
यह भाषण पिछले साल जेरुसलम में एक पुरस्कार लेते हुए मुराकामी ने दिया था। समकालीन सन्दर्भों में यह लेख अत्यंत प्रासंगिक लगता है.
मैं आज एक उपन्यासकार के तौर पर जेरुसलम आया हूं- कहा जाए तो झूठ के एक पेशेवर खिलाड़ी के तौर पर।
निश्चय ही उपन्यासकार अकेले नहीं होते जो झूठ बोलते हैं। हम सब जानते हैं, नेता भी बोलते हैं। कई मौकों पर कूटनीतिज्ञ और फौजी भी बोलते हैं, पुरानी कारों के सेल्समैन भी, कसाई भी और ठेकेदार भी। हालांकि उपन्यासकार के झूठ दूसरों से इस मायने में भिन्न होते हैं कि झूठ बोलने के लिए कोई उपन्यासकार को अनैतिक बताकर उसकी आलोचना नहीं करता। वस्तुतः उसके झूठ जितने बड़े और बेहतर होते हैं, जितनी बारीकी से वह उन्हें बुन पाता है, उतनी ही ज्यादा प्रशंसा उसे पाठकों और आलोचकों की मिलने की उम्मीद होती है? ऐसा क्यों होना चाहिए?
मेरा उत्तर यह हैः एक तरह से, निपुण झूठ गढकर, या कहें, कल्पनाओं को बिल्कुल सच की तरह प्रस्तुत कर, उपन्यासकार किसी सच को बिल्कुल नई अवस्थिति में ला खड़ा कर सकता है और उस पर नई रोशनी डाल सकता है। ज्यादातर मामलों में सच को बिल्कुल उसके वास्तविक स्वरूप में ग्रहण करना और उसे यथावत प्रस्तुत करना लगभग असंभव होता है। यही वजह है कि हम उसकी पूंछ पकड़ कर सच को उसकी गुफा से बाहर आने को ललचाते हैं, उसे एक काल्पनिक पृष्ठभूमि में ला बिठाते हैं और उसे एक काल्पनिक स्वरूप में रूपांतरित कर देते हैं। हालांकि इस लक्ष्य तक पहुंचने से पहले, हमें खुद में स्पष्ट होना पड़ता है कि सच हमारे भीतर कहां है। अच्छे झूठ गढ़ने की यह एक अनिवार्य शर्त है।
हालांकि, आज मेरा झूठ बोलने का कोई इरादा नहीं है। मैं जितना हो सकता हूं,. उतना ईमानदार होने की कोशिश करूंगा। साल में बहुत कम दिन ऐसे होते हैं जब मैं झूठ बोलने में लगा नहीं होता, और आज वैसा ही दिन है। इसलिए आपको सच बता दूं। जापान में मुझे बहुत सारे लोगों ने सलाह दी कि मैं यहां, जेरूसलम सम्मान लेने न आऊं। कुछ ने तो यहां तक धमकी दी कि अगर मैं आया तो वे मेरी किताबों का बहिष्कार करने लगेंगे। निश्चय ही, इसकी वजह, गाजा में चल रही भयानक लड़ाई थी। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट थी कि प्रतिबंधित गाज़ा में एक हजार से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं, और इनमें बहुत सारे निहत्थे नागरिक हैं, बच्चे और बूढ़े।
इस सम्मान की सूचना मिलने के बाद न जाने कितनी बार मैंने अपने-आप से पूछा कि क्या ऐसे वक्त में इजराइल जाना और यह साहित्यिक सम्मान ग्रहण करना उचित होगा, कि कहीं इससे यह संदेश तो नहीं जाएगा कि मैंने इस युद्ध में एक का पक्ष लिया, कि मैंने एक ऐसे देश की नीतियों का समर्थन किया जो अपनी अकूत सैन्य ताकत को बेलगाम छोड़े हुए हैं। निश्चय ही, मैं कतई नहीं चाहूंगा कि ऐसा कोई संदेश जाए। मैं किसी युद्ध का समर्थन नहीं करता, मैं किसी राष्ट्र के साथ खड़ा नहीं होता। न ही मैं चाहता हूं कि मेरी किताबें किसी प्रतिबंध की शिकार हों।
