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मशहूर लेखक मार्केज़ के कुछ रोचक जीवन प्रसंग

गाब्रिएल गार्सिया मार्केज़ को विश्व के महानतम जीवित लेखक के रूप में देखा जाता है. उनके जीवन और लेखन को लेकर मैं हिंदी में मैं एक पुस्तक लिख रहा हूँ. यहाँ उसके कुछ रोचक अंश प्रस्तुत हैं जिनका संबंध मार्केज़ के जीवन से है- जानकी पुल.
अंधविश्वास और फितूर
मार्केज़ ने लिखा है कि अगर आप ईश्वर में विश्वास नहीं करते तो कम से कम अंधविश्वासी तो बनिए। मार्केज़ स्वयं शकुन-अपशकुन में विश्वास करते हैं और इस बात को अपनी भेंटवार्ताओं में उन्होंने छिपाया भी नहीं। अपने लेखन की तरह अपने जीवन में भी इस तरह की बातों में विश्वास करते हैं। जैसे पीले फूलों के प्रति उनका विश्वास। वे जहां भी रहते हैं वहां हमेशा पीला फूल लगाए रखते हैं। उनका मानना है कि जब तक पीला फूल उनके आसपास रहेगा उनके साथ कोई दुर्घटना नहीं हो सकती। इसी तरह लेखन की मेज पर रोज़ उनकी पत्नी एक ताज़ा गुलाब लगाती हैं। जिस दिन उनकी टेबल पर फूल नहीं लगता है उस दिन वे काम नहीं कर पाते। इसी तरह सफेद कपड़े पहनकर काम करने का उनको फितूर है। उनके दोस्त प्लीनियो मेंदोज़ा ने लिखा है कि मार्केज़ को भविष्य में घटनेवाली घटनाओं का पूर्वाभास हो जाता है। जैसे एक बार वे उनके साथ वेनेजुएला की राजधानी में थे कि उन्होंने मेंदोज़ा से कहा कि कुछ गड़बड़ होनेवाली है। कुछ देर बाद वहां के तानाशाह के महल पर हवाई हमला हो गया जबकि उसके बारे में किसी ने सोचा भी नहीं था। इस तरह की अनेक घटनाओं के बारे में उन्होंने स्वयं लिखा है। उन्होंने एक भेंटवार्ता में कहा भी है जिस तरह की बातों को अंधविश्वास कहा जाता है वे वास्तव में प्राकृतिक शक्तियों द्वारा संचालित होती हैं तथा जिनको तर्कप्रधान आधुनिकता द्वारा पूरी तरह नकार दिया गया।
अशुद्ध भाषा का शुद्ध लेखक
मार्केज़ ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि बचपन से ही स्पेनिश भाषा लिखते हुए वे वर्तनी की गलतियां खूब किया करते थे। वे जब हॉस्टल में रहते थे तो वहां से अपनी माँ को पत्र लिखा करते। माँ चिट्ठी को ध्यान से पढ़तीं और उसकी वर्तनी सुधारकर उनको वापस भेज दिया करतीं कि शायद इससे बेटा भाषा को सही-सही लिख सके। उन्होंने मजाक में लिखा है कि उन्होंने स्कूल के दिनों में लैटिन अमेरिका के महानायक बोलीवार की जीवनी पढ़ी। उसमें लिखा था कि बोलीवार कभी शुद्ध भाषा नहीं लिख पाए तो वे क्या लिखते। बहरहाल, उनकी अशुद्ध भाषा से जुड़ा एक मजेदार किस्सा है। किस्सा उन दिनों का है जब वे एल हेराल्दो नामक अखबार में संघर्षशील पत्रकार थे और एक उपन्यास लिख रहे थे जो कभी पूरा नहीं हुआ। तब उनके पास चमड़े का एक सुंदर ब्रीफकेस होता था जिसे उन्होंने बोगोटा के दंगों के दौरान एक स्टोर से लूटा था। उसमें वे अपने लिखे जा रहे उपन्यास की पांडुलिपि रखते और उसे सदा अपने साथ लेकर चलते। एक दिन वे उस ब्रीफकेस को एक टैक्सी में छोड़कर