जबसे घोषणा हुई सबकी नज़र डीएससी प्राइज फॉर साउथ एशियन लिटरेचर पर है. 50 हज़ार अमेरिकी डॉलर का यह पुरस्कार दक्षिण एशिया में साहित्य का सबसे बड़ा पुरस्कार जो है. पिछले दस-पन्द्रह सालों में अंग्रेजी साहित्य को समृद्ध करने वाले सबसे उर्वर क्षेत्र का अपना पुरस्कार. पुरस्कार केवल उपन्यास पर दिया जायेगा. यह केवल दक्षिण एशिया के लेखकों के लिए ही नहीं है बल्कि ऐसे उपन्यासों का चयन भी पुरस्कार के लिए किये जाने का प्रावधान है जिनके कथा की ज़मीन दक्षिण एशिया हो. करीब साल भर से नामों को लेकर तरह-तरह के कयास लगाये जा रहे थे. लेकिन अब सब थम गया लगता है क्योंकि पिछले हफ्ते लन्दन के ग्लोब थिएटर में उन छह नामों की घोषणा कर दी गयी है जिनमें से किसी एक को यह पुरस्कार दिया जायेगा. इन छह लेखकों में अमित चौधरी, मंजू कपूर जैसे भारतीय अंग्रेजी साहित्य के जाने-पहचाने नाम भी हैं तो भारत-पकिस्तान मूल के कुछ ऐसे लेखक भी हैं जिनको यह पुरस्कार अगर मिल गया तो इसमें कोई संदेह नहीं कि वे अंग्रेजी साहित्य के नए ‘पोस्टर बॉय’ बन जायेंगे.
इस समय दक्षिण एशियाई लेखन के नाम पर अंग्रेजी में पाकिस्तानी मूल के लेखकों की धूम मची हुई है. उनको प्रकाशकों की ओर से मोटी एडवांस राशि मिलने लगी है. बड़े-बड़े पुरस्कारों की घोषणा से पहले उनके नामों की गूँज सुनाई देने लगी है. ठीक उसी तरह जिस तरह किसी ज़माने में भारतीय अंग्रेजी लेखकों का जलवा था. इसलिए सूची में पाकिस्तानी मूल के दो लेखकों का नाम देखकर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए. लेकिन मुझे अचरज इस बात का हुआ कि पाकिस्तानी अंग्रेजी साहित्य के पोस्टर बॉय माने जाने वाले लेखकों मोहम्मद हनीफ, मोहसिन हामिद, दनियाल मोईनुद्दीन जैसे लेखों के उपन्यास आखिरी छह में जगह नहीं बना पाए. जबकि कहा जाता है कि हाल के बरसों में इनके लेखन के कारण ही पाकिस्तानी अंग्रेजी साहित्य की ओर पाठकों और प्रकाशकों का ध्यान आकर्षित हुआ. बहरहाल, चयन के अपने तर्क होते हैं, पुरस्कार का अपना गणित होता है. आइये एक-एक करके उन छह लेखकों और उनके चयनित उपन्यासों से परिचित होते हैं.
पाकिस्तान-मूल के दो लेखकों में एक लगभग अनजाना नाम मुशर्रफ आलम फारुकी का है. उनके उपन्यास का नाम है ‘द स्टोरी ऑफ ए विडो’. पाकिस्तान के समकालीन अंग्रेजी साहित्य के बारे में कहा जाता है कि उसमें पाकिस्तानी समाज की विडंबनाएं, उसकी सच्चाई का वर्णन होता है. इसीलिए पाठकों की उसमें रूचि होती है. कनाडा में रहने वाले इस लेखक के उपन्यास में वह सब कुछ है जिसकी अपेक्षा पाठकों को उससे होगी. कहानी के केन्द्र में हाल में ही विधवा हुई एक औरत है जिसकी दो बड़ी बेटियां हैं. विधवा होने के बाद वह जैसे अपने को आज़ाद समझने लगती है और इसी के साथ शुरू होती है पाकिस्तानी समाज की उन रवायतों की बंदिशों की कथा और उन सबको चुनौती देती हुई उस महिला मोना की कहानी. उपन्यास अपने कथा-कलेवर से बताता है कि यह दक्षिण एशिया के पाठकों के लिए उतना नहीं है जितना कि पश्चिम के पाठकों के लिए. इसीलिए भले हमारे यहाँ इस उपन्यास की कोई खास चर्चा न हुई हो मगर मुशर्रफ आलम फारुकी के इस पहले उपन्यास की अंग्रेजी मुल्कों में चर्चा है. जहाँ ‘तिलिस्म-ए-होशरुबा’ और ‘दास्तान-ए-अमीर हम्ज़ा’ का अनुवाद करने के कारण फारुकी की पहले से ही काफी चर्चा रही है.