बहरहाल, काफी सोचविचार के बाद, अंततः मैंने यहां आने का मन बनाया। मेरे निर्णय की एक वजह तो यह थी कि मुझे बहुत सारे लोगों ने यहां न आने की सलाह दी। कई और उपन्यासकारों की तरह मैं ठीक उसका उल्टा करता हूं जो मुझसे कहा जाता है। अगर लोग मुझे कह रहे हैं- और खासकर मुझे चेतावनी दे रहे हैं- वहां मत जाओ- मैं वहां जाने और वही करने का इरादा रखता हूं। एक उपन्यासकार के तौर पर, आप कह सकते हैं, यह मेरी प्रकृति है। उपन्यासकार एक विशेष नस्ल के होते हैं। वे पूरी तरह किसी चीज पर भरोसा नहीं कर सकते जिसे उन्होंने अपनी आंखों से न देखा हो, अपने हाथों से न छुआ हो।
और यही वजह है कि मैं यहां हूं। मैंने दूर रह जाने की जगह यहां आने का फैसला किया। न देखने की जगह खुद देखने का फैसला किया। मैंने आपसे कुछ न कहने की जगह कुछ कहने का फैसला किया।
कृपया मुझे एक नितांत निजी संदेश देने की अनुमति दें। यह बात अक्सर मेरे दिमाग में रहती है जब मैं उपन्यास लिख रहा होता हूं। मैंने कभी यह नहीं किया कि इसे किसी कागज पर लिखकर दीवार पर लगा दूं- वैसे यह मेरे मस्तिष्क की दीवार पर खुदा हुआ है, और यह कुछ इस तरह हैः
एक ऊंची मज़बूत दीवार, और उस पर टूटने वाले अंडे के बीच मैं हमेशा अंडे के पक्ष में खड़ा होऊंगा।
हां, यह मायने नहीं रखता कि दीवार कितनी सही हो सकती है और अंडा कितना गलत हो सकता है। मैं अंडे के साथ खड़ा होऊंगा। किसी और को तय करना होगा कि क्या सही है और क्या गलत। शायद वक्त या इतिहास तय करेगा। अगर कोई उपन्यासकार, चाहे जिस वजह से भी, दीवार के साथ खड़े होकर लिखेगा, तो ऐसी कृति का क्या मतलब रह जाएगा?
इस रूपक का मतलब क्या है? कुछ मामलों में, यह बहुत साफ और सरल है। बम गिराने वाले विमान और टैंक और रॉकेट और बारूद के खोखे ऊंची, मज़बूत दीवार हैं। अंडे वे निहत्थे नागरिक हैं जिन्हें वे कुचलते हैं, जलाते हैं और गोली मार देते हैं।
लेकिन यह पूरा नहीं है। इसमें एक गहरा अर्थ भी निहित है। इसके बारे में सोचिए। हममें से हरेक, कमोबेश एक अंडा है। हममें से हरेक एक अनूठा, अस्थानांतरणीय और अपने में बंद एक कवच है। यह मेरे बारे में सच है, और यह आपके बारे में सच है। और हममें से हरेक के सामने, कहीं ज़्यादा कहीं कम, एक ऊंची, मज़बूत दीवार है। दीवार का एक नाम है। यह है व्यवस्था। माना जाता है कि व्यवस्था हमारी रक्षा के लिए है। लेकिन कभी-कभी यह अपना भी एक जीवन बना लेती है, और फिर यह हमें मारना शुरू करती है, दूसरों को मारने के लिए मजबूर करती है- बेरहमी से, दक्षता से, व्यवस्थित ढंग से।
