
मिटटी था, किसने चाक पे रख कर घुमा दिया
वह कौन हाथ थे कि जो चाहा बना दिया.
या
पहुंचा हुज़ूर-ए-शाह हर एक रंग का फ़क़ीर
पहुंचा नहीं जो था वही पहुंचा हुआ फ़क़ीर.
वह कौन हाथ थे कि जो चाहा बना दिया.
या
पहुंचा हुज़ूर-ए-शाह हर एक रंग का फ़क़ीर
पहुंचा नहीं जो था वही पहुंचा हुआ फ़क़ीर.
जैसे शेरों के इस शायर की दो गज़लें पेश हैं-
१.
यहाँ तो काफिले भर को अकेला छोड़ देते हैं
सभी चलते हों जिस पर हम वो रास्ता छोड़ देते हैं.
कलम में ज़ोर जितना है जुदाई की बदौलत है
मिलन के बाद लिखने वाले लिखना छोड़ देते हैं.
ज़मीं के मसअलों का हल अगर यूँ ही निकलता है
तो लो जी आज से हम तुमसे मिलना छोड़ देते हैं.
जो जिंदा हों उसे तो मार देते हैं जहाँवाले
जो मरना चाहता है उसको जिंदा छोड़ देते हैं.
मुकम्मिल खुद तो हो जाते हैं सब किरदार आखिर में
मगर कमबख्त कारी(१) को अधूरा छोड़ देते हैं। १. पाठक
वो नंग-ए-आदमियत(२) ही सही पर ये बता ऐ दिल २.इंसानियत का नंगापन
पुराने दोस्तों को इस कदर क्या छोड़ देते हैं.
ये दुनियादारी और इरफ़ान(३) का दावा शुजा खावर ३. विवेक
मियां इरफ़ान हो जाये तो तो दुनिया छोड़ देते हैं.
यहाँ तो काफिले भर को अकेला छोड़ देते हैं
सभी चलते हों जिस पर हम वो रास्ता छोड़ देते हैं.
कलम में ज़ोर जितना है जुदाई की बदौलत है
मिलन के बाद लिखने वाले लिखना छोड़ देते हैं.
ज़मीं के मसअलों का हल अगर यूँ ही निकलता है
तो लो जी आज से हम तुमसे मिलना छोड़ देते हैं.
जो जिंदा हों उसे तो मार देते हैं जहाँवाले
जो मरना चाहता है उसको जिंदा छोड़ देते हैं.
मुकम्मिल खुद तो हो जाते हैं सब किरदार आखिर में
मगर कमबख्त कारी(१) को अधूरा छोड़ देते हैं। १. पाठक
वो नंग-ए-आदमियत(२) ही सही पर ये बता ऐ दिल २.इंसानियत का नंगापन
पुराने दोस्तों को इस कदर क्या छोड़ देते हैं.
ये दुनियादारी और इरफ़ान(३) का दावा शुजा खावर ३. विवेक
मियां इरफ़ान हो जाये तो तो दुनिया छोड़ देते हैं.
२.
लश्कर को बचाएंगी ये दो चार सफें क्या
और इनमें भी हर शख्स ये कहता है हमें क्या
ये तो सभी कहते हैं की कोई फिक्र न करना
ये कोई बताता नहीं हमको कि करें क्या
घर से तो चले जाते हैं बाजार की जानिब
बाजार में ये सोचते फिरते हैं कि लें क्या.
आँखों को किये बंद पड़े रहते हैं हमलोग
इस पर भी तो ख्वाबों से हैं महरूम करें क्या.
जिस्मानी ताअल्लुक पे ये शर्मिंदगी कैसी
आपस में बदन कुछ भी करें इससे हमें क्या.
ख्वाबों में भी मिलते नहीं हालात के डर से
माथे से बड़ी हो गयीं यारों शिकअनें(१) क्या. १. लकीरें
ये तो सभी कहते हैं की कोई फिक्र न करना
ये कोई बताता नहीं हमको कि करें क्या
घर से तो चले जाते हैं बाजार की जानिब
बाजार में ये सोचते फिरते हैं कि लें क्या.
आँखों को किये बंद पड़े रहते हैं हमलोग
इस पर भी तो ख्वाबों से हैं महरूम करें क्या.
जिस्मानी ताअल्लुक पे ये शर्मिंदगी कैसी
आपस में बदन कुछ भी करें इससे हमें क्या.
ख्वाबों में भी मिलते नहीं हालात के डर से
माथे से बड़ी हो गयीं यारों शिकअनें(१) क्या. १. लकीरें
एक गज़ल नई गज़ल के शायर शारिक कैफी की
मुमकिन ही न थी खुद से शनासाई(१) यहाँ तक १. पहचान
ले आया मुझे मेरा तमाशाई यहाँ तक
रस्ता हो अगर याद तो घर लौट भी जाऊँ
लाई थी किसी और की बीनाई(२) यहाँ तक २. नज़र
शायद मुझे दरिया में छुपाता कोई सहरा
मेरी ही नज़र देख नहीं पाई यहाँ तक.
महफ़िल में भी तन्हाई ने पीछा नहीं छोड़ा
घर में न मिला मैं तो चली आई यहाँ तक.
सहरा है तो सहरा की तरह पेश किया है
पाया है इसी शौक़ ने शैदाई(३) यहाँ तक. ३. दीवाना
एक खेल था और खेल में सोचा ही नहीं था
जुड जाएगा मुझसे वो तमाशाई यहाँ तक.
ये उम्र है उसकी जो खतावार(४.) है शारिक ४. खता करने वाला
रहती ही नहीं बातों में सच्चाई यहाँ तक.
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Dear Prabhat bhai
I have been to your blog several times. Just a minor correction. This couplet belongs to poet Ijlal Majeed, lesser known, who is the brother of famous fiction writer Iqbal Majeed.
मिटटी था, किसने चाक पे रख कर घुमा दिया
वह कौन हाथ थे कि जो चाहा बना दिया.
bahut achchi gazlen intikhaab ki hain shuja ki…mubarak ho!
Typiclly talking, no. As a matter of fact, if you’re writing a paper as a class assignment,
your educator may particularly restrict mentioning Wikipedia. http://charlesfilterproj1.com