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निखिल सचान के उपन्यास ‘यूपी 65’ का एक अंश

हिन्द युग्म ने नई वाली हिंदी के नारे के साथ टेक्नो लेखकों(इंजीनियरिंग-मैनेजमेंट की पृष्ठभूमि के हिंदी लेखक) की एक नई खेप हिंदी को दी. जिसके सबसे पहले पोस्टर बॉय निखिल सचान थे. उनकी किताब ‘नमक स्वादानुसार’ की 3-4 साल पहले अच्छी चर्चा हुई थी. हालाँकि उनकी दूसरी किताब का नाम याद कर रहा था तो मुझे याद भी नहीं आया. पोस्टर बॉय बन जाने के बाद यही मुश्किल होती है, उस छवि को बनाये रखना थोड़ा कठिन होता है और चुनौती भी. हिन्द युग्म अब वेस्टलैंड के साथ किताबें प्रकाशित करने लगा है. हिन्द युग्म-वेस्टलैंड से निखिल सचान का पहला उपन्यास आ रहा है ‘यूपी 65’. उसका एक अंश पढ़िए. अंश पढ़कर किताब पढने लायक लगे तो नीचे अमेज़न का प्री ऑर्डर लिंक है उस पर क्लिक करके आर्डर दे दीजियेगा- मॉडरेटर

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कमरा नंबर तीन पर हाय-तौबा मचा हुआ था। मैंने पांडे से पूछा तो पता लगा कि मुम्बई से आई एक गोरी चिट्टी फैमिली इस बात पर अड़ गई है कि उनका लड़का संदीप सिंह के साथ रूम शेयर नहीं कर सकता।

“अरे एक झक्क गोरा, एकदम गुड्डे जैसा लड़का है। उसके बाउ बिदक गए हैं कि रूममेट चेंज करना होगा। बिचारा सारनाथ का ठेठ गँवई लड़का है। करिया ऐसा कि उसके आगे डामर फेल है।” पांडे ने मुँह बनाते हुए कहा। इस बात से अनभिज्ञ कि वह भी रंग से साँवला है गोरा नहीं। हालाँकि, ये अलग बात है कि हिंदुस्तान में हर साँवला इंसान खुद को ‘गेंहुआ’ कहलाना पसंद करता है।

“काला है तो क्या हो गया!” मैंने पांडे को झिड़कते हुए कहा।

“अरे बाहर मत निकलो। नहीं तो तुमई को पकड़ लेंगे। वे रूममेट ऐसे ख़ोज रहे हैं जैसे आदमी अँधेरे में मोमबत्ती खोजता है।”

मैं पांडे की बात अनसुना करके बाहर आया तो वहाँ उसकी मम्मी मँझले सुर में सुबुक रही थीं। नजर मुझ पर पड़ी तो उनकी आँखें चमक-सी गईं।

“बेटे, वुड यू प्लीज शिफ्ट विद समीर?”

“नो, आई ऑलरेडी हैव अ रूममेट।”

“नहीं बेटे आपके साथ उसका भी थोड़ा वेवलेंथ मैच हो जाएगा न। ही हैज नेवर बीन अलोन एक्चुली।” आंटी आगे बढ़ीं।

“नहीं आंटी आई डोंट थिंक दैट वार्डन विल लाइक दिस।” मैं पीछे हटा।

“ही स्पीक्स सम काइंड ऑफ भोजपुरी, आई गेस। समीर तो समझेगा भी नहीं बेटा।” आंटी और आगे बढ़ीं।

“ही विल बी टोटली फाइन, ट्रस्ट मी।” और मैं फटाफट रूम में अपने कमरे की ओर भाग लिया।

पांडे पेट पकड़े हँस रहा था। अट्टहास ऐसा कि स्वरूपनगर की रामलीला का रावण याद आ जाए। “हाहा, अबे हम बोल रहे थे कि उधर मत जाना। उसकी मम्मी को ऐसा लग रहा था कि भोजपुरी बोलने वाला लड़का उनके लड़के को कहीं खा-खू न जाए। वो जैसे ही बेसिन पर डेटॉल से सेब धोने आया, हम समझ गए कि ये लौंडा यहाँ गजब मजा दिलाने वाला है। अबे सेब को सेप्टिक से कौन धोता है बे! इसके बाप भी बद्धी वाली चेक पैंट पहनते हैं जैसे रबर का गुड्डा हों। चलो बे घूम के आते हैं। प्रसाद बता रहा था कि अबकी गजब-गजब नमूने आए हैं इस बैच में।”

“प्रसाद कौन?”