पकिस्तान मूल के दूसरे लेखक हैं एच.एम.नकवी और उनका उपन्यास है ‘होम बॉय’. नकवी अमेरिका में पढ़ाई पूरी करने के बाद पाकिस्तान के करांची में रहते हैं और करीब ३५ साल के इस लेखक के उपन्यास में वह सब कुछ है जिसकी अपेक्षा एक पाकिस्तानी, एक मुसलमान लेखक से आज के सन्दर्भों में अंग्रेजी का पाठक करता होगा. कहानी में ‘नाइन इलेवन’ का सन्दर्भ आता है. अमेरिका में रहनेवाले तीन दोस्तों की कहानी के माध्यम से लेखक इसका अहसास करवाता है कि उस घटना के बाद अमेरिका में मुसलमानों की पहचान के साथ किस-किस तरह के संकट आए. विषय नया नहीं है. कई फ़िल्में बन चुकी हैं इस विषय पर. पाकिस्तान में ‘खुदा के लिए, अपने बॉलीवुड में ‘माय नाम इज खान’, ‘न्यूयॉर्क’ जैसी फ़िल्में. मोहसिन हामिद के उपन्यास ‘रिलक्टेंट फंडामेंटलिस्ट’ की कहानी में भी अमेरिका के बदलते सन्दर्भों के तनाव की अभिव्यक्ति है. लेकिन उपन्यास केवल विषय नहीं होता, उसकी कहानियों में में विषय किस तरह आता है यह अधिक महत्वपूर्ण होता है शायद.
तीसरा उपन्यास है ‘एटलस ऑफ अननोन्स’. इसकी लेखिका तानिया जेम्स दक्षिण एशियाई मूल की नहीं हैं. डीएससी पुरस्कार का उद्देश्य केवल दक्षिण एशियाई लेखकों को प्रोत्साहित करना नहीं है. बल्कि ऐसे उपन्यासों को प्रोत्साहित करना है जिनकी कथा में दक्षिण एशिया के सन्दर्भ हों. अमेरिका में फिल्म और रचनात्मक लेखन की पढ़ाई कर चुकी तानिया जेम्स के इस पहले उपन्यास की कथा-भूमि भारत है. अमेरिका और भारत में रहने वाली दो बहनों की यह कहानी दो सभ्यताओं की कहानी कहने का भी प्रयास करती दिखाई देती है. भारत का वह प्रदेश केरल है. केरल के ईसाई समाज की कहानी बहुत रोचक तरीके से इसमें आई है. वैसे यह पारिवारिक कथा अधिक है. लेकिन विस्थापन इसके मूल में है.
बाकी तीन उपन्यास भारतीय अंग्रेजी लेखकों के हैं. सबसे पहले नील मुखर्जी के उपन्यास ‘ए लाइफ अपार्ट’ की चर्चा करते हैं. यह उनका दूसरा उपन्यास है. उनके पहले उपन्यास ‘पास्ट कंटीन्यूअस’ को इनाम-इकराम भी मिले थे. साल में आधा समय अमेरिका और आधा समय इंग्लैंड में बिताने वाले इस लेखक की पहचान उस उपन्यास से बन चुकी है. इस दूसरे उपन्यास की कथा ऋत्विक नामक एक युवा की है जो कलकत्ता से ऑक्सफोर्ड पढ़ने आता है. कहानी उसके बचपन में जाती है जहाँ बंगाल का समाज है, उसका ढहता हुआ ताना-बाना है. वह इस उपन्यास टैगोर की एक पात्र मिस गिल्बी की कहानी लिख रहा है. जिसके बहाने उपन्यास में औपनिवेशिक समाज का ताना-बाना बुना गया है. कई पीढ़ियों, कई देशों की इस कथा की किस्सागोई वाकई दिलचस्प है.
