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भारत भूषण पुरस्कार कवि का अवमूल्यन भी कर देता है !

पिछले कुछ सालों से युवा कविता के सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार मिलने के बाद बहस-विवाद की शुरुआत हो जाती है. बहस होना कोई बुरी बात नहीं है. भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार की शुरुआत साल की सर्वश्रेष्ठ युवा कविता को पुरस्कृत करने के लिए किया गया था. लेकिन साल की सर्वश्रेष्ठ युवा कविता का निर्धारण कैसे हो? यह एक बड़ा सवाल है. जब एक निर्णायक इसका निर्धारण करता है तो उसकी व्यक्तिगत पसंद-नापसंद से पुरस्कार का प्रभावित होना लाजिमी है. और सबको यह मान भी लेना चाहिए कि एक वरिष्ठ कवि ने साल की अपनी पसंदीदा कविता का चुनाव किया है. लेकिन एक सवाल और है कि ऐसे समय में जबकि हिंदी में पहले से पारदर्शिता अधिक बढ़ रही है, संवाद की सम्भावना पहले से बढ़ी है क्या एक व्यक्ति को पुरस्कार निर्धारित करने का अधिकार देना क्या उसी मठाधीशी की परम्परा को बढ़ावा देना नहीं है जिसके खिलाफ हिंदी की युवा पीढ़ी सबसे अधिक खड़ी है? बहरहाल, ये विचार मेरे हैं. आप पढ़िए युवा लेखक विमलेन्दु का लेख- प्रभात रंजन
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एक ज़माना था जब भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार युवा कवियों में कविता की प्राण-प्रतिष्ठा जैसा माना जाता था. भारत भूषण अग्रवाल जैसे अति साधारण कवि की स्मृति में स्थापित इस पुरस्कार की आस और प्रतीक्षा असाधारण होती थी. 35 वर्ष से कम आयु के हर युवा कवि का यह सपना होता था कि कभी यह पुरस्कार उसे भी मिल जाए. राजधानी और अन्य साहित्यिक केन्द्रों, पत्र पत्रिकाओं से जुड़े युवा कवि, निर्णायकों के आस पास मंडराने लगते थे. 1979 से शुरू हुए इस पुरस्कार को अब 37 वर्ष हो गए हैं. युवा कवियों में आज भी वैसा ही रोमांच है इसे लेकर. हर वर्ष जब इस पुरस्कार की घोषणा होती है तो साहित्य की हिन्दी पट्टी एक अस्थायी कर्बला में तब्दील हो जाती है. अपने को कतार में शामिल माने हुए कवि मोहर्रम मनाने लगते हैं. ओवरएज हो चुके कवि किंचित दार्शनिक हो जाते हैं. वे पुरस्कारों/सम्मानों की निरर्थकता निरूपित करते हुए उसे माया सिद्ध कर देते हैं. ठीक 36 का हुआ अपुरस्कृत युवा कवि अब जानता है कि दूसरी कोटि के पुरस्कार बुजुर्ग लेखकों को साहित्यिक-सेवानिवृत्ति के लिए दिए जाते हैं, जिसके लिए अभी से हाथ-पैर मारने का कोई औचित्य नहीं.
सवाल उठता है कि आखिर भारत भूषण पुरस्कार में क्या ऐसा है जो युवा कवियों को इस तरह लालायित किए रहता है. अल्प राशि का एक गैर-सरकारी पुरस्कार! इसकी शुरुआत ठीक उसी तरह की भावुकता के साथ हुई थी जैसे आज भी कई लोग अपने अल्पख्यात माँ-बाप की स्मृति को बचाए रखने और मरणोंपरांत पैदा हुई संवेदना को यश में बदल देने की दयनीय भावना से प्रेरित होकर, उनके नाम पर कोई पुरस्कार/सम्मान की स्थापना कर देते हैं. स्वर्गीय भारत भूषण अग्रवाल की पत्नी बिन्दु अग्रवाल ने भी कुछ इसी तरह की भावुकता में यह पुरस्कार स्थापित किया था. उनकी खुशकिस्मती यह थी कि उन्हें घाघ कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी का साथ मिल गया. उन दिनों अशोक जी को यह शिफ़त हासिल थी कि वे पत्थर को हीरे की तरह चमका सकते थे. अत: भारत भूषण पुरस्कार अपनी शुरुआत से ही युवाओं के लिए वरेण्य हो गया. एक खास वजह यह थी इसके महत्वपूर्ण हो जाने की, कि इसके निर्णायक मंडल में हिन्दी की शीर्ष हस्तियों को रखा गया.
