राकेश शंकर भारती ने जेएनयू से जापानी भाषा में उच्च शिक्षा प्राप्त की. इन दिनों यूक्रेन में हैं. कुछ दिनों पहले आपने उनकी एक कहानी पढ़ी थी जो बहुत पसंद की गयी. आज उनकी एक और मार्मिक कहानी प्रस्तुत है जिसमें देह का जादू टूटने पर एक वेश्या का अकेलापन उन्होंने बखूबी उकेरा है.
सड़क की दूसरी ओर से रेलगाड़ियों की आवाज़ कानों में गूंज रही थी। कुछ ही दूरी पर मालगाड़ी छुक-छुक करती हुई आहिस्ता-आहिस्ता पटरी पर रुकने को थी। सड़क रिक्शों, ठेलों, साइकिलों, मोटर साइकिलों, कारों और पैदल मुसाफ़िरों से खचाखच भरी हुई थी। सड़क की रफ़्तार इतनी सुस्त थी कि मैं आपको इस भीड़ का वर्णन शब्दों में नहीं कर सकता हूँ। बीस से पच्चीस क़दम आगे बढ़ने के लिए आधा घंटा से ज़्यादा समय तक गाड़ियों को इंतज़ार करना पड़ता था। कई गाड़ियाँ तो सड़क पर यूँ ही आधा घंटा से एक ही जगह पर खड़ी थीं, टसमस होने तक के लिए जगह नहीं मिल पा रही थी। सड़क के चारों तरफ़ धूल ही धूल उड़ रही थी और सड़क के किनारे-किनारे क़तार में कई पुरानी और मैली चार और पांच मंज़िली कोठियाँ खड़ी थीं। आगे की राह काफ़ी धुंधली दिखाई दे रही थी। रेलगाड़ियों, बसों, कारों और मुसाफ़िरों के शोर-शराबे फिज़ा की ख़ामोशी को नेस्तनाबूद कर रहे थे। आप थोड़ा सा आगे बढ़ेंगे तो आपको एक छोटा-सी गोशाला दिखाई देगी, और बगल में ही एक छोटा सा मंदिर भी है, जहाँ तीन-चार पुजारी हमेशा बैठे रहते हैं। पास से एक तंग गली दूसरी तरफ़ कमला मार्किट की ओर चली जाती है, जहाँ पर मुग़ल ज़माने की एक मस्जिद अभी भी खड़ी है। मंदिर से थोड़ा सा ही हटकर आगे एक सार्वजनिक पेशाबखाना है, जहाँ से ज़ोरदार बदबू आ रही थी और आसपास के माहौल और आबोहवा में दुर्गन्ध फैला रही थी। दस क़दम और आगे चलने पर 64 नंबर के कोठे के ठीक सामने सलीम चायवाला की खानदानी चाय की दुकान है। चाय की यह दुकान कई अरसे से इस जगह की ऐतिहासिक साक्षी बनकर आज तक वहीं पर मूकदर्शक बनकर खड़ी है।
चाय की दुकान से पांच क़दम हटकर अधेड़ उम्र की मध्यम क़द वाली एक औरत खड़ी थी, जिसकी उम्र पैंतालीस साल के क़रीब की लग रही थी। सड़क के बगल से होकर गुज़रने वाले ऐसे राहगीरों को इशारा करके बुलाती रहती थी, जो दिलचस्पी भरी निगाहों से कोठे की तरफ़ देखते थे। उसकी आँखें और गाल अंदर की तरफ़ धंसने लगे थे। चेहरे पर सिकुड़न के निशान साफ़-साफ़ झलकने लगे थे। अपना हुस्न को बरक़रार रखने के लिये अपनी छोटी-छोटी काली आँखों में काजल लगाई हुई थी। शदीद गर्मी की वजह से शरीर पसीना से तरबतर हो रहा था। पसीना आँखों के काजल और होंठ पर लगी हुई बैगनी रंग की लिपस्टिक से मिलकर चेहरे पर इधरउधर बेढंग होकर बिखर रहा था, जो चेहरे की सुंदरता को फीका कर रहा था। हाथों में रंग-बिरंगी चूड़ियाँ सजी हुईं थीं। बड़ी-बड़ी सोने की बालियाँ कान से नीचे कंधे की तरफ़ लटक रहीं थीं। लाल रंग की साड़ी में ढंकी हुई थी, ताकि ग्राहकों को आसानी से अपनी तरफ़ आकर्षित कर सके। तीन घंटों से वह यूँ ही चाय की दूकान के बगल में खड़ा होकर नज़दीक से होकर गुज़रने वाले राहगीरों को अपनी तरफ़ इशारा करके बुलाती रहती थी, लेकिन अभी तक कोई भी ग्राहक उसके पास नहीं आया था। कभी-कभी मायूस होने लगती थी, कभी कभी सड़क के उस तरफ़ पटरी पर पड़ी हुई बोगी को देखती रहती थी, जो कई सालों से जंग के आग़ोश में आकर खंडहर में तब्दील हो गई थी। चेहरे पर ग़म और उदासी का बादल साफ़-साफ़ झलक रहा था। पास से होकर जब नौजवानों की टोलियाँ कोठी में दाख़िल होती थीं तो उनके रास्तों को रोककर लुभाने की भरपूर कोशिश करती थी, लेकिन कोई भी ग्राहक उसकी पकड़ में नहीं आता था। वह इस तरह से बेचैन हो रही थी, जैसे कोई मछुआरा घंटों से दरिया के किनारे बैठकर मछली को पकड़ने का कोशिश कर रहा हो और मछली बंसी के पास से होकर भाग जाती हो और बिलकुल पकड़ में नहीं आती हो और फिर मछुआरा काफ़ी निराश और मायूस हो जाता हो।
पार्वती के हालात उसी नाकामयाब मछुआरा की तरह थे। वह कई घंटों से अपना सारा ताना-बाना और जाल बिछाए हुई थी, किंतु एक भी मछली अभी तक पकड़ में नहीं आई थी, जिसकी वजह से उसकी आत्मा व्याकुल हो उठती थी। जिस्मानी सजावट, कई तरह के मेक-अप और भड़कीला सिंगार भी अभी तक ग्राहकों पर कोई करिश्मा नहीं दिखा पाए थे। इतने घंटों से तमाम ताम-झाम और पैंतरे व्यर्थ जा रहे थे। आज से दस साल पहले ग्राहकों को मछलियों की तरह बंसी में फंसाने के लिये इतनी ज़्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती थी। उसने कभी सोचा तक नहीं था कि उसको ये दिन भी देखने पड़ेंगे, जब मछलियाँ तेज़ रफ़्तार से फिसलकर दूसरी तरफ़ भाग जाएँगी।
