कवि ज्ञानेंद्र पति इसी महीने चुपचाप साठ साल के हो गए. इस अवसर पर मुझे उनकी कविता ‘ट्राम में एक याद’ का स्मरण हो आया. जब नौवें दशक में इस कविता का प्रकाशन हुआ था तो इसकी खूब चर्चा हुई थी. केदारनाथ सिंह के संपादन में हिंदी अकादेमी, दिल्ली से नौवें दशक की प्रतिनिधि कविताओं के संचयन में भी इस कविता को स्थान मिला. ज्ञानेंद्र पति की कविताओं की ओर लोगों का ध्यान गया था. सार्वजनिक बनाम निजी का जो द्वंद्व इस कविता में है वह नितांत समसामयिकता के इस दौर में इस कविता को प्रासंगिक भी बनाता है. उस दौर में यह उनकी ‘सिग्नेचर कविता’ बन गई थी. साहित्य अकादेमी पुरस्कार विजेता इस कवि के दीर्घायु होने की कामना के साथ उनकी वही कविता प्रस्तुत है. साथ में ‘संकल्प कविता दशक’ शीर्षक उस संचयन में संकलित एक और कविता- जानकी पुल.
कविता
ट्राम में एक याद
चेतना पारीक, कैसी हो?
पहले जैसी हो?
कुछ-कुछ खुश
कुछ-कुछ उदास
कभी देखती तारे
कभी देखती घास
चेतना पारीक, कैसी दिखती हो?
अब भी कविता लिखती हो?
तुम्हें मेरी याद न होगी
लेकिन मुझे तुम नहीं भूली हो
चलती ट्राम में फिर आँखों के आगे झूली हो
तुम्हारी कद-काठी की एक
नन्ही-सी, नेक
सामने आ खड़ी है
तुम्हारी याद उमड़ी है
चेतना पारीक, कैसी हो?
पहले जैसी हो?
आँखों में उतरती है किताब की आग?
नाटक में अब भी लेती हो भाग?
छूटे नहीं हैं लाइब्रेरी के चक्कर?
मुझ से घुमंतू कवि से होती है कभी टक्कर
अब भी गाती हो गीत, बनाती हो चित्र?
अब भी तुम्हारे हैं बहुत-बहुत मित्र?
अब भी बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती हो?
अब भी जिससे करती हो प्रेम उसे दाढ़ी रखाती हो?
चेतना पारीक, अब भी तुम नन्हीं गेंद-सी उल्लास से भरी हो?
उतनी ही हरी हो?
उतना ही शोर है इस शहर में वैसा ही ट्रैफिक जाम है
भीड़-भाड़ धक्का-मुक्का ठेल-पेल ताम-झाम है
ट्यूब रेल बन रही चल रही ट्राम है.
विकल है कलकत्ता दौड़ता अनवरत अविराम है.
इस महावन में फिर भी एक गोरैया की जगह खाली है
एक छोटी चिड़िया से एक नन्हीं पत्ती से सूनी डाली है
महानगर के महाट्टाहास में एक हंसी कम है
विराट धक-धक में एक धडकन कम है
कोरस में एक कंठ कम है
तुम्हारे दो तलुवे जितनी जगह लेते हैं उतनी जगह खाली है
वहाँ उगी है घास वहाँ चुई है ओस
वहाँ किसी ने निगाह तक नहीं डाली है
फिर आया हूँ इस नगर में चश्मा पोंछ-पोंछ देखता हूँ
आदमियों को किताबों को निरखता लिखता हूँ
रंग-बिरंगी बस-ट्राम रंग-बिरंगे लोग
रोग-शोक हँसी-खुशी योग और वियोग
देखता हूँ अबके शहर में भीड़ दूनी है
देखता हूँ तुम्हारे आकार के बराबर जगह सूनी है.
चेतना पारीक, कहाँ हो कैसी हो?
बोलो, बोलो, पहले जैसी हो!
२.
एक मृत कौवा
शहर के कौवों में जों एक कम हो गया है
वह कौवा यही है
फुटपाथ पर सोए लोगों की बगल में
थककर सोया हुआ-सा
लेकिन कौवे फुटपाथ पर नहीं सोते
थके हुए कौवे भी नहीं
फिर कौवे कहाँ सोते हैं
कौवे थकते भी हैं या नहीं?
