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रहस्य-रोमांच राजपरिवार और राजनीति का ‘शाही शिकार’

जगरनॉट बुक्स ने मोबाइल या लैपटॉप पर पढने के लिए अपने ऐप के माध्यम से हिंदी में कई नई तरह की किताबें दी हैं, नए नए प्रयोग किये हैं. अभिषेक सिंघल का उपन्यास ‘शाही शिकार’ उसी की एक कड़ी है. इस उपन्यास की समीक्षा वरिष्ठ लेखक दुर्गा प्रसाद अग्रवाल ने लिखी है- मॉडरेटर

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शाही शिकार अपनी तरह का अनूठा उपन्यास है. इसका अनूठापन इस बात में है कि रचनाकार ने रहस्य-रोमांच और अपराध कथा का बेहद दिलचस्प ताना-बाना बुनकर उसके भीतर सामाजिक सरोकार का कथ्य पिरोया  है. सामान्यत: हिंदी कथाकार इस  तरह के कथानकों से गुरेज़  करते रहे हैं, जबकि पाठकों की गहरी दिलचस्पी इस तरह के उपन्यासों में रही है. पुरानी पीढ़ी के पाठक आज भी उस ज़माने को हसरत के साथ याद करते हैं जब वे इस तरह के उपन्यासों की दुनिया में खो जाया करते थे.

उपन्यास की शुरुआत होती है झुंझारगढ़  नामक एक ठिकाने के राजपरिवार के मुखिया विक्रमजीत सिंह के परिचय से. आज़ाद भारत में यह ठिकाना भले ही अपना वैभव और गौरव  खो चुका है, विक्रमजीत सिंह अतीत के उस स्वर्णिम काल की स्मृतियों को अपने भीतर जज़्ब किये हुए हैं. अपने जीवन के उत्तर काल में वे राजनीति में भी सक्रिय रहे, मंत्री पद पर काबिज़ हुए, लेकिन अब उनका बेटा कुंवर सूर्यवीर सिंह नई पीढ़ी का नाम लेकर उन्हें अपदस्थ कर खुद उनकी जगह लेने की जद्दोजहद में जुटा है. वह चुनाव के लिए टिकिट ले आया है. उधर विक्रमजीत सिंह को अपना खर्च चलाने और बाद में बेटे द्वारा चुनाव लड़ने के लिए लिये गए कर्ज़ की भरपाई के लिए अपने होटल में महीने में चार दिन फिरंगियों के साथ भोजन करने और उनके साथ तस्वीर खिंचवाने की अपमानजनक शर्त स्वीकार करनी पड़ती है. इतना ही नहीं, इसके बाद उन्हें रानी  साहिबा को भी इसमें शामिल करने के लिए विवश होना पड़ता है. इसी बात को लेकर होटल मैनेजर अमर सिंह से उनकी गर्मा गर्मी हो जाती है और वे अपने फार्म हाउस पर चले जाते हैं. वहां मौज़ूद है उनकी संगिनी रुक्मिणी, जिसके साथ उन्होंने सात फेरे भले ही न लिये हों, मान पूरा दिया था. रुक्मिणी के साथ ही मौज़ूद थी उसकी सहेली  स्वीटी और उसकी युवा बेटी गीतू. … यह परिचय और आगे बढ़े इससे पहले ही उपन्यासकार हमें दो झटके दे देता है. पहला झटका तो यह है कि कुंवर सूर्यवीर सिंह चुनाव हार जाता है  और इसके लिए वो अपने पिता को दोषी मानता है. दूसरा झटका बहुत बड़ा है और वही असल में उपन्यास की दिशा भी निर्धारित करता है.  अपने इस फार्म हाउस पर विक्रमजीत सिंह खुद को गोली मार लेते हैं. और यहीं से उपन्यास जासूसी उपन्यासों की राह पर चल पड़ता है. थानेदार ऋषिपाल महाराज की कथित आत्महत्या की हक़ीक़त की पड़ताल शुरु करता है.

