पेरु के राजनयिक कार्लोस इरिगोवन का नाम पिछले दिनों सुर्खियों में था। खबर थी कि उन्होंने कांची के चंद्रशेखरेन्द्र विश्वविद्यालय में शंकराचार्य के सामाजिक-राजनीतिक दर्शन पर शोध करने के लिए अप्लाई किया है। भेंटवार्ता के दौरान जब उनसे इसके बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि ऐसा लग रहा है जैसे जीवन में 36 साल पीछे चला गया हूं। 36 साल पहले पेरु के लीमा विश्वविद्यालय में संस्कृत सीखने के बाद वे शंकर के वेदान्त पर शोध करने वाले थे, लेकिन उनका चयन विदेश सेवा में हो गया। भारत आने पर उनको एक बार फिर उसकी याद आई। उन्होंने जम्मू विश्वविद्यालय में भी अप्लाई किया है। शंकर के दर्शन की तो काफी चर्चा होती है लेकिन मेरी दिलचस्पी इसमें है कि आखिर वे किस तरह के समाज का सपना देखते थे, राजनीति को लेकर उनकी मान्यताएं क्या थीं- इसको लेकर शोध किया जाए।
भारत आना मेरे लिए अपने घर वापस आने की तरह है, जबकि सचाई यह है कि मैं पहली बार भारत आया हूं। आम विदेशी सैलानियों की तरह मैं ताजमहल देखने आगरा नहीं गया, न ही जयपुर। भारत आने के बाद सबसे पहले मैं कुरुक्षेत्र देखने गया। उस भूमि को देखने जहां कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था- कहना है कार्लोस इरिगोवन का जो पेरु के राजनयिक हैं लेकिन आम राजनयिकों से काफी अलग हैं। वे अपने देश के जाने-माने उपन्यासकार-कथाकार-दार्शनिक हैं। भारत से मेरे रिश्ते की शुरुआत तब हुई जब मैं 14 साल का था। पिता के एक मित्र के घर मुझे महाभारत देखने को मिली। वह भारत की पहली पुस्तक थी जिससे मेरा परिचय हुआ। इस पुस्तक का मेरे ऊपर जबर्दस्त प्रभाव पड़ा। महाभारत अपने आपमें कोई एक पुस्तक नहीं है, इसमें अनेक पुस्तकें हैं। ऐसा नहीं है कि उस समय तक मैं इलियड, ओडेसी जैसे ग्रंथों से परिचित नहीं था। बाइबिल से भी मैं अच्छी तरह से परिचित था लेकिन महाभारत से परिचय ऐसे था जैसे अंधेरी रात में तारों भरे आकाश को देखा हो। महाभात पढ़ने के बाद मुझे पता चला कि यह दुनिया कितनी बड़ी है। महाभारत वास्तव में सारी मानवता का पाठ है। अगर मुझे एक ही पुस्तक ले जाने को कहा जाए तो मैं महाभारत को चुनुंगा, कहते-कहते वे कहीं खो से गए।
कार्लोस ने भारत आने के बाद पहला काम यह किया कि अपने लिए एक संस्कृत शिक्षक की व्यवस्था की जिनसे उन्होंने थोड़ी-बहुत हिन्दी भी सीख ली। कार्लोस की ख्वाहिश बांग्ला सीखने की भी है ताकि टैगोर के साहित्य का आनंद मूल भाषा में ले सकें। इरिगोवन को कहानी की विधा बहुत आकर्षित करती है। उनको मानना है कि यह साहित्य की आदिम विधा है। हमारे आदिमानव आग जलाकर उसके चारों ओर बैठ जाते थे और कहानियों का दौर चलने लगता होगा। उन्होंने उपन्यास भी लिखा है और उनका एक उपन्यास हार्ड टाइम्स प्रसिद्ध है जो पेरु में जापानियों को बसने को लेकर है। हिन्दी साहित्य में भी उनकी रुचि है- टैगोर के बाद उनको अगर कोई भारतीय लेखक प्रभावित करता है तो वह महादेवी वर्मा हैं। उनके लेखन की रहस्यात्मकता और दार्शनिकता ने मुझे बहुत प्रभावित किया है। कहीं न कहीं उनके सूत्र बौद्ध दर्शन से भी जुड़ते हैं। उनकी पुस्तक मेरा परिवार, जो अंग्रेजी में माई फैमिली नाम से है, ने मुझे खासतौर पर प्रभावित किया। उसमें पशु-पक्षियों तथा समाज के निचले तबके के लोगों तक परिवार के सदस्य के रूप में चित्रित किए गए हैं। इससे भारतीय जीवन-दृष्टि को समझा जा सकता है। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि आज भी भारतीय भाषा का साहित्य अंग्रेजी में उपलब्ध नहीं है। लेकिन मुझे लगता है कि हिन्दी सहित दूसरी भारतीय भाषाओं का साहित्य जीवन के अधिक निकट है, भारतीय अंग्रेजी साहित्य पढ़कर भारत के बारे में कुछ खास पता नहीं चलता।
उन्होंने बताया कि भारत इसलिए भी मुझे अपने घर जैसा लगता है क्योंकि दोनों देशों की संस्कृतियों में काफी समानता है सिवाय इसके कि भारत पेरु के मुकाबले बहुत विशाल देश है। पेरु की जनसंख्या तीन करोड़ है लेकिन भारत की ही तरह वहां अनेक संस्कृतियां, अनेक भाषाएं हैं। आमेजन नदी के जंगलों में तो करीब 800 भाषाएं बोली जाती हैं। भारत में जो महत्व गंगा का है वही पेरु में आमेजन का है। भारतीय देवी-देवताओं काली, हनुमान से मिलती-जुलती अनेक मूर्तियां पेरु में मिली हैं। वैसे इसको लेकर कोई काम नहीं हुआ है। कुछ साल पहले पेरु में 4600 साल पहले के शहर केरेल का अवशेष मिले। उसमें बाकी चीजों के अलावा एक बांसुरी भी मिली। आश्चर्य की बात है कि उस शहर में कोई हथियार नहीं मिला। शायद इसी कारण गांधी की पेरु में काफी लोकप्रियता है।
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