इन चार अपेक्षाकृत नए लेखकों के अलावा दो भारतीय लेखक ऐसे हैं जो भारतीय अंग्रेजी लेखन के सुपरिचित नाम कहे जा सकते हैं- अमित चौधरी और मंजू कपूर. अमित चौधरी संगीतकार हैं और उनके नए उपन्यास ‘इम्मोर्टल्स’ की कथा भी संगीत के संदभो से आगे बढती है. कथा का केन्द्र मुंबई है जिसे लेखक हमेशा बॉम्बे लिखता है. कहानी निर्मल्य सेनगुप्ता की स्मृतियों के सहारे बॉम्बे, बँगला बुर्जुआ समाज की कथा कहता है. बाद में निर्मल्य लन्दन आ जाता है. उपन्यास को आत्मकथात्मक भी कहा जा सकता है जिसमें विस्थापन भी है.
अंतिम उपन्यास है मंजू कपूर का ‘द इम्मिग्रेंट’. १९९८ में प्रकाशित अपने पहले उपन्यास ‘डिफिकल्ट डॉटर्स’ के बाद उनका दिल्ली विश्वविद्यालय के मिरांडा हाउस कॉलेज में अंग्रेजी पढाने वाली इस लेखिका का नाम किसी पहचान का मोहताज नहीं है. इस उपन्यास की कहानी ७० के दशक की है. किस तरह एनआरआई का सपना लोगों को अमेरिका-कनाडा खींच ले जाता था. कहानी एक जोड़े की है जिनके वैवाहिक जीवन में विस्थापित धरती का अकेलापन है. विस्थापन की कहानी कोई पहली बार नहीं कही गई है. लेकियो जिस तरह से वे सामान्य जीवन के छोटे-छोटे ब्योरे जुटाती हैं वह उपन्यास को जीवंत बना देता है. यही उनके लेखन की ताकत भी है.
बहरहाल, इन छह उपन्यासों में अगर मुशर्रफ आलम फारूकी के उपन्यास ‘द स्टोरी ऑफ ए विडो’ को छोड़ दें तो बाकी पाँचों उपन्यासों की कथा का सन्दर्भ किसी न किसी रूप में विस्थापन से जुड़ता है. जो एक ज़माने में भारतीय अंग्रेजी लेखन का मूल स्वर कहा जाता था. कह सकते हैं कि आज भी भारतीय उपमहाद्वीप के लेखकों के लिए सफलता का सबसे बड़ा फॉर्मूला बना हुआ है. अगले साल जनवरी में डीएससी पुरस्कार की घोषणा क्या एक बार फिर से सफलता के उसी फॉर्मूले पर मुहर लगायेगी?
इन छह उपन्यासों की सूची देखकर बार-बार मन में यह सवाल कौंधता रहा.
अच्छी जानकारी से लबरेज़ पोस्ट| वाकई ये सोचने वाली बात है कि कोई और विषय को इतनी अहमियत नहीं| क्या ये एक आसन तरीका है, कि बंटवारे या विस्थापित होने के ज़ज्बात को भुनाकर, अवार्ड लिए जांए|
Good posting. Thank U.
Bahut jaankariparak aur dishasuchak. is gyanvardhan ke liye shukriya. waise aap yaha bhi batate ki kis novel ki dawedari zyda banti hai to aur maza aata. halanki usmain thoda jokhim haota hai.khair.PUNAH DHANYAWAD. -ravi buley
… behatreen post !!!