उतर गए। ब्रीफकेस के खो जाने से वे इतने निराश हुए कि उसे ढूंढने का अपनी ओर से उन्होंने कोई प्रयास भी नहीं किया। उनके एक दोस्त को जब पता चला तो उन्होंने मार्केज़ के कॉलम जिर्राफ के नीचे एक नोट लगा दिया। उस नोट में लिखा कि एक ब्रीफकेस पिछले सप्ताह किसी टैक्सी में छूट गया। संयोग से उस ब्रीफकेस के मालिक और इस कॉलम के लेखक एक ही व्यक्ति हैं। हम उनके बहुत आभारी होंगे अगर वे दोनों में से किसी एक को इस संबंध में सूचित कर दें। ब्रीफकेस में कोई मूल्यवान वस्तु नहीं है, बस जिर्राफ के अनछपे पन्ने हैं। दो दिनों बाद कोई वे पन्ने एल हेराल्दो के ऑफिस के गेट पर छोड़ गया। ब्रीफकेस उसने नहीं लौटाया। अलबत्ता पांडुलिपि में तीन स्थानों पर हरे पेन से उसने वर्तनी की अशुद्धियां बहुत अच्छी लिखावट में ठीक कर दी थीं।
किसिम किसिम के काम
पत्रकार के रूप में मार्केज़ की थोड़ी-बहुत लोकप्रियता थी लेकिन उससे महीने भर का खर्च चलाना भी मुश्किल पड़ता था। इसलिए रोजी-रोटी के लिए बीच-बीच में उन्होंने कई दूसरे तरह के काम भी किए। एक बार एक स्थानीय मुद्रक ने उनको अपने यहां पार्ट टाइम काम दिया। काम था प्रेस के प्रचार में लिखे गए पर्चों को बाजार में घूम-घूमकर बांटना जिससे उस प्रेस के बारे में लोगों को जानकारी हो पाए। काम अच्छा चल रहा था लेकिन अफसोस एक दिन अचानक उनको यह काम छोड़ना पड़ा। कारण यह था कि एक दिन उनको पर्चे बांटते हुए अराकाटक की एक जानकार महिला ने देख लिया और उनको पहचानकर जोर से कहा, अपनी माँ लुईसा मार्केज से कहना से कहना कि इस बारे में भी सोचे कि उसके माता-पिता की आत्मा पर उस दिन क्या गुजरेगी जब उनको पता चलेगा कि उनका प्यारा नाती बाजारों में पर्चे बांटा करता है। इस घटना ने उनको इतना दुखी किया कि उन्होंने उस काम को छोड़ दिया। इसी तरह जब उनके पहले उपन्यास लीफ स्टॉर्म को प्रकाशक ने लौटाते हुए यह सलाह दे डाली कि इसके लेखक को लिखना छोड़कर कोई और पेशा अपनाना चाहिए। उसके बाद उन्होंने पत्रकारिता छोड़कर कुछ दिनों के लिए सेल्समैन के रूप में काम किया। उन्होंने कस्बों में घूम-घूमकर एनसाइक्लोपीडिया और तकनीकी किताबें बेचने का काम शुरु किया। तय हुआ कि उनको किताब की कीमत के 25 प्रतिशत कमीशन के रूप में मिलेंगे जो एक आदमी के खर्च के लिए काफी होते। लेकिन वे इतनी किताबें ही नहीं बेच पाए कि कमीशन मिलने की नौबत आती।
 
      

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7 comments

  1. भाई प्रभातजी,
    मार्केज पर इतने मानीखेज लेख के लिए हार्दिक धन्‍यवाद। जानकी पुल स्‍तरीय विश्‍व साहित्‍य का झरोखा बनता जा रहा है जो कि सुखद है। उम्‍मीद है इसकी सक्रियता और बढ़ेगी और ऐसी ही मजेदार सूचनाएं मिलती रहेंगी। आपकी किताब का बेसब्री से इंतजार रहेगा।
    सादर,
    प्रमोद

  2. प्रभात जी
    नमस्कार !
    मर्क़ुएज़ से अच्छा परिचय करवाया .!
    आभार !

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