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मनोहर श्याम जोशी की एक आरंभिक कहानी

 कहानी 
मनोहर श्याम जोशी ने लेखन की शुरुआत कहनियों से की थी. यह उनकी आरंभिक कहानियों में है. कहानी का सन्दर्भ आत्मकथात्मक लगता है. १९५३ में दिल्ली आने के बाद जब वे आजीविका के लिए संघर्ष कर रहे थे तो नई दिल्ली स्टेशन के पास बैरन रोड पर एक जाफरी में रहा करते थे. जाफरी यानी सरकारी क्वार्टरों में रहने वाले अपने बारामदे को बांस की बनी जाफरी से घेरकर उसे किराए पर लगा देते थे. उन्होंने रचनाओं के बहाने रघुवीर सहाय स्मरण में लिखा है कि १० रुपये महीने पर उन्होंने एक जाफरी किराए पर ली थी. इस कहानी में उन्हीं दिनों के सन्दर्भ लगते हैं- जानकी पुल
उसका बिस्तर
बहुत मुश्किल से एक अदद मामूली नौकरी पा लेने के बाद उसने महसूस किया कि अभी और भी कई चीज़ें हैं जिन्हें पा सकना आसान नहीं. सबसे पहले महानगरी दिल्ली में रहने के लिए जगह. यह मुश्किल एक परिचित के परिचित ने हल कर दी- नई दिल्ली के लगभग टूटने को तैयार एक क्वार्टर की बदनुमा, बदरंग और तकरीबन हिल चुकी जाफरी किराए पर दिलाकर. जाफरी में बस जाने के बाद घर-गिरस्ती के लिए आवश्यक वस्तुओं की एक लंबी फेहरिस्त उसके सामने मंडराने लगी. अच्छे कपड़े, बर्तन-भांडे, साइकिल, टेबल फैन, मेज़-कुर्सी, अच्छी-सी बीवी, चारपाई और बिस्तर. इस फेहरिस्त में से और तमाम चीज़ों को आगे कभी अच्छे दिनों के लिए स्थगित किया जा सकता था, लेकिन चारपाई और बिस्तर का मसला टालना मुश्किल था. गर्मियों के दिन. लोग-बाग क्वार्टरों के बाहर के उजड़े लॉन में सोते थे. वहाँ बिना चारपाई के कैसे सोये? और बिना पंखे के इस मौसम में जाफरी में कैसे रात काटे? बजट चारपाई की अनुमति नहीं दे रहा था लेकिन चारपाई ही न होना शरीफ मध्यवर्गीय लोगों के साथ रहना असंभव बना रहा था. लिहाजा सिगरेट की जगह बीड़ी अपनाने का संकल्प करके उसने सबसे सस्ती मूंज की एक चारपाई ले ली.
जब इस नई चारपाई पर उसने अपना पुराना बिस्तर बिछाया तब उसे बहुत संकोच हुआ. उसने महसूस किया कि चारपाई पर उसका बिस्तर नहीं, उसकी दरिद्रता की नुमाइश लगी है. एक मैली-सी रजाई जिसमें रुई अब इकसार नहीं रह गई थी. एक उससे भी मैला गद्दा जो कई जगह से फटा था. एक मुड़ा-तुड़ा बिना खोल का चीकट तकिया. न दरी, न चादर. और इस बिस्तर में वह खास महक थी जो पहाड़ की सीलन में रह चुकने की सूचना देती है. बिस्तर का रंग-रूप, बिस्तर की गंध अनुभवी दर्शक के मन में खटमल-पिस्सू की आशंका को जन्म देती थी.