शहर यह सब नहीं जानता
शहर ने कौवों को नहीं देखा
सुबह-सुबह चिड़ियों को चुग्गा देने वाले बूढों ने
शायद देखा हो
लेकिन शहर उनकी काँव-काँव सुनना
पहले ही बंद कर चुका है
सुबह-सुबह स्कूल जानेवाले बच्चों ने
शायद उन्हें देखा हो
पर शहर उनकी बातों को बच्चों की बातें मानता है
लेकिन यह कौवा शहर के बीचोंबीच आ गिरा है
अपनी सख्त चोंच से किसी अदृश्य रोटी को पकड़ना चाहता हुआ
फुटपाथ पर जिससे बचते हुए लोग
आ जा रहे हैं
सर झुकाए
कल के सूर्योदय को लानेवाले कौवों में
एक कौवा कम हो गया है.
Added my own version to this:
Tumhe is Hospital Ke bed pe dekhkar wahi Savaal
Chetna Parekh Kaisi ho, waisi ki waisi ho?
Tumhari har hassi, woh gussa, woh muskarahat woh sharam
Us heart monitor ke graph ki ganganahat mein dikhayi deti hai
Jaanta hu main, ki yeh tumhari shararat hi hai,
Jo kabhi kabhi us graph ko seedhi pankti banakar,
Hum sabke dil ki dhadkane badha deti hai
Par Ab Doctor Saahab aa gaye hai
Us Sawaal ka Jawab Dene
Nadaani mein woh kehte hai,
Ab tum Chetna Parekh Nahin Ho,
Shaayed Dekh Nahi Sakte Us Graph Mein,
Abhi bhi tum Gaati Ho Geet, Banati ho Chitra,
Ab Bhi Tumhare Hai Bahut Bahut Mitra
Doctor Sahab, Is Sawaal Ka Jawaab,
Aapki Kitaabon mein nahin, Humare Hriday mein milega
Chetna Parekh Kaisi ho? .. Haan, Tum Waisi ki Waisi Ho
ज्ञानेन्द्र पति जी की यह कविता वर्षों से हमारे इर्द-गिर्द रची-बसी है, उनका 60 वर्ष का हो जाना हिन्दी कविता की प्रौढता की निशानी है । प्रभात जी आप शुभकामनाओं के पात्र हैं…. इन कविताओं से भावनात्मक लगाव आप के जरिये और बढ गया है । आप दीर्घायु हों ।
dhanyawad prabhat bhai
gyanendrapati ki kavitayen chamatkar hain
chetna parrek meri pasandida rahi hai
सचमुच गजब का लेखन और दृष्टि… ज्ञानेंद्रपति जी की दीर्घायु की कामना करते हैं. और आपका शुक्रिया इस जैसे महत्वपूर्ण रचनाओं से लगातार हमारा परिचय करवाते रहने के लिए.
चेतना पारीक हम में से अनेक लोगों के मित्र नवनीत बेदार की प्रिय कविता है। चेतना की तुरीय्वस्था में नवनीत 'चेतना पारीक' सुनाता है और चतुर्थ अवस्था में शमशेर की कविता 'टुटी हुई, बिखरी हुई'
ये दोनों कवितायें नवनीत के कारण 'दिगंतर' के साथियों की दिनचर्या में घुल सी गयी है।
मैं अपने सभी साथियों की ओर से ज्ञानेन्द्र पति के लिए दीर्घ जीवन की कामना करता हूँ ।
अभाव अनुभव नहीं होता , दीखता है. ज्ञानेंद्रपति जी दीर्घायु हों.
आपको कोटि-कोटि धन्यवाद "चेतना पारीक" के लिए .
आदरणीय ज्ञानेन्द्र जी दीर्घ जीवन पायें।
प्रभात जी!आप जैसे लोग ब्लाग और फ़ेसबुक की दुनिया को बेहद जीवंत बना दिया है।लगता है,सचमुच एक निजी कोना हो गया है।
देखता हूँ तुम्हारे आकार के बराबर जगह सूनी है |
धन्यवाद प्रभात जी, एक बार फिर से इस कविता को पढ़वाने के लिए | ज्ञानेंद्रपति जी दीर्घायु हों और ऐसे ही रचते रहें |
I read these poems for the first time today. They are really wonderful. I was never so impressed by the other poems of Gyanendrapati I happened to read so far.
चेतना पारीक अब भी तुम नन्हीं गेंद सी उल्लास से भरी हो,
कवि ज्ञानेंद्रपति को बधाई