हिन्दी की शीर्ष साहित्यिक हस्तियाँ निर्णायक मंडल में सहर्ष शामिल हुईं क्योंकि यहाँ उन्हें स्वायत्तता दी गई. हर वर्ष कोई एक निर्णायक, उस वर्ष प्रकाशित किसी एक कविता को चुनता है. शर्त बस इतनी है कि यह कविता, 35 वर्ष की आयु से कम किसी कवि की होनी चाहिए. यद्यपि योजना में तो यह था कि कविता चुनी जाये लेकिन बहुधा यह हुआ कि निर्णायक अपना कवि चुन लेता है. साहित्य जगत की कुछ अंतरंग जानकारियों के आलोक में मैं यह कह रहा हूँ कि कई बार ऐसा होता है कि पहले व्यक्ति पुरस्कार के लिए चुन लिया जाता है, फिर उससे कविता या किताब तैयार करवायी जाती है. भारत भूषण, साहित्य अकादमी, ज्ञानपीठ पुरस्कारों में ऐसा कई बार हुआ है. भारत भूषण पुरस्कार के चयन की प्रक्रिया निर्णायकों को ऐसी स्वायत्तता देती है जिससे उन्हें अपने मठ बनाने अथवा अपने मठ को मजबूत करने के लिए एक प्रखर युवाशक्ति मिल जाती है.
भारत भूषण पुरस्कार के लिए युवा कवियों की विकराल उत्कंठा इसलिए है कि इस पुरस्कार के मिलते ही वह शेष युवा कवियों से अलग हो जाता है. वह अनेक संघर्षरत युवा कवियों से श्रेष्ठ हो जाता है. रातों रात उसे कीर्ति मिल जाती है. पत्र-पत्रिकाओं के संपादक उसे फोन करके कविताएं मगाते हैं और प्रेस में पहुँच चुकी पत्रिका के ताज़ा अंक से, आठ महीने की प्रतीक्षा के बाद छपने का सौभाग्य प्राप्त करने जा रही किसी युवा कवि की कविताओं को हटाकर, पुरस्कृत कवि की कविताएं एक कृतज्ञ टिप्पणी के साथ छप जाती हैं. कोई महत्वपूर्ण प्रकाशक छ: महीने के भीतर ही ‘भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित’ कवि का संग्रह छाप देता है. अब यह दीगर बात है कि कई बार यही संग्रह उस कवि का आखिरी संग्रह भी साबित होता है. पुरस्कार मिल जाने के बाद कुछ महीनों तक कवि देश के कोने कोने में आमंत्रित होने लगता है. कम उम्र में कुछ शॉल-श्रीफल संग्रह कर लेता है. वरिष्ठों के साथ मंच साझा करने का गौरव उसके व्यक्तित्व को कुछ विचित्र ढंग से विकृत कर देता है.
यद्यपि युवा रचनाकारों के लिए कुछ और पुरस्कार भी हैं देश में. साहित्य अकादमी नवलेखन पुरस्कार देती है, जहाँ भारत भूषण पुरस्कार से भी ज्यादा भ्रष्टाचार है, लेकिन भारत भूषण का महात्म्य इन सबसे ज्यादा है. पिछले 38 सालों में 37 युवा कवियों को यह पुरस्कार दिया जा चुका है. 2015 में यह पुरस्कार किसी को नहीं दिया गया. निर्णायक अशोक वाजपेयी ने बताया कि इस वर्ष कोई भी कविता पुरस्कार के योग्य छपी नहीं मिली. उन्होंने यह भी बताया कि ‘ समास-10 ‘ में छपी ‘पेड़’ कविता की उन्होंने अनुशंसा की थी लेकिन कवि की उम्र 35 वर्ष से अधिक पायी गई. खैर, चौंकाना अशोक जी का स्वभाव है. पता नहीं उनसे किसी नें पूछा या नहीं कि अब तक चुनी गई सभी कविताएं क्या सचमुच पुरस्कार के योग्य थीं ?
पहला भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार 1979 में अरुण कमल को कविता ‘ उर्वर प्रदेश ‘ पर मिला था. अरुण जी आज हिन्दी के शीर्षस्थ कवि हैं. उदय प्रकाश, कुमार अंबुज, देवी प्रसाद मिश्र, पंकज चतुर्वेदी आज हिन्दी के प्रतिनिधि कवि हैं. लेकिन इनके अलावा भारत भूषण पुरस्कार प्राप्त कोई ऐसा कवि नहीं है जिसने आगे चलकर हिन्दी कविता में कोई विशिष्ठ पहचान बनाई हो. क्या यह पुरस्कार युवा कवियों के लिए अपशकुन साविता हो रहा है ? पिछले कुछ वर्षों से जितने लोगों को यह पुरस्कार मिला, सब कवि रूप में वितुप्त होते गए. बद्रीनारायण को ‘प्रेमपत्र’ कविता पर जब भारत भूषण मिला और उसी शीर्षक से उनका संग्रह आ गया, तो लगा कि एक बड़ा कवि हिन्दी को मिलने जा रहा है. लेकिन उनका कवि गायब हो गया और वे शोध की ओर प्रवृत्त हो गए. ऐसी ही उम्मीद हेमन्त कुकरेती से जगी थी लेकिन वे भी औसत होकर यदा कदा ही दिखते हैं. 