अगले दिन सुबह क्वार्टर-मालिक ने बिस्तर को धूप दिखाने की नेक सलाह देकर इस आशंका को परोक्ष रूप से प्रकट कर दिया. उनकी बात सुनकर वह बहुत झेंपा. उसे लगा कि अपनी जात और अपने जिले के क्वार्टर-मालिक पर न सिर्फ उसके बिस्तर के खटमल बल्कि घर के तमाम भेद जाहिर हो गए हैं- उसके बाप का शराब और जुए के क़र्ज़ में डूबकर मरना, उसकी माँ के हिस्टीरिया के दौरे, उसके भगोड़े छोटे भाई का एक बार चोरी में पकड़ा जाना, उसकी बहन की बेबुनियाद मगर बहुत फैली बदनामी! उसने जितना ही सोचा उतना ही यह महसूस किया कि अपने कभी खुशहाल कुनबे की मौजूदा कंगाली का यह विज्ञापन, यह बिस्तर उसे फेंक ही देना होगा. लेकिन फेंक दे तो सोये किस पर? और नया बनाये तो कैसे? अभी तो चारपाई लेना तक मुश्किल हो गया था. पहला वेतन मिलने पर भी स्थिति लगभग यही रहेगी. नौकरी की खोज के दौरान लोगों का जो उधार हुआ है वह चुकाना होगा. घर में पिताजी के मरने, बदनामी के डर के कारण बहन के सेविका पद से मुक्त हो जाने और छोटे भाई के भाग जाने के बाद बेसहारा हुए छः जनों के परिवार की परवरिश के लिए कुछ भेजना होगा और अपना सारा महीने का खर्च निकालना होगा. ऐसे देखा जाए तो वह महीनों तक बिस्तर लायक पैसे नहीं जोड़ पायेगा.
वह बिस्तर की समस्या से आक्रान्त रहने लगा और और इस तरह आक्रान्त रहने पर उसे खुद अपने से झुंझलाहट होने लगी. उसे अपनी बुनियादी मूर्खता का आभास सालने लगा. अगर चतुर होता तो क्या इतना मामूली-सा मसला हल नहीं कर पाता. अरे, लोग-बाग कैसे-कैसे मसले हल कर लेते हैं. लोटा लेकर घर से निकलते हैं और लखपति होकर लौटते हैं. वह एक बिस्तर तक का जुगाड़ नहीं कर पा रहा है. इस बारे में सलाह ले तो किससे? जो सुनेगा वही हंसेगा! एक बार उसके मन में थोड़ी चतुराई आई. सोचा, क्यों न केवल एक चादर और दरी ले लूं और तकिये का खोल बनवा लूं? इस चतुराई पर वह बहुत खुश हुआ हालांकि चादर, दरी और खोल के लिए भी अभी उसके पास पैसे नहीं थे और न पहला वेतन मिलने पर हो सकते थे. मजबूरी ने सारी खुशी खत्म कर दी. तब उसे चतुराई में खामियां नज़र आने लगीं. क्या केवल चादर और दरी को बिस्तर कहा जा सकता है? क्या चादर और दरी हो जाने पर वह पुराना गद्दा-रजाई फेंक सकेगा? अगर नहीं फेंकेगा तो क्या वे उसकी दरिद्रता की नुमाइश नहीं करते रहेंगे? अगर फेंक देगा तो मौसम बदलने पर क्या करेगा? तब की तब देखी जायेगी, कहने से काम नहीं चल सकता. अगर तब हालत बदतर हुई तो?
उसने चतुराई को दुत्कार दिया और तय किया कि चाहे जैसे हो पूरा बिस्तर बनवायेगा और शीघ्र ही बनवायेगा. मगर कैसे? और इस सवाल का कोई चमत्कारी जवाब उसे नहीं सूझा. फिर एक दिन शाम को वह पहाड़गंज तक टहल आया, यह मालूम करने के लिए कि नया बिस्तर कम से कम कितने में बन सकता है? वहाँ पहुंचकर उसे संकोच ने धर दबाया. जब खरीदने के लिए पैसे नहीं तो बेकार दुकानदार से कैसे बात करे? आखिर बहुत हिम्मत करके वह एक ऐसी दुकान  पहुंचा जिसका मालिक बुजुर्ग और सीधा-सा था. जाकर उसने सवाल यह किया कि नौकर के लिए बिस्तर बनवाना है. कम से कम कितने में बनेगा? दुकानदार ने बिस्तर का ब्यौरा पूछा और फिर बताया कि अगर आप कॉटन-वेस्ट का गद्दा-रजाई लें काम सस्ते में बन जाएगा. पूरा हिसाब पूछकर यह कहकर चला आया कि कल मैं नौकर को रुपये लेकर भेज दूंगा.