जब आज से 28- 29 साल पहले वह इस कोठा में आई थी तो उसको सबसे ऊपरी मंज़िल यानि चौथी मंज़िल में रखा गया था, जहाँ तीन सालों तक उसकी काफ़ी निगरानी होती रही थी। वहाँ तो वह बेंच पर बैठी रहती थी और सिंगार भी बहुत कम करती थी, फिर भी ग्राहक ख़ुद उसके पास बिना बुलाये आ जाता था। लेकिन आज ऐसा दिन आ गया था, जब ग्राहकों की सैंकड़ों दरख्वास्तों के बावजूद भी दिन भर में इक्के-दुक्के ग्राहक ही फँस पाते थे। कभी-कभी तो यह भी शून्य हो जाता था। खाली-खाली बैठी रहती थी। इस तरह से महीने के कई दिन व्यर्थ में चले जाते थे।
वे सारी रंडियाँ, जो अब अधेड़ उम्र की हो गईं थीं, वे अब निचली मंजिल यानि भूतल में स्थानांतरित कर दीं गईं थीं। चौथी और तीसरी मंज़िलों पर सभी नई उम्र की रंडियाँ बाज़ार को संवारतीं थीं। दूसरी मंज़िल पर 25 साल से लेकर 40 साल तक की रंडियाँ महफ़िल को संवारतीं थीं। और सबसे निचली मंजिल में चालीस साल से ऊपर की रंडियाँ रहतीं थीं, जो अपनी जवानी से लेकर आख़िर तक के लम्हों को इसी कोठे में गुज़ार रहीं थीं। ये रंडियाँ अपनी जवानी की शुरूआती दौर में यहाँ आयीं थीं और जब जवानी की आख़िरी पड़ाव में प्रवेश कर गई तो अब इस अंधेरी सी काल कोठरी में अपनी मुरझाती हुई जवानी को मायूसी के हालात में गुज़ार रहीं थीं। ऊपर की तीनों मंज़िलों में शाम ढलते ही चहल-पहल शुरू हो जाती थी। मुर्शिद और उसके बेटों के मुजरे और कव्वालियाँ शुरू हो जाते थे। महफ़िल में मौसिकी की धुन और उर्दू-हिंदी गानों के सुरूर से चार चाँद लगने लगते थे। कोठे में ग्राहकों की भीड़ जमा होने लगती थी और रंडियों के चेहरों पर फिर से रौनकता और उमंग झलकने लगती थी। लेकिन सबसे निचली मंज़िल की इस बड़ी सी अँधेरी कोठारी में अभी भी मायूसी और निराशा का बादल मंडरा रहा था।
पार्वती को आज शाम तक कोई ग्राहक नसीब नहीं हुआ और बाहर की दुनिया अंधकारमय हो गई थी। जब बीच-बीच में रेलगाड़ियों की गरजने की आवाज़ से वह परेशान हो गई तो झक मारकर उसी कोठरी में वापस लौट आई। जब वह आज से दस साल पहले तीसरी मंज़िल में थी तो वहाँ पर वह काफ़ी ख़ुश थी। पुरानी बातों को भुलाकर इस तरह से अपना धंधा में मशगूल हो गई थी कि जवानी का सबसे हसीन और सुनहरा लम्हा इतनी तेज़ रफ़्तार से बीत चुका था, इसको वह जान तक नहीं पाई थी। ऊपरी मंज़िल पर हवादार खिड़की भी थी और बाहर की तरफ़ बालकनी भी थी, जिसमें खड़ी होकर वह दूर-दूर तक फैले हुए रेलवे जंक्शन की तरफ़ निगाह को भटकाती रहती थी। रेलवे जंक्शन से होकर गुज़रती हुई हवा उसके ख़ूबसूरत रुखसार को चूम लेती थी। एक बार ज़रा-सा हाथ भी बालकनी से नीचे की तरफ़ हिला देती तो कोई न कोई ग्राहक उसकी ख़ूबसूरती के जाल में फँसकर दौड़ता हुआ ऊपर आकर अटक जाता था और गाहकों से मुँह मांगे रूपये मिल जाते थे। मगर अब तो वे दिन रहे नहीं। अब तो घंटों मेहनत करने के बावजूद भी कोई शराबी रिक्शावाला या तो फिर मालगाड़ी से बोझा ढोनेवाले मज़दूर कभी कभार भटककर उसकी इस सुनसान कोठारी में आते थे। उसपर भी पचास सौ रूपये पर ही बात बन पाती थी। ऊपरी मंजिलों में कहाँ लडकियाँ एक बार की 400- 500 रूपये से ज़्यादा ऐंठतीं थीं और दूसरी तरफ़ यहाँ पार्वती को सिर्फ़ 50-100 रूपये पर संतोष करना पड़ता था। और ऊपर से इसमें से आधा फीसद तो कोठे की मालकिन यमुनाबाई को चुकानी पड़ती थी।