जासूसी उपन्यासों की रिवायत का निर्वहन करता हुआ यह उपन्यास एक-एक किरदार को संदेह के घेरे में लेता है और अंत में एक ऐसे किरदार को महाराज का क़ातिल साबित करके ख़त्म होता है जिसकी तरफ हमारा ध्यान जाता ही नहीं है. लेकिन उपन्यास का महत्व इस रोचक कथा में उतना नहीं है जितना इस बात में है कि इस कथा के बहाने लेखक ने कुछ महत्वपूर्ण प्रसंग और प्रश्न उठाये हैं. महाराज और उनके परिवार के बहाने उसने अस्ताचलगामी राजशाही की तरफ तो हमारा ध्यान खींचा ही है, उसके प्रभाव के मूल में क्या बातें रहीं, उन्हें भी उजागर किया है. इसी के साथ उन लोगों की विलासितापूर्ण जीवन शैली, लार्जर दैन लाइफ ईगो, और स्त्री को केवल और केवल भोग्या समझने वाला नज़रिया इस कथा में बहुत तीखेपन के साथ उभरता है. विक्रमजीत जिस तरह रुक्मी का शिकार करते हैं, फिर अपनी ब्याहता रानी चंद्रावती की उपेक्षा और अपमान करते हैं, बाद के जीवन में रुक्मी के साथ एक सैडिस्ट की तरह बर्ताव करते हैं और रुक्मी की सहेली की बेटी स्वीटी पर बुरी नज़र डालते हैं  और उसके साथ भी वही करना चाहते हैं जो उन्होंने रुक्मी के साथ किया था, तो स्पष्ट हो जाता है कि यह वह नस्ल है जो स्त्री को केवल अपने भोग की सामग्री समझती है, उसके प्रति उसके मन में कोई सम्मान का भाव नहीं है.

उपन्यास का एक और पहलू है समकालीन राजनीति का चित्रण. राजपाट जाने के बाद विक्रमजीत राजनीति में सक्रिय होते हैं और मंत्री पद भी पा जाते हैं. लेकिन उनके तौर तरीके राजा महाराजाओं वाले ही रहते हैं. बेशक वे ग़लत काम नहीं करते हैं लेकिन उनके व्यवहार में राजसी ठसक भी है जो उनके मुख्य मंत्री को नहीं रुचती है. दोनों में दूरियां बढ़ने लगती हैं और इसकी परिणति  होती है इस बात की सम्भावना से कि उनका मंत्री पद भी शायद चला जाए. इस सम्भावना को एक और प्रकरण भी मज़बूत बनाता है. उसका सम्बंध भ्रष्टाचार से है. लेकिन यहीं लेखक ने उन राजनीतिक दांव पेचों को भी उभारा है जिनका इस्तेमाल  राजनेता एक दूसरे के खिलाफ करते ही रहते हैं. विक्रमजीत एक तरह से सी एम को ब्लैकमेल कर अपना मंत्री पद बचा ले जाते हैं.

उपन्यास का कलेवर बहुत बड़ा नहीं है. लेकिन इस बात के लिए लेखक की तारीफ करनी होगी कि उसने बहुत कम कहकर भी काफी कुछ कह दिया है और वह भी बहुत रोचक तरीके से. मुझे लगता है कि आज की अतिव्यस्त ज़िंदगी में इस तरह की रचनाओं की महत्ता बहुत अधिक है. यह भी कि अगर लेखक में सामर्थ्य हो तो वह अपनी बात बिना ऊब पैदा किये भी कह सकता है. एक और बात जो कहनी आवश्यक है वह यह कि सामान्यत: कथा साहित्य को कल्पना की उपज माना जाता है और बावज़ूद इस बात के कि उसकी नींव यथार्थ की कठोर धरा पर ही टिकी होती है, उसके किरदारों और घटना क्रम को  कल्पना-प्रसूत ही माना जाता है. लेकिन जब अभिषेक सिंघल जैसा कोई पत्रकार उपन्यास लेखन के क्षेत्र में क़दम रखता है तो वह अनायास ही इस रूढि से विद्रोह कर बैठता है. उसके यहां कल्पना और यथार्थ का अनुपात बदल जाता है. इस उपन्यास में भी हम पाते हैं कि हमारे चारों तरफ बिखरे हुए बहुत सारे किरदार मौज़ूद हैं. पूर्व राजघरानों के ऐसे बहुत सारे किरदार हमारी स्मृति में कौंध उठते हैं जिन्होंने  समकालीन राजनीति में भी अपनी जगह बनाई है. इसलिए यह बहुत स्वाभाविक है कि जिन्हें हम जानते-पहचानते  हैं उनके बारे में कोई कथा पढ़ना हमें और अधिक दिलचस्प लगता है.

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शाही शिकार : उपन्यास

अभिषेक सिंघल

जगरनॉट

–डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल

ई-2/211, चित्रकूट, जयपुर-302021.

dpagrawal24@gmail.com

 

 
      

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3 comments

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