इसके बाद वह टहलता हुआ ही अपने नियत ढाबे में खाने पहुंचा और वहाँ सहसा सस्ते बिस्तर बनवा सकने का एक गैर-चमत्कारी उपाय उसे सूझा- त्याग और तपस्या. आज से वह सब्जी वगैरह कुछ नहीं लेगा. केवल दाल और प्याज-चटनी के साथ रोटी खायेगा. दफ्तर आने-जाने के लिए बस नहीं लेगा, पैदल ही चला जाया करेगा. चाय दिन में कुल एक बार पिएगा. इस तरह यहाँ-वहाँ खर्च में कतर-ब्योंत करके वह पहला वेतन मिलने पर नया वेतन मिलने का दुस्साहस कर डालेगा. संभव है इस दुस्साहस के कारण अगले महीने के अंत में सूखी रोटी के लाले पड़ जाएँ. लेकिन दुस्साहस करना ही होगा क्योंकि बिस्तर बनवाना प्रतिष्ठा का प्रश्न बन चुका है.
और पहला वेतन मिलने पर उसने बिस्तरा बनवा ही डाला. क्वार्टर मालिक ने जब कहा कि यह काम आपने अच्छा किया, तब उसे अपनी तपस्या सार्थक हुई जान पड़ी. बिस्तर पर लेटकर, उसके गुदगुदेपन पर हाथ-पांव लंबे पसारकर उसके नयेपन की गंध से नथुने भरकर वह और भी संतुष्ट हुआ. तभी उसकी दृष्टि लॉन पर केवल एक फटी दरी बिछाकर लेते हुए भौन सिंह पर पड़ी. भौन सिंह चपरासी की नौकरी की तलाश में भटकता एक बेकार नवयुवक था, जो फिलहाल क्वार्टर-मालिक का घरेलू काम करके क्वारते के बाहर पड़े रहने और और सुबह-शाम सूखी रोटी खा सकने का अधिकार लिए हुए था. कुछ देर तक वह अपने नए बिस्तर पर लेटे-लेटे भौन सिंह के नाचीज़ बिस्तर को देखता रहा. फिर वह एक झटके से उठा. उसने जाफरी खोली और पुराना बिस्तर निकालकर भौन सिंह को बख्शीश कर दिया. बख्शीश दे सकने की इस क्षमता ने उसके संतोष को पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया. उस रात वह चैन की नींद सोया.
अगले दिन तड़के उसकी नींद खुल गई. कुछ देर बिस्तर पर लेटे-लेटे वह यह सोचकर सुख का अनुभव करता रहा कि जैसे त्याग-तपस्या से उसने बिस्तर वाला मसला हल किया वैसे ही एक-एक करके अपने और परिवार के मसले हल कर डालेगा. सुबह के पक्षियों के स्वरों में उसने अपनी आगामी सफलताओं के सगुन सुने. तबियत तो यही हो रही थी कि इसी तरह लेता रहे और खुली आँखों से सपने देखता रहे. लेकिन क्वार्टर में घर के मेहमान और किरायेदार इतने लोग थे कि सुबह पहले नहा-धो लिए बिना पैदल दफ्तर जाने की योजना चल नहीं सकती थी. तो वह उठ बैठा. एक विचार आया कि बिस्तर समेटकर जाफरी में रख आए. फिर सोचा कि ऐसी क्या ज़ल्दी है. मन में शायद कहीं यह इच्छा भी थी कि आसपास के लोग भी उठकर उसकी खुशहाली के इस सबूत को देख लें.
पन्द्रह मिनट बाद जब वह नहा-धोकर लौटा तब चारपाई पर निगाह पड़ते ही उसका दिल धक् से रह गया. चारपाई पर बिस्तर नहीं था. किसी ने संभाल दिया होगा- उसने अपने मन को समझाया. लेकिन नहीं. बिस्तर जाफरी में नहीं था. आसपास सब लोग सोये हुए थे. क्वार्टर मालिक और भौन सिंह उससे भी पहले उठ चुके थे और इस समय अंदर थे. उनसे जाकर कहा. पूछताछ शुरू की. और केवल घंटे भर तक पास-पड़ोस के कुतूहल का विषय रहने के बाद नए बिस्तर की चोरी का यह प्रसंग सबके लिए बासी पड़ गया. थाने में रपट दर्ज कराने की व्यर्थता-सार्थकता पर विचार-विमर्श भी बेमजा हो चला. कई समझदार लोग आपस में इस बात पर भी शंका व्यक्त करने लगे कि इन साहब के पास नया बिस्तर था भी!
