प्रियदर्शन की कविताओं में किसी विराट का प्रपंच नहीं है, उनमें छोटे-छोटे जीवनानुभव हैं, उसकी जद्दोजहद है, बेचैनी है. इसीलिए वह अपने करीब महसूस होती है. उनका अपना काव्य-मुहावरा है जो चिंतन की ठोस ज़मीन पर खड़ा है. प्रस्तुत है उनकी कविताएँ- जानकी पुल.
1.
तोड़ना और बनाना
बनाने में कुछ जाता है
नष्ट करने में नहीं
बनाने में मेहनत लगती है. बुद्धि लगती है, वक्त लगता है
तो़ड़ने में बस थोड़ी सी ताकत
और थोड़े से मंसूबे लगते हैं।
इसके बावजूद बनाने वाले तोड़ने वालों पर भारी पड़ते हैं
वे बनाते हुए जितना हांफते नहीं,
उससे कहीं ज्यादा तोड़ने वाले हांफते हैं।
कभी किसी बनाने वाले के चेहरे पर थकान नहीं दिखती
पसीना दिखता है, लेकिन मुस्कुराता हुआ,
खरोंच दिखती है, लेकिन बदन को सुंदर बनाती है।
लेकिन कभी किसी तोड़ने वाले का चेहरा
आपने ध्यान से देखा है?
वह एक हांफता, पसीने से तर-बतर बदहवास चेहरा होता है
जिसमें सारी दुनिया से जितनी नफरत भरी होती है,
उससे कहीं ज्यादा अपने आप से।
असल में तोड़ने वालों को पता नहीं चलता
कि वे सबसे पहले अपने-आप को तोड़ते हैं
जबकि बनाने वाले कुछ बनाने से पहले अपने-आप को बनाते हैं।
दरअसल यही वजह है कि बनाने का मुश्किल काम चलता रहता है
तोड़ने का आसान काम दम तोड़ देता है।
तोड़ने वालों ने बहुत सारी मूर्तियां तोड़ीं, जलाने वालों ने बहुत सारी किताबें जलाईं
लेकिन बुद्ध फिर भी बचे रहे, ईसा का सलीब बचा रहा, कालिदार और होमर बचे रहे।
अगर तोड़ दी गई चीजों की सूची बनाएं तो बहुत लंबी निकलती है
दिल से आह निकलती है कि कितनी सारी चीजें खत्म होती चली गईं-
कितने सारे पुस्तकालय जल गए, कितनी सारी इमारतें ध्वस्त हो गईं,
कितनी सारी सभ्यताएं नष्ट कर दी गईं, कितने सारे मूल्य विस्मृत हो गए
लेकिन इस हताशा से बड़ी है यह सच्चाई
कि फिर भी चीजें बची रहीं
बनाने वालों के हाथ लगातार रचते रहे कुछ न कुछ
नई इमारतें, नई सभ्यताएं, नए बुत, नए सलीब, नई कविताएं
और दुनिया में टूटी हुई चीजों को फिर से बनाने का सिलसिला।
ये दुनिया जैसी भी हो, इसमें जितने भी तोड़ने वाले हों,
इसे बनाने वाले बार-बार बनाते रहेंगे
और बार-बार बताते रहेंगे
कि तोड़ना चाहे जितना भी आसान हो, फिर भी बनाने की कोशिश के आगे हार जाता है।
2.
नष्ट कुछ भी नहीं होता
नष्ट कुछ भी नहीं होता,
धूल का एक कण भी नहीं,
जल की एक बूंद भी नहीं
बस सब बदल लेते हैं रूप
उम्र की भारी चट्टान के नीचे
प्रेम बचा रहता है थोड़ा सा पानी बनकर
और अनुभव के खारे समंदर में
घृणा बची रहती है राख की तरह
गुस्सा तरह-तरह के चेहरे ओढ़ता है,
बात-बात पर चला आता है,
दुख अतल में छुपा रहता है,
बहुत छेड़ने से नहीं,
हल्के से छू लेने से बाहर आता है,
याद बादल बनकर आती है
जिसमें तैरता है बीते हुए समय का इंद्रधनुष
डर अंधेरा बनकर आता है
जिसमें टहलती हैं हमारी गोपन इच्छाओं की छायाएं
कभी-कभी सुख भी चला आता है
अचरज के कपड़े पहन कर
कि सबकुछ के बावजूद अजब-अनूठी है ज़िंदगी
क्योंकि नष्ट कुछ भी नहीं होता
धूल भी नहीं, जल भी नहीं,
जीवन भी नहीं
मृत्यु के बावजूद
3.