जब आज पुराना जाना-पहचाना हुआ ग्राहक रामवीर, जिसका करोलबाग में कपड़ों की खानदानी दूकान है, पार्वती को देखकर बड़ी तेज़ी से अपनी शक्ल को दूसरी तरफ़ फेरते हुए ऊपरी मंज़िल की तरफ़ चला गया तो पार्वती को दिल को बहुत रंज हुआ. वह उन दिनों को याद करने लगी, जब रामवीर की शादी नहीं हुई थी, तब वह अक्सर जिस्मानी प्यास बुझाने के लिये पार्वती के पास आता था और जब उसकी बीवी गर्भवती हो गई उस वक़्त भी वह जिस्मानी प्यास बुझाने के लिये पार्वती के पास ही आया था। अब पिछले कुछ महीने से एक बार फिर से इस कोठे में आना शुरू किया है, लेकिन रंगरेली नई उम्र की रंडियों के साथ ऊपरी मंज़िल पर ही करता है। मंटू के जैसे पचास से भी ज़्यादा पुराने ग्राहक थे, जो पार्वती की तरह ही पैंतालीस साल से ज़्यादा के हो चुके थे, इनके बच्चे भी जवान हो गए थे, लेकिन ये लोग भी हफ्ते में एक-दो बार 64 नंबर के कोठे में हाज़िरी दे देते थे। दस साल पहले ये सभी पार्वती के साथ कभी-कभी जिस्मानी प्यास बुझाया करते थे। इन में से कई चेहरे पार्वती को अच्छी तरह से याद है। अभी तक इन्हें नहीं भूल पाई है। इन ग्राहकों में से कुछ की प्यार-मुहब्बत वाली घिसी पिटी बातें आज तक पार्वती के कानों में गूंजतीं रहती हैं। लेकिन अब जब ये लोग पार्वती को देखकर तेज़ कदमों से ऊपर की मंज़िलों पर चले जाते हैं और उससे एक बार भी बात तक करना मुनासिब नहीं समझते तो वह दिल से काफ़ी टूट जाती है और यह नज़ारा मायूसी और हताशा के सिवा उसको कुछ भी नहीं देत. फिर उसकी दिमाग में जवानी के उस दौर की वे सारी बातें याद आने लगतीं। उस ज़माने में अच्छा खासा पैसा जमा हो गया था, लेकिन बाद में एक कौड़ी भी वह बचा नहीं पाई। उसने नहीं सोचा था कि समय बलवान होता है और हमेशा एक से दिन नहीं रहते. उस ज़माने में एक से एक स्मार्ट आशिक़, जिनकी जेबें भरी रहतीं, पार्वती की ख़ातिरदारी में अक्सर हाज़िर रहते। उसकी चौखट पर हमेशा रौनक कायम रहती। उसके सारे आशिक़ उसके साथ क़िस्म-क़िस्म की प्यार मुहब्बत वाली दिलचस्प गुफ़्तगू किया करते। सभी उसको काफ़ी तवज्जो देते और उसकी ख़ूबसूरती की तारीफ़ में क़सीदे गढ़ते. उसने कभी-भी ज़िंदगी की हकीकत के बारे में सोचने का कष्ट नहीं किया.
जब वह नेपाल के खूबसूरत गाँव से यहाँ आई थी तो वह न ही धूम्रपान करती थी और न शराब पीती थी। इस कोठे की दुनिया में फँसकर वह शराब पीने लगी थी और धूम्रपान करने की आदत भी पड़ गई थी। फिर वह ज़िंदगी की सारी कमाई को अपने आशिकों, दल्लों और सहेलियों के साथ पी गई। वेश्यावृति इंसान की ज़िंदगी की सबसे बुरे कर्मों में से एक है। और इस पेशे की जिसको भी आदत पड़ जाती है, वह इस दलदल से कभी निकल नहीं पाता. अगर कोई जवानी की शुरूआती दिनों में इस दलदल से निकल जाती है तो कहीं न कहीं चोरी-चुपके से अपना घर बसा भी लेती है और ज़िंदगी को संवार लेती है। पार्वती के साथ क़रीब दस लडकियाँ नेपाल से आईं थीं, आधे से अधिक अपना पाँच साल का अनुबंध पूरा करके अपने वतन लौट गईं और दूर-दराज़ के पहाड़ी गांवों में अपना भविष्य को संवार चुकी थीं। लेकिन पार्वती की बदकिस्मती ने उसको इस दलदल से निकलने नहीं दिया। वह अपनी ज़िंदगी का लंबा अरसा यहाँ गुज़ार चुकी थी। अपनी जवानी को इस कोठा में गंवा चुकी थी। अब वह चाहकर भी यहाँ से नहीं निकल सकती थी।
दुनिया के हर किसी धंधे में उम्र बढ़ने के साथ-साथ लोगों को पद्दोनती मिलती है, तनख्वाह में भी इजाफा होता है। कारोबार और व्यापार में भी समय के साथ-साथ आमदनी में बढ़ोतरी होती है। लेकिन दुनिया में वेश्यावृति ही एक ऐसा पेशा है, ऐसा धंधा है, जहाँ पर अनुभव और समय बढ़ने के साथ आमदनी में और जिस्म फ़रोशी के शुल्क में गिरावट होती जाती है। पद्दोनती भीं नहीं मिल पाती है। इससे ठीक उलटा नई उम्र की रंडियों को मुँह-माँगा पैसा मिलता है। यही हाल पार्वती के साथ भी पेश आया। जब वह सोलह साल की थी तो उसको चौथी मंज़िल में जगह मिली। उसके बाद क्रमानुसार तीसरी मंजिल, दूसरी मंज़िल में आई और अब अंततः भूतल की अँधेरी कोठरी में आकर अटक गई थी, जहाँ पर बाहरी दुनिया को झाँकने के लिये एक खिड़की तक भी नहीं थी।
जब दिल नहीं लगता तो शीतल से बात करती रहती थी, जो उसी के साथ पहाड़ से यहाँ पर आई थी। शीतल की एक बेटी थी, जिसका बाप का कोई अता-पता नहीं था। उसने एक साल पहले अपनी माँ का कारोबार संभाल लिया था और चौथी मंज़िल पर अपना बाज़ार लगाती थी। उसके पास ही तीसरे बिस्तर पर सलमा रहती थी, जो राजस्थान के सीकर ज़िला से आज से 25 साल पहले यहाँ आई थी। उसको भी किसी अजनबी से एक बेटा पैदा हो गया था। बेटा अब माँ को सहारा देने लगा था। उसको तालीम हासिल करने मौक़ा कभी नहीं मिल पाया था। अब वह दल्ले का काम करने लगा था। अजमेरी गेट, कमला मार्किट, पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के इर्दगिर्द गाहकों की तलाश में मंडराता