उसे महसूस हुआ कि लोग-बाग हमदर्दी नहीं जता रहे हैं, उस पर हँस रहे हैं. उसे नए सिरे से अपनी बुनियादी मूर्खता का बोध हुआ और यह बोध क्रोध और करुणा दोनों का कारण बना. उसने बिस्तर तुरंत लपेटकर जाफरी में क्यों नहीं रखा? अब बिस्तर की चोरी पर रोने से क्या फायदा! बिस्तर जैसी मामूली सी चीज़ की चोरी पर कोई हमदर्दी भी कितनी देगा? बिस्तर चोरी चला गया, कोई पहाड़ तो नहीं टूट गया! अब वह किसी को कैसे समझाए कि उस पर तो सचमुच ही पहाड़ टूट गया. जो चोरी गया वह बिस्तर नहीं था, त्याग-तपस्या की सफलता का प्रतीक था. और अब उसके पास बिछाने के लिए भी तो कुछ नहीं है. उसने अपना पुराना बिस्तर बख्शीश कर दिया है!
रात ढाबे में खाने के बाद वह देर तक इधर-उधर भटकता रहा. वह चाहता था कि सबके सो चुकने के बाद लौटे और चुपचाप जाकर जाफरी के फर्श पर लेट जाए. उसके कदम भटक रहे थे और विचार भी. बिस्तर के खोने का दर्द जैसे तमाम अस्तित्व के खोने का ही दर्द बनता जा रहा था. उसके पास इतना रुपया नहीं कि दूसरा बिस्तर बनवा सके. उसके पास इतना रूपया नहीं कि कभी कोई अप्रत्याशित आपत्ति आ जाने पर उसका मुकाबला कर सके. उसने कल्पना की कि वह सख्त बीमार पड़ गया है और दवा-दारु के लिए पैसे नहीं हैं. उसने कल्पना की कि उसकी माँ ज़िंदगी की अंतिम साँसें गिन रही है. तार आया है. लेकिन उसके पास इस लंबे सफर के लिए और सफर के बाद गांव में हो सकने वाले खर्च के लिए रुपये नहीं हैं. ऐसी कल्पनाएँ कर-करके वह रुआंसा हो चला. फिर इन कल्पनाओं ने ऐसा रूख लिया जिसका हास्यास्पद आयाम भी था. मिसाल के लिए उसने सोचा कि उसकी इकलौती पतलून किसी सीट की उभरी मेख ने पीछे से फाड़ दी है और अब उसके पास दफ्तर पहन कर जाने के लिए कुछ नहीं है और नई पतलून सिलाकर खरीद सकने के लिए पैसे नहीं हैं. महीने का आखिरी दिन है. उसकी चप्पल चलते-चलते फट गई है. मोची ठीक करने के लिए पच्चीस पैसे मांग रहा है और उसके पास अब कुल दस पैसे बचे हैं वह चप्पल को हाथ में लेकर नंगे पांव निकल पडा है. एक कील सहसा उसके पांव में चुभ जाती है और दवा-दारू के अभाव में गैंग्रीन का ख़तरा पैदा हो जाता है.
शुरु में इन कल्पनाओं का हास्यास्पद पक्ष उसके समक्ष उजागर नहीं हुआ. वह अपने वास्तविक और कल्पित दुखों को पोसता रहा और गहरे कहीं इससे उसे एक सहारा भी मिलता रहा. फिर उसे इस सोच-विचार का हास्यास्पद पहलू नज़र आने लगा. जो अब तक अपनी सीधे, अपनी ग्रहदशा मालूम हो रही थी वह अपनी बुनियादी मूर्खता का रूप लेने लगी और मुंह बिराने लगी. उसे अपने पर गुस्सा आया. वह इसी तरह सारी रात टहलता रहेगा? बीमार पडना है? सोने का प्रबंध नहीं करना है?