मैं बस एक ही वजह से उपन्यास लिखता हूं, और वह है वैयक्तिक चेतना की गरिमा को सामने लाना और उसे प्रकाशित करना। कहानी का मक़सद एक चेतावनी देना है, व्यवस्था को रोशनी के घेरे में रखना है ताकि उसे हमारी आत्माओं को अपने जाल में जकड़ने और उन्हें बेमानी बना डालने से रोका जा सके। मैं पूरी तरह मानता हूं कि उपन्यासकार का काम कहानियां लिखते हुए किसी निजी चेतना के अनूठेपन को स्पष्ट करना है- कहानियां जीवन और मृत्यु की, कहानियां प्रेम की, कहानियां जो लोगों को रुला दें, डर से सिहरा दें और हंसी से हिला दें। यही वजह है कि हम रोज पूरी गंभीरता के साथ किस्से गढ़ते जाते हैं। मेरे पिता बीते साल ९० की उम्र में गुज़र गए। वे अवकाशप्राप्त शिक्षक थे और अंशकालिक बौद्ध पुरोहित। जब वे ग्रेजुएट स्कूल में थे, उन्हें फौज में ले लिया गया और चीन में लड़ने भेज दिया गया। युद्ध के बाद जन्मे बच्चे के तौर पर, मैं उन्हें हर सुबह नाश्ते से पहले अपने घर की बौद्ध वेदी पर लंबी, गहरी प्रार्थना में डूबा देखा करता। एक बार मैंने उनसे पूछा कि वे यह क्यों करते हैं, और उन्होंने मुझे बताया कि वे युद्ध में मारे गए लोगों के लिए प्रार्थना किया करते थे।
वे सारे लोगों के लिए प्रार्थना कर रहे थे, उन्होंने बताया, दोस्त के भी दुश्मन के लिए भी। जब वे वेदी पर झुके हुए थे, तो उन्हें पीछे से देखते हुए, मुझे लगा कि मौत की छाया उनके आसपास मंडरा रही है। मेरे पिता चल बसे और अपने साथ अपनी यादें भी ले गए, वे यादें जिनके बारे में मैं कभी जान नहीं सकता। लेकिन उनके आसपास मंडराती मृत्यु की मौजूदगी मेरी अपनी स्मृति में बनी रह गई है। ये उन कुछ चीज़ों में है जो मैंने उनसे ली, और सबसे अहम चीज़ों में।
बस एक ही बात है, जो मैं आपसे आज कहना चाहता हूं। हम सब इंसान हैं, मुल्क, नस्ल, और मज़हब के पार खड़े लोग, वे कमज़ोर अंडे जिनके सामने व्यवस्था नाम की मज़बूत दीवार खड़ी है। कहीं से देख लें, हमारे जीतने की कोई उम्मीद नहीं है। दीवार बहुत ऊंची है. बहुत मज़बूत- और बहुद सर्द। अगर हममें जीत की ज़रा भी उम्मीद है तो यह उम्मीद हमारी अपनी और दूसरों की आत्माओं के अनूठेपन और उनकी अस्थानांतरणीयता पर हमारे भरोसे से आएगी, और उस ऊष्मा से जो इन आत्माओं के साझे से हम हासिल करते हैं। इस पर एक पल के लिए सोचिए। हममें से हरेक के पास एक जीवित, मूर्त आत्मा है। व्यवस्था के पास ऐसी कोई चीज़ नहीं है। हमें व्यवस्था को ये इजाज़त नहीं देनी चाहिए कि वह हमारा शोषण करे। हमें व्यवस्था को उसका अपना जीवन हासिल करने नहीं देना चाहिए। व्यवस्था ने हमें नहीं बनाया। हमने व्यवस्था को बनाया है। मुझे आपसे बस इतना ही कहना है।
कुछ दिनों पहले ही काफ़्का आन द शोर पढ़ी थी…इसे पढ़ते हुए उस उपन्यास के चिर युवा दो सैनिक याद आये और उनका यह कहना कि 'आप किसी की हत्या के लिये मना कर दें तो यह एक अच्छी बात है लेकिन अगर यह कहकर आप सेना में भर्ती होने से मना कर दें तो राष्ट्र आपका शत्रु हो जायेगा'…