
जन्मदिन
परसों फिर
हमेशा की तरह
पत्नी बच्चे और शायद
कुछ मित्र
कहेंगे
मुबारक हो।
बार-बार आए यह दिन।
मुबारक।
कब तक मुबारक?
बार-बार
और कितनी बार चौहत्तर के बाद?
मेरे मन में उठते हैं सवाल
उठते रहते हैं
कोई ठीक उत्तर नहीं मिलता
लालसा हो चाहे जितनी अदम्य
भले हो अनन्त
क्षीण होती शक्ति
और ऊर्जा
लगातार जर्जर होते अंग
कर ही देंगे उजागर
कि अब इस दिन का और आना
ख़ुशी से भी अधिक
यातना की नई शुरूआत है।
कहाँ गये सारे लोग
कहाँ गये सारे लोग जो यहाँ थे,
या कहा गया था कि यहाँ होंगे
लग रहा था बहुत शोर है,
एक साथ कई तरह की आवाजें
उभरती थीं बार-बार
बन्द बड़े कमरे में
पुराने एयर-कण्डीशनर की सीलन-भरी खड़खड़ाहट
सामने छोटे-मंच पर
आत्मविश्वास से अपनी-अपनी बातें सुनाते हुए
बड़े जिम्मेदार लोग
या उनसे भी ज्यादा जिम्मेदार
सुनने की कोशिश में एक साथ बोलते हुए
सवाल पूछते हुए
सामनेवालों से
आपस में
नारियल की शक्ल का जूड़ा बनाये
और मोटा-मोटा काजल आँजे
एक महिला का
रह-रह कर
किसी अपरिचित राग का आलाप-
लग रहा था बहुत शोर है, बहुत आवाजें हैं-
पर फिर क्या हुआ
कहाँ सब गायब हो गया
क्या कोई तार प्लग से निकल गया है
बेमालूम
कि कोई आवाज नहीं आती
कहीं कोई हिलता-डोलता नही
कुछ दिखाई भी नहीं पड़ता
कहीं ऐसा तो नहीं कि
बड़ा कमरा खाली है
हर चीज दूसरी से अलग हुई
थमी, बेजान है
या कि इतनी सारी आवाजों के
लोगों के बीच
मैं ही कहीं खो गया
अकेला हो गया।
आज फिर जब तुमसे सामना हुआ
कितने दिनों बाद आज फिर जब
तुमसे सामना हुआ
उस भीड़ में अकस्मात ,
जहाँ इसकी कोई आशंका न थी,
तो मैं कैसा अचकचा गया
रंगे हाथ पकड़े गये चोर की भांति ।
तुरत अपनी घोर अकृतज्ञता का
भान हुआ
लज्जा से मस्तक झुक गया अपने आप ।
याद पड़ा तुमने ही दिया था
वह बोध,
जो प्यार के उलझे हुए धागों को
धीरज और ममता से संवारता है,
दी थी वह करुणा
जिसके सहारे
आत्मीयों के असह्य आघात सहे जाते हैं,
सह्य हो जाते हैं-
और वह अकुण्ठित विश्वास
कि जीवन में केवल प्रवंचना ही नहीं है
अन्तर की अकिंचनताएँ प्रतिष्ठित
सहयोगियों की कुटिलता ही नहीं है,
किसी क्षणिक सिद्धि के दम्भ में
शिखर की छाती कुचलने को उद्यत
बैनों का अहंकार ही नहीं है-
जीवन में और भी कुछ है।
तुम्हारी ही दी हुई थी
वह अनन्य अनुभूति
कि वर्षा की पहली बौछार से
सिर-चढ़ी धूल के दबते ही
खुली निखरने वाली
आकाश की शान्तिदायिनी अगाध नीलिमा,
वर्षों बाद अचानक
अकारण ही मिला
किसी की अम्लान मित्रता का सन्देश,
दूर रह कर भी साथ-साथ एक ही दिशा में
चलते हुए सहकर्मियों का आश्वासन-
ये सब भी तो जीवन में है,
तुम ने कहा था ।
यह सब,
न जाने और क्या-क्या
मुझे याद आया
और एक अपूर्व शान्ति से
परिपूर्ण हो गया मैं
जब आज
अचानक ही भीड़ में
इतने दिनों बाद
तुम से यों सामना हो गया
ओ मेरे एकान्त !