वह अपनी जाफरी को लौटा. भौन सिंह और क्वार्टर मालिक के अतिरिक्त सब सो चुके थे. भौन सिंह बर्तन मांज रहा था. क्वार्टर मालिक अपने गांव की ज़मीन के कुछ कागज़ात से माथापच्ची कर रहे थे. उन्होंने कागज़ात फाइल में बंद किए. चश्मा उतारा और बोले, कहिये, आज बड़ी देर कर दी लौटने मन. अब सोने की तैयारी है.  
वह कहना चाहता था कि मेरा बिस्तर तो चोरी चला गया है. लेकिन ऐसा कहना अपनी मूर्खता का एक और सबूत देने जैसा लगा. क्वार्टर मालिक को मालूम है कि बिस्तर चोरी चला गया है.
उसके चुप रहने पर बिस्तर-मालिक ने बिस्तर की चोरी पर नए सिरे से सहानुभूति व्यक्त की और इस बात पर संतोष व्यक्त किया कि उसके पास पुराना बिस्तर तो है. बोले, बात यह है कि मेरे पास भी गिने-चुने ही बिस्तर हैं और मेहमान आप देख ही रहे हैं कि कितने आए हुए हैं. उनमें से भी एक के पास बिस्तर नहीं है, वरना मैं आपको एक दे देता. कहिये तो पड़ोस से दरी-वरी का प्रबंध करूं? तकल्लुफ की कोई बात नहीं.
उसकी कोई ज़रूरत नहीं. उसने बुजुर्गाना लहजे में कहा और फिर जाफरी में जाकर पेंसिल-कॉपी लेकर दिखावे की व्यस्तता में डूब गया. क्वार्टर मालिक एक गहरी डकार लेकर सोने चले गए.
थोड़ी देर में भौन सिंह आया. बरामदे से भौन सिंह ने उसकी चारपाई उठाई और बाहर रख दी. फिर वह आकर बोला, आज सोयेंगे नहीं, बाबू साहब?  
इस प्रश्न पर उसे बहुत गुस्सा आया लेकिन गुस्से को पीकर उसने कहा, सोऊं किस पर, बिस्तर तो है नहीं.
बिस्तर है, भौन सिंह ने कहा, बिछा भी दिया है. जाइए, आराम कीजिये.
उसे आश्चर्य हुआ. जाफरी पर ताला लगाते हुए उसने एक क्षण यह कल्पना भी की कि भौंन सिंह   किसी चमत्कार से उसका नया बिस्तर ढूंढ लाया है.
खाट पर लेकिन वही पुराना बिस्तर बिछा हुआ था जो उसने भौन सिंह को बख्शीश कर दिया था. कांपते हुए स्वर में उसने विरोध किया- यह नहीं हो सकता, भौन सिंह. भौन सिंह ने कुछ कहा नहीं केवल उसका हाथ पकड़कर उसे खाट पर बिठा दिया और खुद फटी दरी बिछाकर लॉन पर लेट गया.
कुछ देर तक वह खाट पर बैठा रहा. फिर लेट गया. रिस्थितियों के हाथों अपनी हार उसे अब पराकाष्ठा पर पहुंची हुई मालूम हुई. सवेरे के अपने वास्तविक और कल्पित दुखों पर वह कई बार रुआंसा हुआ था, पर रोया नहीं था. लेकिन अब पुराने बिस्तर के तकिये में बसी उसकी कंगाली की गंध नम होने लगी.
     
 
      

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5 comments

  1. इस कहानी ने सीधे उस कल्पनालोक तक पहुँचा दिया जहाँ बिना कहे ही लोग आपस में अपने दुखों को साझा कर आधा कर लिया करते थे।
    मार्मिक कहानी

  2. sundar aur dil ko chhu lene wali .aapke blog tak ravish ji ki nai sadak ke madhyam se pahuncha hoon ab aata hi rahunga

  3. काफ़ी मार्मिक कहानी है. ऐसी हालातों से गुजरना क्या होता है, जो भोगे वही जानता है. आपने इस कहानी को हम तक पहुँचाया, इसके लिए धन्यवाद.

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