरी कैसे
कोई पांव के निशान भी नहीं
उसके
सीढ़ियों पर
इधर रेडियो में गाना बज रहा है
लता जी का..
“लग जा गले के फिर ये हंसी रात हो न हो..
उधर जब देखता हूँ
तो पाता हूँ कि..
लताजी अपने ही गीत के सिरहाने
बैठी हैं मुम्बई में
चुपचाप..
और सोच रही है..
वो कौन थी
और जब यह सबकुछ देखता हूँ
तो सोचता हूँ
ये दुनियां इतनी उदास क्यों
इसकी सुबहों और शामों में गूंजता
इतना रूहानी चित्कार क्यों?

सबने पहना है

मैं उन दोनों से मिला
दोनों ने शादी पहन रखी थी
उस लड़की से मिला
वो प्यार पहने घूम रही थी
कल वो दोस्त मिला
उसने दोस्ती पहन रखी थी
कुछ परिवार ऐसे भी थे
जिन्होंने माता-पिता पहन रखे थे

आज एक आदमी मिला
उसने बताया-
“मैंने आज नया नया धोखा पहना है
और इसे आज ही मैं
किसी और को पहनाने वाला हूँ
बड़ा मजा आएगा..'”

इधर कुछ दिनों पहले
एक नेता हंसी पहने थे
भाषण करते पकड़े गए..
और तो औऱ
यहां तक हुआ है..
एक देश ने तो
संसद तक पहन रखी है

देख रहा हूँ
किसी ने बच्चे पहन रखे हैं
किसी ने देश पहन रखा है
हालात बहुत खराब हैं
ये पहनने वाले
जब चाहे पहन लेते हैं
उतार देते हैं

जैसे…
आजकल बेटों ने
मां-बाप उतार दिए हैं
लड़कियां नवविवाहित हैं
पर शादियां उतार रही है

कौन कब क्या पहन लें
क्या उतार दे
पता नहीं चलता है
इन चक्करों की वजह से
मेरा मुंह रोज उतर जाता है
आप मुझे जब देखोगे
तो जरूर कहोगे-
“अपना मुँह कहाँ उतार आए हो”
और जो मुंह पहन रखा होगा
उसका बाजार भाव क्या है,..”

थोड़ा लिखा ज्यादा समझना
अच्छा लगे तो पहन लेना
बुरा लगे तो उतार देना
सब चलता है..
सूरज भी तो आकाश में
आजकल ज्यादा जलता है…

 
      

About Tripurari

Poet, lyricist & writer

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4 comments

  1. I am the bird soaring through the timeless skies of memories, centuries passing without sleep. Some label me a book or an account, but I am a restless bird on a branch, unable to find slumber. The sunset remains elusive in the sky of memories, an eternal search.

  2. As centuries go by without a wink, I am the bird soaring through the eternal sky of recollections. To some, I may be a book or an account, but to me, I am a bird perched on a branch, desperate for sleep. It is always a search to find the sunset in the sky of recollections.

  3. I have learned alot of things in this blog. This is really helpful and informative for me.

  1. Pingback: astro pink lot

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