इतिहास में पन्ना धाय
मैं शायद तब सोया हुआ था
जब तुम मुझे अपनी बांहों में उठा कर
राजकुमार की शय्या तक ले गई मां,
हो सकता है, नींद के बीच यह विचलन
इस आश्वस्ति में फिर से नींद का हिस्सा हो गया हो
कि मैं अपनी मां की गोद में हूं
लेकिन क्या उस क्षणांश से भी छोटी, लेकिन बेहद गहरी यातना में
जिसमें हैरत और तकलीफ दोनों शामिल रही होगी,
क्या मेरा बदन छटपटाया होगा,
क्या मेरी खुली आंखों ने हमेशा के लिए बंद होने के पहले
तब तुम्हें खोजा होगा मां
जब बनवीर ने मुझे उदय सिंह समझ कर अपनी तलवार का शिकार बना डाला?
पन्ना धाय,
ठीक है कि तब तुम एक साम्राज्य की रक्षा में जुटी थी,
अपने नमक का फर्ज और कर्ज अदा कर रही थी
तुमने ठीक ही समझा कि एक राजकुमार के आगे
तुम्हारे साधारण से बेटे की जान की कोई कीमत नहीं है
मुझे तुमसे कोई शिकायत भी नहीं है मां
लेकिन पांच सौ साल की दूरी से भी यह सवाल मुझे मथता है
कि आखिर फैसले की उस घड़ी में तुमने
क्या सोच कर अपने बेटे की जगह राजकुमार को बचाने का फैसला किया?
यह तय है कि तुम्हारे भीतर इतिहास बनने या बनाने की महत्त्वाकांक्षा नहीं रही होगी
यह भी स्पष्ट है कि तुम्हें राजनीति के दांव पेचों का पहले से पता होता
तो शायद तुम कुछ पहले राजकुमार को बचाने का कुछ इंतज़ाम कर पाती
और शायद मुझे शहीद होना नहीं पड़ता।
लेकिन क्या यह संशय बिल्कुल निरर्थक है मां
कि उदय सिंह तुम्हें मुझसे ज़्यादा प्यारे रहे होंगे?
वरना जिस चित्तौ़ड़गढ़ का अतीत, वर्तमान और भविष्य तय करते
तलवारों की गूंज के बीच तुम्हारी भूमिका सिर्फ इतनी थी
कि एक राजकुमार की ज़रूरतें तुम समय पर पूरी कर दो,
वहां तुमने अपने बेटे को दांव पर क्यों लगाया?
या यह पहले भी होता रहा होगा मां,
जब तुमने मेरा समय, मेरा दूध, मेरा अधिकार छीन कर
बार-बार उदय सिंह को दिया होगा
और धीरे-धीरे तुम उदय सिंह की मां हो गई होगी?
कहीं न कहीं इस उम्मीद और आश्वस्ति से लैस
कि राजवंश तुम्हें इसके लिए पुरस्कृत करेगा?
और पन्ना धाय, वाकई इतिहास ने तुम्हें पुरस्कृत किया,
तुम्हारे कीर्तिलेख तुम्हारे त्याग का उल्लेख करते अघाते नहीं
जबकि उस मासूम बच्चे का ज़िक्र
कहीं नहीं मिलता
जिसे उससे पूछा बिना राजकुमार की वेदी पर सुला दिया गया।
हो सकता है, मेरी शिकायत से ओछेपन की बू आती हो मां
आखिर अपनी ममता को मार कर एक साम्राज्य की रक्षा के तुम्हारे फैसले पर
इतिहास अब भी ताली बजाता है
और तुम्हें देश और साम्राज्य के प्रति वफा़दारी की मिसाल की तरह पेश किया जाता है
अगर उस एक लम्हे में तुम कमज़ोर पड़ गई होती
तो क्या उदय सिंह बचते, क्या राणा प्रताप होते
और
क्या चित्तौड़ का वह गौरवशाली इतिहास होता जिसका एक हिस्सा तुम भी हो?