रहता था। जब कभी क़िस्मत साथ दे देती थी तो अच्छा ख़ासा पैसा कम लेता था। कभी कभी अनुभवहीन ग्राहक मिल जाता था तो हज़ारों रूपये ऐंठ लेता था। दूसरी तरफ़ लक्ष्मी बैठती थी, जो कि तेलंगना के करीमनगर से उसी ज़माने में यहाँ आई थी। उसकी हालत कमोबेश पार्वती की जैसी ही थी। वह भी बदनसीबी की दौर से गुज़र रही थी। उसको भी पार्वती की तरह ही इत्तेफ़ाक से किसी अजनबी से कोई भी संतान की प्राप्ति नहीं हो पाई थी, जो कि शीतल और सलमा को नसीब हुआ था। यही तीनों पार्वती की सबसे अच्छी सहेलियों में से एक थीं, जो आपस में अपना सुख-दुःख बाँटतीं थीं। जब ग्राहक नहीं मिल पाता तो एक दूसरे से गुफ़्तगू कर समय काटने का प्रयत्न करतीं। आपस में एक-दूसरे की आर्थिक और भावनात्मक रूप से मदद करती थीं। भावनात्मक रूप से तीनों सहेलियाँ एक दूसरे से जुड़ीं हुईं थीं। यही पार्वती का एक छोटा सा संसार था, एक छोटा सा समाज था, जिसमें उसके सगे संबंधी, भाई-बहन, बाल बच्चे यानि सभी के चरित्र समाए हुए थे।
पार्वती का जन्म काठमांडू से काफ़ी ऊपर एक सुंदर पहाड़ी गाँव में हुआ था। गाँव काफ़ी चढ़ाई पर स्थित था, जहाँ पर तीन दिन तक पैदल चलकर पहुँचने के आलावा कोई दूसरा साधन नहीं था। लोग वहाँ से रोज़गार की तलाश में मैदान में और तराई हिस्से में आते थे, क्योंकि गाँव में जीविका और धनोपार्जन का कोई भी माध्यम नहीं था। पार्वती के माँ बाप भी गाँव के अधिकांश लोगों की तरह ग़रीब थे और उनलोगों का जीवन पूर्णतः खेती पर ही निर्भर करता था। जब पार्वती दस साल की थी तो उसका पिता बीमारी की चपेट में आकर इस दुनिया से चल बसा था। अब घर में काम करने वालों में माँ अकेली बच गई थी। पहाड़ की ज़िंदगी हम जैसे मैदानी हिस्से में रहने वाले लोगों को बाहर से काफ़ी ख़ूबसूरत और सुहावनी लगती है, लेकिन इससे ठीक विपरित पहाड़ की ज़िंदगी काफ़ी मेहनतों और कष्ट की ज़िंदगी होती है। दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करने में माँ को काफ़ी पसीना बहाना पड़ता था। वह पूरा दिन अपने छोटे-से खेत में काम करती थी और बकरियाँ और भेड़ें पालती थी। पार्वती इसी उम्र में काम-काज में माँ का हाथ बंटाने लगी थी। बचपन में उसको स्कूल जाने का मौका नसीब नहीं हो पाया था। इसलिए वह हमेशा के लिये अनपढ़ रह गई थी। उसके घर से थोड़ा सा हटकर धर्म बहादुर का घर था। उसका घर दूर से देखने पर ही किसी सुखी सपन्न आदमी का घर लगता था। वह हर साल छः महीने के लिये पैसा कमाने के लिये दिल्ली आ जाता था। और पैसा कमाकर गर्मी के मौसम में घर लौट जाता था। उसके बीवी और बच्चे अच्छे कपड़े पहनते थे और अच्छा खाना खाते थे। पार्वती की माँ इसे अक्सर देखती थी। उसकी माँ की नज़र में धर्म बहादुर बहुत मेहनती और नेकदिल इंसान था।
एक बार वह दिल्ली से घर लौटा तो पार्वती की माँ को कहा, “अब तो पार्वती पंद्रह साल की हो गई है। अगर वह मेरे साथ दिल्ली जाती है तो उसको अपने जान पहचान के सेठ जी के घर में बच्चों को ख़याल रखने का काम दिला देगा. उसका बच्चा छोटा है। पार्वती उसका देखरेख करेगी। पैसा भी ठीक-ठाक मिल जाएगा और दो सालों के अंदर मेरे साथ गाँव वापस आ जाएगी। मैं आता-जाता ही तो रहता हूँ। पैसा आपको लाकर हाथ में दे दूँगा। आपकी ग़रीबी कुछ हद तक दूर हो जाएगी। सही बात बोल रहा हूँ न।“
इस पर उसकी माँ कुछ सोच विचार की और फिर मान गई, क्योंकि धर्म बहादुर एक एक अच्छा हमसाया (पड़ोसी) था और माँ को उसके ऊपर अटूट भरोसा था। पार्वती के मन में भी अब दिल्ली जाने की लालसा जगने लगी थी। वह अब जवानी की दहलीज़ पर बड़ी तेज़ी से क़दम रख रही थी। चेहरे पर ख़ूबसूरती बड़ी तेज़ी से चढ़ने लगी थी। दिल्ली के बारे में काफ़ी सुन चुकी थी। अब आँखों से इसे देखना चाहती थी। माँ को बेटी से ग़रीबी दूर करने की उम्मीद थी। अब तो माँ बीमार भी रहने लगी थी और और पूरा दिन खाँसती रहती थी। पैसे की घोर किल्लत की वजह से उसी सर्दी में माँ ने पार्वती को धर्म बहादुर के साथ दिल्ली भेज दिया। चूँकि वह उनका पड़ोसी था और पार्वती का दूर का चाचा लगता था, इसीलिए माँ उस पर विश्वास करती थी। पिता के मर जाने के बाद उन दोनों की थोड़ी बहुत मदद भी कर दिया करता था।