2014 में अशोक वाजपेयी के भतीजे आस्तीक वाजपेयी को उनकी कविता ‘विध्वंश की शताब्दी’ पर जब अरुण कमल ने उन्हें भारत भूषण दिया, तब खूब हल्ला हुआ औ कहा गया कि अरुण कमल ने अशोक वाजपेयी का ऋण चुकाया है. बहरहाल तब से आस्तीक भी गायब हैं. पिछले छ: सालों में व्योमेश शुक्ल(2010), अनुज लुगुन(2011), कुमार अनुपम(2012), प्रांजल धर(2013) को भी भारत भूषण मिला, लेकिन इनमें हिन्दी का प्रतिनिधि कवि बनने की कूव्वत अब तक नहीं दिखी.
वर्ष 2016 का पुरस्कार एक अल्पज्ञात कवियत्री शुभमश्री को दिया गया था. बिहार के गया की रहने वाली शुभमश्री ने दिल्ली युनिवर्सिटी के लेडी श्रीराम कालेज से स्नातक और जेएनयू से स्नातकोत्तर और एम.फिल. किया है. इस वर्ष के निर्णायक थे उदय प्रकाश. उन्होंने इस बार भी पुरस्कार के लिए व्यक्ति को चुना कविता को नहीं. ऐसा कहा जा रहा है कि उन्होंने पहले से तय कर रखा था कि पुरस्कार किसी कवियत्री को देना है. खैर कहने वाले तो कुछ भी कहते रहते हैं. लेकिन लोगों की बात इसलिए सच लग रही है कि शुभमश्री की जिस कविता-‘पोएट्री मैनेजमेंट’- को उदय प्रकाश ने पुरस्कृत किया है, असल में वह कविता है ही नहीं. न कथ्य, न शिल्प, न काव्यमूल्य के लिहाज से. शुभम की कथित कविता, कुकुरमुत्तों की तरह उग आए कवियों और उनके खोखलेपन पर एक सतही व्यंग्य है. व्यंग्य भी कम उपहास अधिक. यह कथ्य न तो नया है और न ही इसका कोई व्यापक साहित्यक मूल्य है. यह कविता कुछ बेहतर हो सकती थी अगर शिल्प और भाषा में ही कुछ विलक्षणता होती. शुभमश्री इस कविता में उसी तरह की कवियत्री नज़र आती हैं, जिनका उन्होंने उपहास किया है. जवकि वो इससे बेहतर कवि हैं.
उदय प्रकाश के लिए कविता चयन करने का यह दूसरा मौका था. उन्होंने जाहिर कर दिया कि वो कैसे चयन करेंगे. 2011 में उन्हें एक आदिवासी कवि चुनना था. तब अनुज लुगुन को चुना. अनुज की कविता ‘अघोषित उलगुलान’ किसी को समझ नहीं आयी थी. अलबत्ता उदय प्रकाश जी को वह आदिवासी जीवन की त्रासदी का आख्यान लगी थी. बहरहाल भारत भूषण पुरस्कार के लिए यह कोई अनहोनी नहीं थी. ज्यादातर ऐसा ही होता रहा है. इस वर्ष भारत भूषण पुरस्कार अच्युतानन्द मिश्र को मिला है. निर्णायक थीं अनामिका. इस चयन पर फौरी तौर पर इतना ही कहूंगा कि पिछले दो पुरस्कारों से यह बेहतर चयन है. यद्यपि जिस कविता को पुरस्कृत किया गया है वह भटकी हुई कविता है और की प्रतिभा के साथ न्याय नहीं करती. भारत भूषण पुरस्कार की यह सबसे बड़ी खामी है कि वह कई बार कवि का अवमूल्यन कर देता है. हालाँकि कवि की आयु को लेकर कुछ दावे किए जा रहे हैं कि वे 35 वर्ष की आयु-सीमा का अतिक्रमण कर चुके हैं. हिन्दी कवियों के संसार में उम्र को लेकर एक मासूम किस्म की दरियादिली रही है. यहाँ तब तक किसी कवि को युवा माना जाता है जब तक वह बेकार नहीं हो जाता.
आपने गौर किया होगा कि अपने देश में साहित्यिक पुरस्कारों में ही हंगामा होता है. किसी अन्य विधा में कोई उँगली नहीं उठती. असल में साहित्य और कला का कोई पुरस्कार सर्वश्रेष्ठ के लिए नहीं होता. साहित्य और कला का कोई भी चयन अनन्तिम ही होता है. साहित्य और कला के पुरस्कार असल में निर्णायक की आस्वाद क्षमता और आकांक्षाओं का प्रक्षेपण होते हैं.
  • विमलेन्दु
  • सम्पर्क सूत्र- 9827375152
 