“अबे तुम प्रसाद से नहीं मिले। चलो सबसे पहले तुमको उसी से मिलाते हैं। वो देखो, कमरा नंबर ग्यारह के दरवाजे पर नीली स्लीवलेस में जो लौंडा खड़ा है, वो है प्रसाद। और उसके बगल में मोहित”।

पांडे ने आगे बढ़कर दोनों से हाथ मिलाया और हमारा इंट्रो जैसा कुछ करवाया। अगर मैं एक लाइन में प्रसाद का खाका खींचूँ तो उसकी सुपर पॉवर थी गप्प हाँकना और लंतरानी झोंकना। मोहित की खासियत थी दुनिया भर की बेइज्जती करके प्रसाद को ऊँचे चढ़ाना। एक पतंग तो दूसरा ढील। जो यह कन्नी तो वह छुड़ईया। राम मिलाई जोड़ी, एक अंधा एक कोढ़ी। दोनों बचपन के जिगरी थे और केंद्रीय विद्यालय से पढ़े थे। BHU, अस्सी, लंका, सुसवाही में बचपन से खेले-कूदे थे और इनके चप्पे-चप्पे से वाकिफ थे।

वे दोनों एक-दूसरे को वैसे ही पूरा करते थे जैसे सौरव गांगुली के घटिया से शॉट को टोनी ग्रेग की छाती-पीट कमेंट्री पूरा करती थी। क्रिकेट के शौक़ीन लोगों को याद होगा कि गांगुली (जिसे कानपुर के लोग गाण्डुली बुलाते थे) जैसे ही स्टेप आउट करके लॉन्ग ऑफ की ओर गेंद तान देता था, टोनी ग्रेग चिल्लाना शुरू कर देता था, “ओह माय गॉड, प्रिंस ऑफ कलकीटा गोज अगेन, देयर द बॉल गोज डांसिंग, इट्स हाइ, इट्स हाइ, इट्स डांसिंग इन दी स्काई, ओह माय गॉड इट्स गोना वेनिश, वॉट अ क्लास प्रिंस ऑफ कलकीटा।” और इतने में ही कोई ओलंगा छाप क्रिकेटर कैच लपक लेता था और गाण्डुली कलकीटा वापस।

टोनी ग्रेग और गांगुली की तरह, मोहित और प्रसाद इतने घनिष्ठ थे कि हमेशा साथ ही पाए जाते थे। जैसे पुराने जमाने के राजा-महाराजा बिना दरबारी-कवि-चारण के अधूरे होते थे, प्रसाद मोहित के बिना अधूरा था।

“और पांडे, BHU घूमे तुम लोग या अभी मौका नहीं लगा?” प्रसाद ने पूछा। वह हाथ झुलाते हुए हमारे पास आया।

“अभी अकेले सेफ होगा?” पांडे ने पूछा।

“सेफ काहे नहीं होगा जी! रैगिंग से डर रहे हो! कैसे इलाहबादी हो बे?”

“डर नहीं रहे हैं। देखो हमारा सीधा हिसाब है कि फैलने उतना ही दो जितना पतीले में झोल हो। उससे ज्यादा में तो हम उबल जाते हैं। सीधी-साफ बात है। मार देब, मर जाबो।”

“अरे पंडित! ढेर जोश में? नंगा करके दौड़ाते हैं यहाँ।” मोहित ने प्रसाद को बैक अप दिया।

“जुगनू बना देते हैं यहाँ। जुगनू समझते हो रे पंडित?” प्रसाद ने मोहित के तीर पे फॉलो अप लिया।

“जुगनू?” पांडे की त्योरी चढ़ी हुई थी।

“हाँ जुगनू! अगरबत्ती खोंस देगे पंडी जी, पिछवाड़े में। फिर नचवाएँगे बत्ती बुझा के।” प्रसाद ने कहा। “साजन-साजन तेरी दुल्हन, तुझको पुकारे आ जा।”

“आ जा। आ जा। आ…।” मोहित ने ईको दिया।

“गीतकार आनंद बक्शी। संगीतकार अन्नू मलिक। सिंगर अल्का याग्निक। फिल्म आरजू। समझे पंडी जी?” प्रसाद ने कहा।

“रैगिंग?” पांडे दुबला हुआ जा रहा था और मैं भी।

“कानपुर होता तो मजाल किसी की जो कपड़े उतरवा लेता!” मैंने जी कड़ा करते हुए कहा। “इतने में तो कट्टा चल जाए बर्रा दो में।”

“अच्छा तुम कानपुर से हो?” मोहित जोर से हँसा। उसकी और प्रसाद की खुशी का ठिकाना नहीं था।