धर्म बहादुर पार्वती को हिमालय की आग़ोश में बसे हुआ इस छोटे से पहाड़ी गाँव से उतारकर सीधा जी. बी. रोड के इस 64 नंबर कोठा पर ले आया। अब अल्हड़ और भोलीभाली पार्वती को मालूम हो पाया कि वह तो एक दल्ले के हाथ में फँस गई है। वह 64 नंबर की चौथी मंज़िल पर रंडियों से नक़दी वसूल कर बक्से में रखता था और यमुना बाई को हिसाब दिया करता था। वह यमुना बाई के लिये कई सालों से काम करता आ रहा था।
इस तरह से पार्वती कोठे की इस दलदल और बदबूदार दुनिया में फँस गई थी। इस घटना ने उसकी ज़िंदगी के रुख को पूरब से पश्चिम की तरफ़ मोड़ दिया था. धर्म बहादुर ने कुछ पैसा माँ को तो ईमानदारी से पहुँचा दिया था, लेकिन वह दिल से काफ़ी टूट गई थी। धर्म बहादुर ही उसकी ज़िंदगी का पहला ऐसा मर्द था, जिसने उसे कच्ची कली से फूल बना दिया था। और फिर उसके बाद यमुना बाई को एक सेठ ने शगुन में मोटी रक़म दी और वो इस मासूम कली को दो हफ़्ता तक चूसता रहा। वह चाहकर भी इसे नहीं रोक सकी।
उसके बाद तो वह पूरी तरह से खुल चुकी थी। उदासी और भय की दुनिया से तीन महीने के अंदर ही बाहर निकल आई। और कोठे की रंगीन दुनिया में इस तरह खो गई कि तीस साल किस तरह बीते, इसका उसे पता भी नहीं चला। तीन साल बाद वह घर लौटी किंतु तब तक माँ बीमारी से पूरी तरह से ग्रसित हो चुकी थी। बेटी के घर लौटते ही माँ एक महीने के अंदर ही चल बसी। फिर तो वह अकेली घर में उदास रहने लगी थी। उसके कोई भाई-बहन भी नहीं थे और अब तो माता- पिता भी इस दुनिया में नहीं रहे थे। उसको आगे का भविष्य दूर दूर तक अंधकारमय दिखाई दे रहा था.
वेश्यावृति को हमारे समाज में एक कलंक के रूप में देखा जाता है और जो लड़की जिस्म फ़रोशी की दुनिया से बाहर निकलकर इस समाज में रहना चाहती है तो उसके लिये यहाँ जीना बहुत मुश्किल है। गाँव में हर कोई जान गया था कि वह दिल्ली में रंडीबाजी करती थी। हर गाली हर तरह के प्रताड़ना को वह बर्दाश्त कर सकती है, लेकिन कोई यह बोल दे कि श्याम बहादुर की बेटी रंडी है तो यह अपमान उसको कतई बर्दाश्त नहीं हो पाता था। अपने स्वर्गवासी बाप के इस अपमान को बिलकुल सुनना नहीं चाहती थी। अब उसको आस-पड़ोस के लोगों से चिढ़ और घृणा होने लगी थी। दिल में क्रोध और नफ़रत का ज्वाला फूटने लगा था। वह कर भी क्या सकती थी?
इस गाँव में तो वह बिलकुल तनहा पड़ गई थी। इसीलिए फिर से उसको उस कोठे की याद आने लगी थी, जहाँ पर कम से कम उसके आशिक़ उसकी ख़ूबसूरती की तारीफ़ में शेरो शायरियाँ कहा करते थे। कम से कम उन ग्राहकों की बातों से तो रूह को सुकून और तसल्ली मिलती थी। अब उसको दिल्ली के कोठे की उस रंगीन दुनिया की याद सताने लगी थी, इसी कारणवश घर में ताला मारकर चाबी पड़ोसी को दे दी और फिर से कोठे की इसी रंगीन दुनिया में लौट आई थी। तब से लेकर आजतक वह यहीं पर फँसी रह गई थी।
इस तरह से ज़िंदगी के तीस साल उसने इस कोठे को दे दिए. जब इधर कुछ सालों से ग्राहकों की दस्तक उसकी चौखट पर घटने लगी तो हताशा और उदासी में खोने लगी. वह अँधेरी कोठरी से बाहर निकल जाती थी और सामने सड़क की दूसरी तरफ़ पटरी पर खड़ीं रेलगाड़ियों की पुरानी बोगियों को देखती रहती थी। जो पार्वती की तरह ही पिछले कई सालों से वहाँ पर यूँ ही लावारिस पड़ीं हुईं थीं। डिब्बों में जंग लग गया था और तेज़ी से सड़ गल रहे थे। वह सोचती थी कि कभी इस डिब्बे में भी हर क़िस्म के मुसाफ़िर चढ़े होंगे और इसमें बैठकर दूर दूर तक सफ़र तय किये होंगे। कितने नदियों,पुलों, जंगलों, खेत- खलिहानों से गुज़रते हुए अपने गंतव्य स्थान पर पहुँचते होंगे. लेकिन आज इस जंग की आग़ोश में समाई हुई रेलगाड़ी की बोगी को कौन पूछता है। थोड़ी ही दूर पर दूसरी पटरियों पर आधुनिक युग के नई बोगियाँ कई प्रकार के रंगों से चकाचौंध हो रहीं थीं। जिसकी तरफ़ भी कभी-कभी ध्यान चला जाता था, मगर उसका ध्यान इस बोगी पर ही बार-बार आकर अटक जाता था। यह उसे मायूसी, उदासी के अलावा कुछ भी नहीं देती थी।
