वीकेंड कविता में इस बार प्रस्तुत है व्यंग्य-कवि संजय गौतम की गज़लें. काका हाथरसी की तर्ज़ पर उनका अनुरोध है इनको हज़ल कहा जाए. आइये उनकी हज़लों का रंग देखते हैं.
एक
पहले जो अपना यार था, अब कैलकुलेटर हो गया,
दो जमा दो में किये, दस गिन के सैटर हो गया.
जब कभी ग़फ़लत हुई, वो देख के मुस्का दिये,
मामला संगीन भी, तत्काल बैटर हो गया.
कल ही तो उन सबने ठाना, फिर भिड़ें राम-ओ-रहीम,
मौन-सा अपने ही लोगों का करैक्टर हो गया.
कौन सी गलियों में भटका है फिरे ये पूछ्ता,
मजनूँ जी, लैला का तो न्यारा ही सैक्टर हो गया.
कल ही तो खुद से कहा था, कर लिया है फैसला,
राह में साकी मिली, सो फिर से मैटर हो गया.
जम्हूरियत के पलँग को जनता निहारे बार-बार,
क्या हुआ दो-चार पायों में जो फ्रैक्चर हो गया.
काठ की बेशक मगर पर किस्मत-ए-कुर्सी अज़ीब,
‘संजय’ किस पर कौन बैठा, बस ये फैक्टर हो गया
दो
कोई तो मजनूँ कहता है, कोई राँझा समझता है.
मगर बातें समोसे की तो आलू ही समझता है.
तू इतना दूर होकर भी, मेरे दिल में ही रहती है,
तेरा बापू भले खुद को तेरा जेलर समझता है.
हम इंसान ही हैं, नाम जो दे दें किसी शै को,
कहाँ कोई गधा खुद को, गधा हरदम समझता है?
चले जो चाँद पर सरपट, फिसलना तय हुआ जानो,
कि ज़ुल्फों की ज़फाओं को तो कँघा ही समझता है.
कमीजें बीस सी डाली हैं, कपड़ा, दो ही का लेकर,
‘संजय’ ग़मशुदा सेहत को तो बस टेलर समझता है.
'हजल', परिचित हुआ आज नई विधा से. साधुवाद
kamaal hai ji kamaal! lage rahiye!
अच्छी है भाई, आपकी हज़ल..
संजय जी अपनी वक्रता से सच में साबित कर दिया है कि यह ठीक-ठीक हज़ल ही है… बेहतरीन है… बधाई…