      

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6 comments

  1. आपके लेख में कई बातें विचारणीय हैं लेकिन कई जगह आप अतिक्रमण कर गए हैं। जैसे कि सभी पुरस्कृत कवियों को शंका की दृष्टि से देखना। दरअसल इन्हीं पुरस्कृत कवियों की खेप के कुछ कवि: मनोज कुमार झा, गीत चतुर्वेदी और व्योमेश शुक्ल विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं और संभावनाशील हैं। मनोज कुमार झा तो विशेष कवि हैं। उनकी कविताओं में जो एक वैश्विक अपील है वह उन्हें समकालीन हिंदी का प्रतिनिधि कवि बनाती है। हिंदी की दुनिया में तो लोग उनका अपमान ही करते रहे हैं। वे जिसके हकदार हैं वह उन्हें नहीं मिला। गीत चतुर्वेदी एक पढ़े लिखे और नवीन शिल्प वाले कवि हैं। एक पूरे समूह के लोगों ने उनकी नकल कर कविता बनानी शुरू कर दी है। व्योमेश जी अलबेले कवि हैं। उनकी भाषा, उनकी वैचारिकी इतनी सहज और सुंदर है कि उसे पढ़कर उसपर सहज ही प्यार आ जाता है। अंत में शुभम श्री और अनुसंशित कवि प्रकाश। निश्चय ही आपने शुभम श्री की कविताओं का पूर्वाग्रह रहित पाठ नहीं किया है। चाहे जिन समीकरणों के अंतर्गत वे पुरस्कृत हुई हों वे एक समर्थ कवयित्री हैं और उनकी कविता पोएट्री मैनेजमेंट (और दूसरे भी) तमाम प्रचलित प्रतिमानों को धता बताते हुए एक नए कहन और तेवर की वकालत करती है। यह देखने वाली बात होगी कि उनका यह तेवर कब तक बरकरार रहता है और वे उसे किन ऊंचाइयों तक ले जा पाती हैं। कवि प्रकाश पर तो काफी कुछ लिखने सुनने की जरूरत है। हिंदी साहित्य के समकालीन चरित्र को समझने के लिए उनका बहुत महत्व है। और सौ बात की एक बात कि हर क्लास टॉपर जिला जज नहीं बनता और सबसे जिला जज बनने की चाहना गैर-मानवीय भी है।

    समय सबको परखेगा। कम से कम उन्हें तो जरुर जो पुरस्कृत हैं या पुरस्कार के परिदृश्य पर किसी अन्य तरीके से उपस्थित हैं। अज्ञेय कहते थे कि अपने समकालीन कवियों पर कुछ ना ही बोला जाए तो बेहतर।

    धन्यवाद।

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