उसको जंग लगे हुए इस डब्बे से जज़्बाती लगाव हो गया था। कमोबेश अपने आपको भी इसी पुराना डिब्बे की तरह महसूस कर रही थी, जो अब किसी पुराने खंडहर की तरह ही प्रतीत होता था। अब इसमें कुत्ते और चूहे मंडराते रहते थे। वह महसूस कर रही थी कि लोगों ने भी इस डिब्बे को इस्तेमाल किया और अब पुराना हो गया, खंडहर में तब्दील हो गया तो कोई इसे पूछता तक नहीं है। अपने आप को भी इन्हीं हालात में पा रही थी। अपने जैसी हालत में किसी और को भी पाकर, इंसान को उससे हमदर्दी हो जाती है। सोच रही थी की इसी रेलगाड़ी की तरह कितने मुसाफ़िर उसकी ज़िंदगी में आए, सवारी की और चले गए। जिस तरह मुसाफ़िर रेलगाड़ी में सफ़र करते हैं और अपना मुक़ाम को हासिल करते ही उसे छोड़कर बड़ी तेज़ी से बाहर निकल जाते हैं। कोई यहाँ पर हमेशा नहीं ठहरता है, उसी तरह जैसे कि उसकी जवानी के दौर में सैंकड़ों ग्राहक आए और रेलगाड़ी की मुसाफ़िर की मानिंद ही यहाँ अपना सफ़र मुकम्मल करने के बाद नहीं ठहरे।
जब कभी कभी बहुत ज़्यादा मायूस होने लगती तो सलीम चाय वाले से गुफ़्तगू करके दिल को बहलाती रहती थी। सलीम चाय वाला अपने वालिद के इंतक़ाल के बाद पिछले कई सालों से अकेला ही चाय बेचता आ रहा है। वह भी अब बूढ़ा हो गया था। वह पार्वती के सुनहरे लम्हों से लेकर अभी तक की बदहाली का गवाह बनकर इस कोठे के गेट के सामने चाय बेचता आ रहा है। वह पार्वती को कभी-कभी मुफ़्त में चाय, पान और गुटखा दे दिया करता था। जब इन सब चीज़ों से भी उसका दिल आजिज हो जाता था तो वह वीर बहादुर के पास कुछ देर बैठकर नेपाली में बात कर लेती थी और अपने वतन के समाचार पूछ लेती थी।
वीर बहादुर उसके आस पास के पहाड़ी गाँव से ही यहाँ आया था और रिश्ते में धर्म बहादुर का दूर का भाई लगता था। अपने देशवासियों से बात करके दिल को थोड़ा बहुत सुकून मिलता था। कुछ तो राहत मिल जाती थी। जब वह सड़क के किनारे खड़ी खड़ी थक जाती थी और कोई ग्राहक भी नहीं मिल पाता तो उसी अंधेरी कोठरी में वापस लौट आती थी, जहाँ रात हो या दिन, हमेशा एक बल्ब टिमटिमाता रहता था और बल्ब में उतनी शक्ति नहीं थी कि वह पूरी कोठरी को जगमगा पाए। कोठरी के दरवाज़े के पास से ही होकर एक तंग सीढ़ी ऊपर की मंज़िलों की तरफ़ चली जाती है। वह दरवाज़े के पास अपनी सहेलियों शीतल, सलमा और लक्ष्मी के साथ बैठ जाती थी और जब कोई ग्राहक ऊपर की तरफ़ चढ़ता तो अपनी सहेलियों के साथ गाहकों को पटाने के लिये तरह तरह की जिस्मानी नुमाइश करती थी। गाहकों को बताती कि यहाँ का रेट ऊपर से तीन चार गुना ज़्यादा सस्ता है और यहाँ पर सब कुछ खुलकर करने की आज़ादी है। इतना कुछ करने के बावजूद भी ग्राहक वहाँ पर नहीं ठहर पाता था। कभी कभार इक्का दुक्का ग्राहक बड़ी मुश्किल से पट पाता था। जब उसको कुछ भी हाथ नहीं लगता तो वह निराश होकर कोठरी के अंदर घुसकर लेट जाती थी और सामने दीवार में टंगी हुई शंकर भगवान की बड़ी सी तस्वीर को आशा और श्रद्धा की निगाहों से देखते हुए सिगरेट पीने लगती थी। जब बिस्तर पर लेटे लेटे नींद नहीं आती थी तो फिर से कोठे से बाहर निकलकर सलीम चाय वाले की दुकान के पास खडी होकर धूल उड़ रही सड़क पर नज़र को फैलाकर पास से गुज़रने वाले मर्दों के शक्लों को निराशा भरी निगाह से देखने लगती थी। कभी वह फिर से खंडहर में तब्दील उसी पुरानी बोगी को देखने लगती थी। और उस बोगी की ज़िंदगी के बारे में कल्पना करने लगती थी। सामने से छुक-छुक करती हुई मालगाड़ी तेज़ रफ़्तार से आगे की तरफ़ निकलती हुई उसकी दृष्टि से ओझल हो जाती थी। इस पर वह दोबारा से अपने बचपन से लेकर अभी तक के सफ़र के बारे में सोचने लगती थी।
अपनी दिमागी दुनिया में वह इस मालगाड़ी और अपनी ज़िंदगी के दरम्यान तुलनात्मक अध्ययन में खो जाती थी। सोचने लगती कि रंडी की जवानी और ज़िंदगी भी इसी मालगाड़ी की तरह है, जो तेज़ रफ़्तार से कहाँ से कहाँ तक चली जाती है, इसका पता भी नहीं चल पाता है। अभी कुछ ही साल पहले वह एक ख़ूबसूरत हसीना थी। ग्राहक उसकी सुंदरता की तारीफ़ में क़सीदे गढ़ते थे और शेरो शायरियाँ कहते थे। उस वक़्त इन बातों को सुनकर वह काफ़ी ख़ुश होती थी, लेकिन इधर कई सालों से किसी भी ग्राहक से अपनी ख़ूबसूरती की तारीफ़ को सुनने के लिये बेताब हो रही थी। इसी दरम्यान कभी कभी अपना स्वर्गवासी पिता को याद करने लगती थी, जो उससे और उसकी माँ से बेपनाह प्यार करता था। उसके जीते जी कभी उन लोगों को ग़रीबी का एहसास तक नहीं हुआ था। फिर माँ के बारे में सोचने लगी, जिसको बीमारी के दिनों में बेटी का सहारा तक नहीं मिल पाया था। जो कुछ पैसा धर्म बहादुर ने उसकी माँ को दिया था, उसका उसे कोई लाभ नहीं मिल पाया।