लेकिन यह सब नहीं होता तो क्या होता मां?
हो सकता है चित्तौड़ के इतिहास ने कोई और दिशा ली होती?
हो सकता है, वर्षों बाद कोई और बनवीर को मारता
और
इतिहास को अपने ढंग से आकार देता?
हो सकता है, तब जो होता, वह ज्यादा गौरवपूर्ण होता
और नया भी,
इस लिहाज से कहीं ज्यादा मानवीय
कि उसमें एक मासूम बेख़बर बच्चे का खून शामिल नहीं होता?
इतिहास का चक्का बहुत बड़ा होता है मां
हम सब इस भ्रम में जीते हैं
कि उसे अपने ढंग से मोड़ रहे हैं
लेकिन असल में वह हमें अपने ढंग से मोड़ रहा होता है
वरना पांच सौ साल पुराना सामंती वफ़ादारी का चलन
पांच हजार साल पुरानी उस मनुष्यता पर भारी नहीं पड़ता
जिसमें एक बच्चा अपनी मां की गोद को दुनिया की सबसे सुरक्षित
जगह समझता है
और बिस्तर बदले जाने पर भी सोया रहता है।
दरअसल इतिहास ने मुझे मारने से पहले तुम्हें मार डाला मां
मैं जानता हूं जो तलवार मेरे कोमल शरीर में बेरोकटोक धंसती चली गई,
उसने पहले तुम्हारा सीना चीर दिया होगा
और मेरी तरह तुम्हारी भी चीख हलक में अटक कर रह गई होगी
यानी हम दोनों मारे गए,
बच गया बस उदय सिंह, नए नगर बसाने के लिए, नया इतिहास बनाने के लिए
बच गई बस पन्ना धाय इतिहास की मूर्ति बनने के लिए।
गुस्सा और चुप्पी
बहुत सारी चीज़ों पर आता है गुस्सा
सबकुछ तोड़फोड़ देने, तहस-नहस कर देने की एक आदिम इच्छा उबलती है
जिस पर विवेक धीरे-धीरे डालता है ठंडा पानी
कुछ देर बचा रहता है धुआं इस गुस्से का
तुम बेचैन से भटकते हो,
देखते हुए कि दुनिया कितनी ग़लत है, ज़िंदगी कितनी बेमानी,
एक तरह से देखो तो अच्छा ही करते हो
क्योंकि तुम्हारे गुस्से का कोई फ़ायदा नहीं
जो तुम तोड़ना चाहते हो वह नहीं टूटेगा
और बहुत सारी दूसरी चीजें दरक जाएंगी
हमेशा-हमेशा के लिए
लेकिन गुस्सा ख़त्म हो जाने से
क्या गुस्से की वजह भी ख़त्म हो जाती है?
क्या है सही- नासमझ गुस्सा या समझदारी भरी चुप्पी?
क्या कोई समझदारी भरा गुस्सा हो सकता है?
ऐसा गुस्सा जिसमें तुम्हारे मुंह से बिल्कुल सही शब्द निकलें
तुम्हारे हाथ से फेंकी गई कोई चीज बिल्कुल सही निशाने पर लगे
और सिर्फ वही टूटे जो तुम तोड़ना चाहते हो?
लेकिन तब वह गुस्सा कहां रहेगा?
