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थोडी हकलाहट थोडी सी बेबाकी

आज राकेश श्रीमाल की कविताएँ. संवेदनहीन होते जाते समय में उनकी कविताओं की सूक्ष्म संवेदनाएं हमें अपने आश्वस्त करती हैं कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है.  राकेश श्रीमाल मध्‍यप्रदेश कला परिषद की मासि‍क पत्रिका कलावार्ता के संपादक, कला सम्‍पदा एवं वैचारिकी के संस्‍थापक मानद संपादक के अलावा जनसत्‍ता मुंबई में 10 वर्ष संपादकीय सहयोग देने के बाद इन दिनों महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिन्‍दी विश्‍वविद्यालय में हैं। जहां से उन्‍होंने 7 वर्ष पुस्‍तक वार्ता का सम्‍पादन किया। वे ललित कला अकादमी की कार्यपरिषद के सदस्‍य रह चुके हैं। वेब पत्रिका कृत्‍या (हिन्‍दी) के वे संपादक है। कविताओं की पुस्‍तक अन्‍य वाणी प्रकाशन से प्रकाशि‍त। इन दिनों एक उपन्‍यास लिख रहे हैं।
कुछ प्रेम क‍‍वि‍ताएं
             
राह देखता
टुकटुक
टुकटुक
घटता हुआ प्रेम
बहुत बाद में समझ आता है
कौन सा क्षण होता है
कौन से शब्‍द
कौन से पहर में
क्‍या सोचता है मन
कौन सी शिराओं से
कौन सी धमनियों में 
बहने लगता है
किन रगों में
सूनसान जैसा शून्‍य
भरने लगता है खुद को
ठीक-ठीक
खुद की ही तरह
घटने के बाद
प्रस्‍फुटित होता है प्रेम
राह देखता
अपने सींचे जाने की
प्रेम का अर्थ
थोडे से पल
थोडा सा ही सुख
ढेर सारी प्रतीक्षा
कुछ अनमनापन
कुछ प्‍यास
कुछ दृष्टि
थोडी हकलाहट
थोडी सी बेबाकी
कुछ ठहराव
कुछ भटकाव
क्‍या
प्रेम का
होता है कोई एक अर्थ
फिक्र
फिक्र है
तो प्रेम है
फिक्र ना हो
तो प्रेम भी ना हो
किसने कहा ऐसा
आखिर
थोडा सोचते हैं
फिर प्रेम करते हैं 
या कि पहले प्रेम करते हैं
फिर सोचते हैं
आखिर
हम क्‍या करते हैं
सफर
प्रेम
एक ऐसा शहर
जहां जाने के लिए
प्रेम की ही
कई पगडंडिया पार करनी पड़ती हैं
नियति
न जाने किन इशारों
न जाने किन ध्‍वनियों
न जाने किन शब्‍दों से
कोई पुकारता है प्रेम में
कोई अनसुना कर देता है
समय
प्रेम में
कोई नहीं रहता
प्रेम में
केवल समय रहता है
प्रति पल
अपने को बदलता हुआ
जि‍ज्ञासा
कोई जब
कहीं नहीं रहता
क्‍या प्रेम में रहता है
अनकहा
वह थोड़ा मुस्‍कराती है
थोड़ा उदास रहती है
कभी कभी
कर लेती है गुस्‍सा भी
कभी पकड़ लेती है हाथ
तो कभी छूना चाहती है
अनदेखा भविष्‍य
कोई नहीं
जो समझ पाए 
वह प्रेम करती है
या प्रेम करना चाहती है
आमंत्रण
हथेली पर रखकर
नहीं किया जा सकता
प्रेम
वह दिखे नहीं
खुद को भी
तभी संभव है प्रेम
प्रेम में
संभव ही नहीं
प्रेम को देख पाना 
 
      

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7 comments

  1. प्रेम को परत दर परत महीनता में महसूसने वाले कवि के प्रेम को सेल्यूट…..

  2. कोई जब
    कहीं नहीं रहता
    क्या प्रेम में रह्ता है?
    ***
    प्रेम का अर्थ
    थोडे से पल
    थोडा सा ही सुख…
    ***
    प्रेम में
    संभव ही नहीं
    प्रेम को देख पाना
    ***
    आह! प्रेम के कितने कितने रूप..बहुत सुंदर व्यंजित किया गया है, वह भी गहन अनुभूति के साथ..राकेश जी के कवि्मन को सलाम

  3. कोई जब
    कहीं नहीं रहता
    क्या प्रेम मे रहता है ?
    ????????????????

  4. घटने के बाद प्रस्फुटित होता है प्रेम
    राह देखता
    अपने सींचे जाने की
    प्रेम का अर्थ
    थोड़े से पल
    थोड़े सा ही सुख …

    और इस प्रतीक्षा में थोड़ी सी हकलाहट और थोड़ी सी बेबाकी में यह कहना –
    फ़िक्र है तो प्रेम है …

    ये फ़िक्र थोडा सोचने देती है ….
    ये सोचना पार करा देता है प्रेम की कई पगडंडियाँ …
    न जाने किन इशारों
    शब्दों , ध्वनियों में किसी का पुकारना रहता है यहाँ और किसी का अनसुना कर देना …
    लेकिन प्रेम फिर भी किसी जिज्ञासा में गुहार लगाता चलता है और पराकाष्ठ ये कि प्रेम में संभव ही नहीं प्रेम को देख पाना …
    सुन्दर अभिव्यक्ति …

  5. प्रेम ऐसा शहर या ऐसा गांव जहाँ जाने के लिए पार करनी पड़ती हैं प्रेम की कई पगडंडियाँ ..सुन्दर अति सुन्दर ..सादर शुभकामनायें

  6. कोई जब
    कहीं नहीं रहता
    क्या प्रेम में रहता है
    वाह……..

  7. prbhat ji kya sanyog hai ki rakesh ji ki kavitayen samalochan men bhi aaj hi aain. bdhaiyan. bdhai.

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