सोचने लगी- अगर वह दिल्ली के इस कोठे की दुनिया में नहीं फँसती तो उसकी ज़िंदगी का सितारा किसी दूसरी दिशा में चमक रहा होता। माँ भी नहीं मरती और अपना ख़ुशहाल घर होता। हर लड़की की तरह मेरी भी शादी होती। पति उसको ख़ूब मुहब्बत करता और अपने सीने से लगाता। अपना घर आबाद होता और बच्चे होते जो मुझे खुशियाँ देते, ज़िंदगी की आख़िरी दिनों उनका सहारा मुझको नसीब होता।
ज़िंदगी के आख़िरी लम्हे कैसे गुज़रेंगे, इसे सोच कर परेशान होने लगती थी। इधर कुछ महीने से वह इन सारी बातों को सोचकर काफ़ी जज़्बाती हो जाती थी और आँखों से आँसू मोती के बूंदों की तरह छोटी छोटी काली आँखों से टपककर लिबास को गीला करने लगे थे। फिर उसके दिल में क्रोध और प्रतिशोध का बीज अंकुरित होने लगा। अक्सर धर्म बहादुर पर गुस्सा फूटने लगता था, जिसने धोखा से उसको इस्मत फ़रोशी के इस दलदल में धकेल दिया था। वह उसकी वर्जिनिटी को तोड़ने वाला पहला शख्स था और बचा खुचा काम सेठ जी ने तमाम कर दिया था। उसके बाद वह दूसरी बार घर लौटने की साहस नहीं कर पाई। कोठे की दुनिया में वह पूरी तरह से खुल चुकी थी और शर्मो ह्या दिल से गायब हो चुका था। अब यह कोठा ही उसका घर था।
जब इन सारी बातों को सोचकर वह काफ़ी चिंतित हो जाती तो सलमा उसको ढाढ़स दिलाने लगती थी। वह कहती थी- मेरा बेटा है न। तुमको कुछ भी होगा तो वह मदद करेगा। जब तक मैं यहाँ हूँ, तब तक हम दोनों साथ साथ रहेंगे। एक दूसरे को मदद करेंगे। तुम रोती क्यों हो? हम तवाइफों की ज़िंदगी ही ऐसी है, इस पर रोना धोना बेकार है। और तुम अपनी माज़ी को (अतीत) भुला दो। गड़े मुर्दे को उखाड़ने से कुछ भी फ़ायदा नहीं होगा।
शीतल भी ढाढ़स दिलाती थी। और लक्ष्मी हमेशा बोलती थी- यहाँ तुम अकेली नहीं हो। मैं भी तो तुम्हारे साथ रहती हूँ। हमारे जैसे कितने यहाँ पर रहते हैं।
इन सहेलियों की बातों को सुनकर उसने आंसू सुखा लिए और अगले दिनों के धंधे के बारे में सोचने लगी। शाम को चारों सहेलियाँ मिलकर व्हिस्की खरीदतीं थीं नशे में खोने की कोशिश करती लेकिन व्हिस्की भी अब उन पर कुछ असर नहीं कर पाती थी.वह अगले सफ़र के बारे में सोचने लगती, लेकिन एक क़दम आगे बढ़ने तक का रास्ता दिखाई नहीं देता था। फिर वह मदहोश आँखों से महादेव की मूर्ति की तरफ़ देखने लगती जो बगल में ही लक्ष्मी के बिस्तर के पास एक छोटी सी कुर्सी पर आसीन थे। आशा और सकारात्मकता भरी दृष्टि से महादेव को देखने लगती थी। धंधा शुरू होने से पहले हर सुबह इस पर फूल-माला और अगरबत्ती चढ़ाना नहीं भूलती थी और सफल दिन का कामना करती थी। और जब कभी नशे में धुत्त हो जाती थी, तब भी महादेव को अपना स्वामी के रूप में सम्मान करती थी। महादेव पर उसको अटूट भरोसा था। उसको हमेशा विश्वास था कि महादेव ही उसका बेड़ा को पार लगाएँगे। लेकिन एक वह पार्वती थी, जिसका पति महादेव थे और दूसरी तरफ़ यह पार्वती है, जिसका कोई पति नहीं है, कोई नाथ नहीं है। शादी करने की ख्वाहिश तो अब हर दिन मायूसी के आलम में मरती जा रही है। अब तो वह बस महादेव को ही अपना स्वामी मान चुकी है।
इधर कई दिनों से वह काफ़ी परेशान रहती थी। अपने पुश्तैनी घर के सामने के बगीचे, पेड़-पौधे, सामने दूसरी पहाड़ पर झरने के उन सुंदर दृश्यों को काफ़ी मिस (miss) किया करती थी। उन्हें देखने की काफ़ी चाहत होती थी। लेकिन वह ऐसे क़ैदखाने में बंद थी, जहाँ शुरूआती दिनों की तरह अब ताला नहीं लगता था, लेकिन इतने सालों बाद इस क़ैदखाने से आज़ाद होकर भी अपने आप को अंदर से गुलाम महसूस करती थी। दिल और दिमाग़ से वह गुलाम हो चुकी थी। कहीं भी जाने के लिये आज़ाद थी, लेकिन अब वह चाहकर भी कहीं जा नहीं पाती थी। अब तो अपनी ज़िंदगी को ही क़ैदखाना समझ बैठी थी। कभी कभी अपने आपको मधुमक्खी के छज्जे की तरह महसूस करती थी, जिसका रस आशिक़ों ने चूस लिया. इस तरह की सैंकड़ों बातों को सोचते हुए वो सो गयी।
सुबह हो गई थी और बाहर गाड़ी- घोड़े और रेलगाड़ियों की आवाज़ फिज़ा की ख़ामोशी में ख़लल डाल रही थी। ऊपरी मंज़िल से नेपाली लड़कियों की रोने की आवाज़ कानों में गूंजने लगी। अचानक पार्वती की नींद टूट गई। वह उठकर बैठ गई और आँखों को मलते हुए सोचने लगी- ये लड़कियाँ, मेरे हम-वतन क्यों रो रहे हैं? क्या कोई घटना घट गई है? कोई लड़की ऊपर मर तो नहीं गई? आख़िर इस रोने धोने का क्या रहस्य है?