“क्यों। कानपुर में ऐसा भी क्या है?” मेरा दिल सिकुड़ के गुझिया हो रहा था।

“कानपुर वाले सबसे लम्बा नपते हैं यहाँ। रोल कॉल होगी। सबसे पहिले कनपुरियों का ही नंबर आता है। पिछले साल विवेक मिसिर करके एक लड़का था कानपुर से। राघवेंदर सिंह ने उसको उमराव जान बना दिया था। बाकायदा पंद्रह दिन उसकी मुजरा ट्रेनिंग चली थी और फिर धनराजगिरी हॉस्टल में मैदान पे लाइट और तखत-उखत सजवा के उसका शो लगा था। पोस्टर छपे थे। कमरे-कमरे पर्चे बँटे थे – आपके शहर में पहिली बार, अखिल भारतीय महान उद्घाटन। कानपुर की कटीली नचनिया आ रही हैं, आवा देखा हो महराज।” प्रसाद बोला।

“चिकना था वो भी।” मोहित मेरी तरफ आँख टेढ़ा करके कहा।

“ऐसे कोई जबरदस्ती थोड़ी करवा सकता है कुछ भी!” मैंने मजबूती से कहा।

“करवाने को तो करवा ही सकता है लेकिन उसकी नौबत ही क्यों आए। कुल मिलाके सैंतीस सौ पचास रुपए का इनाम हुआ था विवेक मिश्रा पे। चार-छह महीने घर से पैसा मँगाने की नौबत नहीं आई थी विवेक मिश्रा को। एक सौ एक का व्यवहार तो हम खुदे किए थे।” प्रसाद ने शान से कहा।

“तुम भी आए थे मुजरा देखने?”

“तब क्या! BHU घर है हमारा। राघवेंदर सिंह मेरा ही चेलवा है। उसका दो साल पाहिले JEE निकल गया तो सीनियर हो गया। वो कोटा निकल गया था और हम यहाँ राव सर और झा सर के यहाँ दूसरी सीट पर बैठ के प्रियंका मोहन की कमर का टैटू ही देखते रह गए। तितली वाला। नहीं तो बेटा हम भी थर्ड इयर में होते। क्या पता आज हम तुम्हारे सीनियर होते और तुमको पंडी जी के साथ नचवा रहे होते।”

“मैं रैगिंग देने नहीं जाऊँगा। कम्प्लेन कर दूँगा अगर किसी ने ज्यादा हीरो बनने की कोशिश की।”

“हाँ और नहीं तो क्या! मजाक है क्या! मार देब, मर जाबो!” पांडे ने मेरी हिम्मत बढ़ाई।

“ये गजब कभी न करना पंडी जी। आते ही क्रांति की बातें न करो। क्रांति करवाओ पड़ोसी से, खुद मत करो। चाचा नेहरू बनके गुलाब का फूल खोंस लो और नेतागीरी करो, भगत सिंह बनके असेंबली में घुसोगे तो फाँसी पे लटका दिए जाओगे। रैगिंग नहीं देनी तो मत देना। बस मेरा और मोहित का नाम बता देना। कोई कुच्छो नहीं कहेगा।”

“रैगिंग तो यहाँ त्यौहार जैसे होता है जी। जज्बाती होके विभीषण छाप विलाप काहे कर रहे हो।” मोहित ने कहा।

“हम तो हर हॉस्टल में रैगिंग दे आए हैं। केमिकल सेकेंड इयर वाले खुद को बहुत तोप समझते हैं। गिलेस्पी-गिलेस्पी करके एक लौंडा है, घुँघराले बाल वाला। आइब्रो में बाली पहनता है आँख के ऊपर। साला हमको बोला कि शर्ट उतार। हम सीधे पैंट उतार दिए। चड्ढी भी खोलने ही वाले थे कि खुदई हाथ जोड़ लिया साला। हमारा रैगिंग ले रहा था, हम खुद उसका रैगिंग ले लिए।” प्रसाद बोला।

मैं चुपचाप उसे सुन रहा था और यह गुत्थी हल करने की कोशिश कर रहा था कि खुद की पैंट उतार देने से सामने वाली की रैगिंग कैसे हो गई।

हाँ पर इस बात का सुकून जरूर था कि प्रसाद और मोहित से दोस्ती हो गई और शायद अब रैगिंग से बच भी जाएँगे। प्रसाद मुझे बाकी के लड़कों से मिलाने ले जा रहा था पर मैं पंद्रह नंबर से आगे नहीं गया। मैं उसकी बात टाल गया। पांडे की हिदायत अभी भी मेरे दिल-ओ-दिमाग में सुरक्षित थी।

‘अब जो यदि तुम पढ़-लिखकर नासा पहुँचने के इरादे से आए हो, तो फिर तुम सोलह नंबर कमरे तरफ मत जाना।’

