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शायरों-अदीबों की गली बल्लीमारान

बरसों पहले गुलज़ार ने एक टीवी धारावाहिक बनाया था ग़ालिब. उसके शीर्षक गीत में उन्होंने चूड़ीवालान से तुक मिलाते हुए बल्लीमारान का ज़िक्र किया था. उस बल्लीमारान का जिसकी गली कासिमजान में इस उपमहाद्वीप के शायद सबसे बड़े शायर ग़ालिब ने अपने जीवन के आखिरी कुछ  साल गुजारे थे. उसके बाद से तो बल्लीमारान और ग़ालिब एकमेक हो गए. कासिमजान के बारे में कोई नहीं जानता जिसके नाम पर वह गली आबाद हुई, बल्लीमारान के अतीत को कोई नहीं जानता. ग़ालिब और बल्लीमारान. बस.
एक ज़माने में बल्लीमारान को बेहतरीन नाविकों के लिए जाना जाता था. इसीलिए इसका नाम बल्लीमारान पड़ा यानी बल्ली मारने वाले. कहते हैं मुगलों की नाव यहीं के नाविक खेया करते थे इसलिए काम भले छोटा रहा हो लेकिन सीधा शाही परिवार से नाता होने के कारण उनका उस ज़माने के दिल्ली में अच्छा रसूख था. बाद में जब नाव खेने वालों का जलवा उतरने लगा तो इस गली की रौनक बढ़ाई चांदी के वर्क बनाने वालों ने. कहते हैं बल्लीमारान जैसे महीन वर्क बनाने वाले कारीगर उस दौर में कहीं नहीं मिलते थे. दिल्ली के पान की गिलौरियाँ रही हों या घंटेवाला की मिठाइयां चांदी के वर्क उनके ऊपर बल्लीमारान के ही लपेटे जाते थे.
इसी शोहरत के कारण १८वीं शताब्दी के अंत आते-आते चांदनी चौक की इस गली पर नवाबों-व्यापारियों की नज़र पड़ी और इसके बाशिंदे बदलने लगे. नवाब लोहारू रहने आए, जिनकी बहन उमराव बेगम से ग़ालिब ने शादी की थी और बाद में जिनकी हवेली में वे अपने आखिरी दिनों में रहने भी आए. आज वह हवेली स्मारक बन चुका है और उसके खुदा हुआ है कि अपने जीवन के आखिरी दौर में १८६०-६३ के दौरान ग़ालिब गली कासिम जान की इस हवेली में रहे थे. यह ग़ालिब के जीने की नहीं मरने की हवेली है. कई और नवाबों की हवेलियाँ  भी यहाँ थी. विलियम डेलरिम्पल ने लिखा है कि उन्हीं नवाबों का रसूख था कि १८५७ की क्रांति के बाद बल्लीमारान अंग्रेजों के कोप से बच गया था और यहाँ कत्लेआम नहीं हुआ था.  
इसके ऊपर कम ही ध्यान जाता है कि दिल्ली के उजड़ने के बाद बल्लीमारान को शायरों-अदीबों ने आबाद किया. ग़ालिब के बाद सबसे बड़ा नाम मोहम्मद अल्ताफ हुसैन ‘हाली’ का लिया जा सकता है. वे ग़ालिब के शागिर्द तो नहीं रहे लेकिन करीब १५ सालों तक ग़ालिब के करीब रहे और उनके मरने के बाद उन्होंने ग़ालिब के ऊपर ‘यादगारे-ग़ालिब’ नामक पुस्तक लिखी. यह पहली पुस्तक है जो ग़ालिब के मिथक और यथार्थ को सामने लाती है. जिसमें उन्होंने लिखा है कि बाद में वे महमूद खान के दीवानखाने से लगी मस्जिद के पीछे के एक मकान में रहने लगे थे. इसके मुताल्लिक उन्होंने ग़ालिब का एक शेर भी उद्धृत किया है-
मस्जिद के जेरे-साया एक घर बना लिया है,
ये बंदा-ए-कमीना हमसाया-ए-खुदा है.
लेकिन उनकी पहचान बल्लीमारान से ही जुड़ी रही और बल्लीमारान को उनकी वजह से मशहूर होना बदा था. बहरहाल, हाली के हवाले से एक और बात लगे हाथ बता दूं कि मशहूर फिल्म पटकथा लेखक, निर्देशक ख्वाजा अहमद अब्बास उनके पोते थे. इस लिहाज़ से ख्वाजा अहमद अब्बास का नाता भी बल्लीमारान से जुड़ता है. उसकी शानदार  अदबी रवायत से.
जुदाई के शायर मौलाना हसरत मोहानी का संबंध भी बल्लीमारान से था ग़ालिब की गली कासिम जान से नहीं. ‘चुपके-चुपके रात-दिन आंसू बहाना याद है’ जैसी गज़ल या इस तरह का शेर कि ‘नहीं आती तो उनकी याद बरसों तक नहीं आती, मगर जब याद आते हैं तो अक्सर याद आते हैं’ उन्होंने बल्लीमारान की गलियों में ही लिखे. प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी हकीम अजमल खान की पहचान भी बल्लीमारान से जुड़ी हुई है. एक ज़माना था कि उनकी हवेली आजादी के मतवालों का ठिकाना हुआ करती थी. कांग्रेस पार्टी के नेताओं का अड्डा. भारत के उप-राष्ट्रपति ज़ाकिर हुसैन के बारे में कहा जाता है कि उनका इस मोहल्ले से गहरा नाता था. उस ज़माने में यहाँ हाफ़िज़ होटल हुआ करता था जहाँ खाए बिना उनकी भूख नहीं मिटती थी. वहाँ की नाहरी हो या बिरयानी उसका स्वाद उनकी जुबान पर ऐसा चढा कि महामहिम होने के बाद जब वे यहाँ आ नहीं सकते थे तब वे यहाँ से खाना मंगवाकर खाया करते थे. बहरहाल यह होटल अब बंद हो चुका है लेकिन पुरानी दिल्ली में अभी ऐसे लोग हैं जो हाफ़िज़ होटल का नाम आने पर चटखारे भरने लगते हैं. 
बल्लीमारान से एक और लेखक हैं जिनका गहरा रिश्ता था. उनका नाम है अहमद अली. अंग्रेजी के आधुनिक उपन्यासकारों में इनका नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है. आर.के. नारायण और राजा राव के साथ इन्होंने भारतीय अंग्रेजी उपन्यास की आधारशिला रखी. इनके उपन्यास ‘ट्विलाइट इन देल्ही’ को दिल्ली की बनती-बिगड़ती संस्कृति का दस्तावेज़ कहा जाता है. इनके उपन्यास में बल्लीमारान के नुक्कड़ पर बने प्याऊ का ज़िक्र आता है जो आज भी इसकी कुछ पुरानी पहचानों की तरह मौजूद है. विभाजन के बाद ये पाकिस्तान रहने चले गए लेकिन कहते हैं बल्लीमारान से इनका नाता नहीं टूटा. शायरों-अदीबों की इस गली से.
आज उसके एक तरफ जूतों का बाज़ार है तो दूसरी ओर ऐनक का बाज़ार. इसके बीच बल्लीमारान की पहचान कहीं गुम सी हो गई है.
इस मंडी को देखकर कौन मानेगा कि कभी यहाँ अदब की एक बड़ी परंपरा रहती थी…    
 