अब वह दौडकर ऊपरी मंज़िल की तरफ़ बढ़ी। जैसे ही वहाँ पर पहुँची, वैसे ही पाया कि कई लड़कियाँ ज़ोर ज़ोर से छाती पीट पीटकर रो रही है। आगे पूछने पर पता चला- आज सुबह काठमांडू के आसपास विनाशकारी भूकंप आया है और सबकुछ तबाह हो चुका है। बहुत सारे घर तहस-नहस हो गए हैं और हजारों की संख्या में लोग हताहत हुए हैं। इसमें कई लड़कियों के सगे संबंधी भी मरे गए।
सामने वीर बहादुर चुपचाप बैठा हुआ था और उसकी आँखों से बदस्तूर आँसू टपक रहे थे। उसको देखकर पार्वती पूछती है- तुम क्यों आँसू बहा रहा बे? तुम्हारा भी कोई सबंधी भूकंप के चपेट में आया है क्या?
इस पर वीर बहादुर के मुँह से कुछ शब्दें निकलते हैं- “मेरा मौसेरा भाई धर्म बहादुर भी अपने बीवी बच्चे सहित भूकंप के तेज़ झटके में घर में दबकर मारे गए हैं। गाँव में काफ़ी लोग भूकंप में अपना जान गँवा चुके हैं। सबकुछ तबाह हो गया है।“
यह बोलकर वीर बहादुर बिलख बिलखकर रोने लगा। लेकिन पार्वती की आँखों से बिलकुल आँसू नहीं निकले। उसके गुलाबी चेहरे पर मुस्कराहट और ख़ुशी की लहर बिखरने लगी। इसे देखकर वीर बहादुर काफ़ी अचरज में पड़ गया। किंतु पार्वती पर इन लोगों के रोने धोने का कोई असर नहीं हुआ। अब वह भावनात्मक संसार से कोसों दूर जा रही थी।
अगला रोज़ सुबह के दस बजे के क़रीब बैग में अपना सारा समान को पैक की और रेलवे स्टेशन की तरफ़ चलने लगी। उसकी सहेलियाँ शीतल, लक्ष्मी और सलमा की आँखों से आँसू के बूदें टपक रहे थे। इतने सालों बाद अपनी हम-अज़ीज़ सहेली को नम आँखों से विदाई दे रही थी।
वीर बहादुर तीसरी मंज़िल से पार्वती की तरफ़ टकटकी निगाह से देख रहा था। सामने सलीम चाय वाला एक पान लगाकर पार्वती को दे दिया। पार्वती पान को ख़ुशी और शान से चबाती हुई रेलवे जंक्शन की तरफ़ आहिस्ता आहिस्ता बढ़ती जा रही थी। उसकी सहेलियाँ, सलीम चायवाला और वीर बहादुर अभी भी उसकी तरफ़ टकटकी निगाह से देख रहे थे।
कुछ पलों के अंदर ही वह हमेशा के लिये इन लोगों के नज़रों से ओझल हो गई।
बहुत ही बेहतरीन अंदाज में आपने समाज से तिरस्कृत लोगो की सच्चाइयो को सबके सामने रखा है। आपकी कहानी ने दिल को झकझोर कर सोचने पर विवश कर दिया।
Waah betarin rakesh bhai
Waah rakesh bhai..
दिल को झकझोरने वाली बातें आपने राकेश जी प्रस्तुत किए और दिव्या विजय को मैं हार्दिक शुभकामनाएं दूंगा जिन्होंने आपकी इस प्रसंगों को परोसने का अतुलनीय कार्य को निष्पादित की हैं।
बहुत ही मार्मिक और दिल को छू लेने वाली बातें अपनी उकेरी है प्रिय आशा है और इसी तरह के शरीर को झनझना देने वाली एंव सङ्घर्ष रहित भवार्थो से रूबरू होंगे
साभार!
Thanks to janki pul too…
प्रिय राकेश शंकर भारती जी मैं ये लगाकर तीन बार कोठा नम्बर 64 पढ़ रहा हूँ,हरबार एक नई विचार कौंध जाती है आपके इस स्मृति लेखनी में,और जो भी मेरे अंदर नई शब्द उभरते है वो स्वयं में विचारोन्मुक्त है,स्वछंदता लिए है.कह सकते है यह मेरी सबसे पसंदीदा लेख हो गई है अब,
आपका तहे दिल से आभार व्यक्त करूँगा जो हमें इतनी सुंदर कथा जो कि भाव विव्हलता लिए धरातल पर एक नई सोच व दिशा को दिखा रही है,
साभार!
Hello2. And Bye2.
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