मैंने कदम वापस खींच लिए और अपने कमरे में वापस आ गया। राजपूताना हॉस्टल दिन चढ़ते गुलजार हो रहा था। मैं आते-जाते लोगों को देख रहा था। तरह-तरह के लोग।

***

अगर आप यह सोच रहे हैं कि मैं सोलह नंबर में क्यों नहीं जाना चाहता था तो उसका जवाब मेरे बचपन की कंडीशनिंग में छुपा है।

मैं कॉलेज आया था तो कई सारे प्रिजम्शन-पूर्वानुमान के साथ। सोच रहा था कि असल में कॉलेज वही है या फिर उससे इतर कुछ और। मेरे लिए कॉलेज बस वही था जो लोगों से सुना था या फिर टीवी में देखा था। फिल्मों में, सीरियल में। थोड़ा-थोडा किताबों में।

काफी कुछ कॉलेज अपने दिमाग में भी बनाया था मैंने। जब मैं हर रोज बारह से चौदह घंटे फिजिक्स, केमेस्ट्री और मैथ की होली ट्रिनिटी के आगे माथा टेक-फोड़ रहा होता था तो फ्रस्ट्रेशन के बीच दिमाग में थोड़ा-सा कॉलेज सजा लेता था। ताकि मैं खुद को समझा पाऊँ कि कल सुबह भी पाँच बजे उठूँगा और रात ग्यारह बजे तक कम-से-कम छह-सात चैप्टर का रिवीजन जरूर करूँगा। फिर एक दिन IIT पहुँच जाऊँगा। वह सचमुच कितना सुखद दिन होगा!

मैं उन लोगों में था जो अपने चचेरे-मौसेरे भाई बहनों के लिए अजूबा होते हैं। जिन्हें वे कोसते भी हैं और मानते भी। मानते इसलिए हैं क्योंकि मैं पढ़ने-लिखने में सबसे अव्वल था। कोसते इसलिए हैं कि मेरी दुहाई दे-देकर मौसा और चाचा उन्हें खेलने नहीं जाने देते थे। लेकिन मजेदार बात यह थी कि आज राजपूताना हॉस्टल उन सारे लोगों से भरा पड़ा था जो अपने चचेरे-मौसेरे भाई बहनों के लिए दुहाई थे। मैं यहाँ पर किसी से भी अलग या बेहतर नहीं था।

पापा ने मेरी तालीम एक तगड़े फंडामेंटलिस्ट स्कूल में कराई थी। मुझे बचपन से शिशु मंदिरों, विद्या मंदिरों और सनातन धर्म विद्यालयों में पढ़ाया गया था जो मुझे संयम, संस्कार और अनुशासन का बेहतरीन कॉकटेल बनाना चाहते थे। इस कंडीशनिंग के हिसाब से, मैं उन लोगों में था जो अपने दोस्त भी संस्कारी होने, न होने का हिसाब लगाकर चुनते थे। मैंने शायद ही कभी ऐसे लोगों से दोस्ती भी की होगी जो गाली-गलौच करते हों (मैं आपको बता दूँ कि मैं कानपुर का रहने वाला हूँ। गाली के नाम पर मैंने अधिक-से-अधिक किसी को ‘चूतिया’ ही कहा होगा क्योंकि कानपुर वह जगह हैं जहाँ ‘चूतिया’ को गाली नहीं मानते। वहाँ गालियाँ जबान का आभूषण होती हैं। पर्सनालिटी का वजन होती हैं और आपके दिल में सामने वाले के लिए मुहब्बत कितनी गहरी है, इस बात का सबसे वाजिब पैमाना होती हैं।)

मुझमें कोई ऐब या बुराई नहीं थी। मैं उन लोगों में था जो सुबह-सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठते हैं। उठते ही माँ और पिता के चरण छूते हैं। और यदि सर्दी के दिनों में माँ और पिता अलसा के न उठे हों तो मुझमें वो जादुई शगल था कि मैं रजाई के अंदर से उनके पैर खोज निकालता, उन्हें प्रणाम करता और वापस रजाई ओढ़ा देता। उसके बाद दिन भर की घनघोर तपस्या पर लग जाता। अगर आपने बचपन में ‘आदर्श बालक’ वाला चैप्टर अपने स्कूल की किताब में पढ़ा हो तो मैं सचमुच वही लड़का था। मैं उसमें दी हुई एक-एक हिदायत को दिल से मानता और पूरा करता था।

यह इस बात की एक बड़ी वजह थी कि मैं सोलह नंबर में क्यों नहीं जाना चाहता था।

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