      

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18 comments

  1. बहुत खूब

  2. प्रभात रंजन जी बल्लीमारान के शायरों पर इतनी अच्छी जानकारी के लिए धन्यवाद । पुरानी यादें धरोहर होती हैं |

  3. मस्जिद के जेरे-साया एक घर बना लिया है,
    ये बंदा-ए-कमीना हमसाया-ए-खुदा है….

    अब इस नजरिये से इस जगह को देखना होगा फिर से ….
    बेहतर जानकारी के लियें आभार प्रभात जी…

  4. bahut hi rochak dhang se likha hua … informative..

  5. बहुत खूब
    कौन जाए ग़ालिब ये दिल्ली की गलियाँ छोड़ कर !

  6. हसरत मोहानी की मशहूर ग़ज़ल 'चुपके चुपके रात दिन' का यह शेर भी बल्‍लीमारान में ही उपजा था,
    ''दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिए
    वो तेरा कोठे पे नंगे पांव आना याद है।''

  7. v.v interesting information….

  8. यह तो भूमिका हो गई…'बल्‍लीमारान' के बहाने ग़ालिब पर एक कहानी हो जाय ।

    उपयोगी लेख ।

  9. बहुत बहुत आभार। आजकल कुछ समस्या है ब्लॉगर तक पहुँचने में – पता नहीं क्यों – इसीलिये फ़ेसबुक पर ही आभार प्रकट करने पहुँचा था। आलेख बढ़िया और जानकारीपरक है, वाह!

  10. वहां गयी तो कई बार हूँ और कुछ बातें पता भी थीं वहां के बारे में, पर आपने जो नयी बातें और बतायीं उसके लिए शुक्रिया

  11. प्रभात भाई, इस ब्लॉग पर एक अनोखा सुख मिलता है।

  12. Beautiful Article and Great comment by Sadan. Though, whenever I remember or cross through Ballimaran remember one more guy, Pran, who contributed a lot to Indian Film Industry

  13. बल्लीमारान का इतना विशिष्ट परिचय देने के लिए शुक्रिया. हम अपनी विरासतों को भूल नहीं जायें, इसके लिए यह जरूरी कम है. बधाई.

  14. कुछ नई बातें जानने को मिली,मसलन बल्लीमारन मतलब बल्ली मारने वाला. शुक्रिया

  15. बहुत दिनों के बाद दिल्ली के कूचों जिसमे बल्लीमारान का निहायत ही खास जगह है, पर इतनी खूबसूरती से लिखा लेख पढ़ा. मीर ने फरमाया,
    दिल्ली के न थे कूचे औराक ए मुस्सवर थे
    जो शक्ल नजर आयी तस्वीर नजर आयी.

  16. साहित्य, आर्थिक और नगरीय इतिहास की रेसिपी बल्लीमारान पसंद आई

  17. कुछ नाम केवल नाम नहीं होते, इतिहास, संस्कृति और तहज़ीब की ढेर सारी अनुगूंजों का स्पंदन कौंध जाता है उसमें. 'बल्लीमारान' भी उनमें से एक है. अद्भुत 'सांस्कृतिक-संस्मरणधर्मिता के साथ लिखा है आपने!!

  18. पिछली बार भारत गये तो खास तौर पर मन बना कर बल्ली मारन भी गये…

    बात तो आप सही कह रहे हैं.

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