हैसियत
दरज़े दो ही हैं
दूसरा पहला
खचाखच भरा है दूसरा
पहले में नहीं है भीड़
मारामारी
कहाँ है तुम्हारी जगह
कोशिश कर सकते हो तुम
चढ़ने की
पहले दरज़े में भी
यदि हो वहाँ आरक्षण
तुम्हारे लिए
भागकर जबरन चढ़ोगे
तो उतारे जाओगे
अपमान, लांछन
मुमकिन है सज़ा भी
घूस देकर टिके रहो शायद
अगर यह कर सको
मुमकिन पर यह भी तो है
जिसे तुम समझे थे पहला
वह दूसरा ही निकले
धक्कम-धक्के / शोर-शराबे से भरा
वहाँ भी / क्या भरोसा
जगह तुम्हें मिले ही
कोई और बैठा हो तुम्हारी जगह
बेधड़क, रौब के साथ
ताकत से
या किसी हिकमत
चतुराई से
सूझबूझ के बल
बहरहाल
तुम्हारे लिए
शायद नहीं है
कोई जगह कहीं भी
कुछ भी तुम करो
हैसियत तुम्हारी
है
रहेगी
बेटिकट यात्री की।
nemi ji aap to woha honge na jahan log banae jate honge kuchh apne jaise bana kar yeha bhejie
नेमि जी को मैं भी बहुत स्नेह और सम्मान से याद करता हूं. हिमाचल में धर्मशाला जैसी छोटी सी जगह में नटरंग नाटक की बड़ी उजली खिड़की की तरह खुलता था. 1980 में एमफिल करते समय लोक नाट्य पर एक पर्चा एक सेमिनार में पढ़ा और उन्हें भी भेजा. कुछ महीने बाद उनके उत्साहवर्धक पत्र के साथ टाइप किया हुआ पर्चा प्रूफ पढ़ने के लिए भेजा. मेरी खुशी का पारावार नहीं रहा. रेडियो के लिए यूपीएससी के साक्षात्कार के पेनल में भी मुझे लगा, वे थे. नाटक के सवाल उन्होंने पूछे. मुंबई आ गया, उसके बाद भी नटरंग में लिखवाते रहे. श्रीराम सेंटर की नाटककार कार्यशालाओं में दो बार उनका सानिध्य मिला. उनके घर पर रेखा जी के हाथ की बनी गुजिया और खाना भी खा चुका हूं. 2003 में उन्होंने नटरंग प्रतिष्ठान के नाटक पाठ कायक्रम में फिर से बुलाया. गहुत कृषकाय हो गए थे पर वैसी ही निश्छल निर्मल मुस्कान और गर्मजोशी. जीवन मे इतने स्नेहिल अग्रज बहुत कम मिले.
नेमि जी को व्यक्तिगत तौर पर भी मैं आदर और भावुकता के साथ ही स्मरण कर सकता हूं। उन्होंने हमेशा बड़प्पन का परिचय दिया। जब मैं मुंगावली जैसी अज्ञात जगह में रहता था तब कहीं कविताएं पढ़कर उन्होंने पत्र लिखा। अगले ही बरस 'किवाड़' कविता पर भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार दिया और हमेशा निश्चल स्नेह बनाए रखा। मेरे लिखने पढ़ने की चिंता की और बीच बीच में अपनी राय देते रहे। दिल्ली में पहली मुलाकात में मैं उन्हें पहचान नहीं सका तो वे खुद मेरे सामने आए, हंसते हुए अपना परिचय दिया और तत्क्षण में उपजी मेरी लज्जा को भी उन्होंने ही दूर किया। घर ले गए और करीब दो घंटे लंबी चर्चा संभव हुई। वे बड़े इंसान थे। अपने पढ़ने लिखने के अलावा मुक्तिबोध रचनावली का श्रमसाध्य और अनूठा उपहार उन्होंने साहित्य को दिया है। उन जैसी उपस्थिति विरल है।
शुक्रिया प्रभात जी, इतनी अच्छी कविताओं के साथ नेमिचंद्र जैन का स्मरण करने के लिए।
आप ने अच्छा याद दिलाया भाई। उनका मुझे बहुत स्नेह मिला था। लेकिन हम सब तो विस्मृति का सुख लेने के अभ्यासी हो गए हैं। नेमि जी जितना शब्द मितव्ययी संतोषी और सजग मुझे कम कवि दिखते हैं।
उनके प्रति हार्दिक श्रद्धांजलि। आप को धन्यवाद।
अहा !! बेजोड़ कवितायें भी !!
आपने एक ऐसे शख्सियत को केंद्र में रख कर पोस्ट लिखी है जिसने भारतीय नाट्य इतिहास में अप्रितम योगदान किया है. साधुवाद !