उसमें योजना शामिल होगी, सतर्कता शामिल होगी
सही निशाने पर चोट करने का संतुलन शामिल होगा
कई लोगों को आता भी है ऐसा शातिर गुस्सा
उनके चेहरे पर देखो तो कहीं से गुस्सा नहीं दिखेगा
हो सकता है, उनके शब्दों में तब भी बरस रहा हो मधु
जब उनके दिल में सुलग रही हो आग।
तुम्हें पता भी नहीं चलेगा
और तुम उनके गुस्से के शिकार हो जाओगे
उसके बाद कोसते रहने के लिए अपनी क़िस्मत या दूसरों की फितरत
लेकिन कई लोगों के गुस्से की तरह
कई लोगों की चुप्पी भी होती है ख़तरनाक
तब भी तुम्हें पता नहीं चलता
कि मौन के इस सागर के नीचे धधक रही है कैसी बड़वाग्नि
उन लोगों को अपनी सीमा का अहसास रहता है
और शायद अपने समय का इंतज़ार भी।
कायदे से देखो
तो एक हद के बाद गुस्से और चुप्पी में ज़्यादा फर्क नहीं रह जाता
कई बार गुस्से से भी पैदा होती है चुप्पी
और चुप्पी से भी पैदा होता है गुस्सा
कुल मिलाकर समझ में यही आता है
कुछ लोग गुस्से का भी इस्तेमाल करना जानते हैं और चुप्पी का भी
उनके लिए गुस्सा भी मुद्रा है, चुप्पी भी
वे बहुत तेजी से चीखते हैं और उससे भी तेजी से ख़ामोश हो जाते हैं
उन्हें अपने हथियारों की तराश और उनके निशाने तुमसे ज्यादा बेहतर मालूम हैं
तुमसे न गुस्सा सधता है न चुप्पी
लेकिन इससे न तुम्हारा गुस्सा बांझ हो जाता है न तुम्हारी चुप्पी नाजायज़
बस थोड़ा सा गुस्सा अपने भीतर बचाए रखो और थोड़ी सी चुप्पी भी
मुद्रा की तरह नहीं, प्रकृति की तरह
क्योंकि गुस्सा भी कुछ रचता है और चुप्पी भी
हो सकता है, दोनों तुम्हारे काम न आते हों,
लेकिन दूसरों को उससे बल मिलता है
जैसे तुम्हें उन दूसरों से,
कभी जिनका गुस्सा तुम्हें लुभाता है, कभी जिनकी चुप्पी तुम्हें डराती है।
DHANYAWAD PRIYADARSHAN JI SCHOOL MEIN PADA THA "PANNA DHAAY" KE AVISMARNIYA BALIDAN KE BARE MEIN KITNE SAAL HO GAYE BHUL GAYA THA AAJ AAPKI KAVITA NE FIR YAAD DILA DIYA AUR AB KOSHISH KARUNGA KE KABHI NHY BHULU US MAHHAN "MAA" KE BARE MEIN.
प्रियदर्शन की कविताओं में पारदर्शी नयापन है. अनुभव को यानी विचारों को सम्वेदना से जोड़ कर व्यक्त करने की कला है यह. इस सरलता में कवि के आयास का पता नहीं चलत यह भी इन कविताओं की ख़ूबी है. उन्हें बधाई.– नीलाभ
प्रियदर्शन की कविताओं में पारदर्शी नयापन है. अनुभव को यानी विचारों को सम्वेदना से जोड़ कर व्यक्त करने की कला है यह. इस सरलता में कवि के आयास का पता नहीं चलत यह भी इन कविताओं की ख़ूबी है. उन्हें बधाई.
इतिहास में पन्ना धाय कविता बहुत ही मार्मिक कविता है. ऐसी भावना प्रधान कविता में संयम बरतना बहुत कठिन होता है. रस्सी पर चलने की तरह. पर आप संयतता का निर्वाह बखूबी कर पाए हैं. सच है इतिहास की हर ताली के पीछे किसी का बलिदान, किसी के आँसू होते हैं. कविता दुःख से बोझिल करने वाली है. पर एक रचनाकार के रूप में थोड़ा संतोष है कि आज अपने समाज से किसी ने उस मासूम बच्चे का कर्ज पांच सौ साल बाद स्वीकारा, उतारना तो खैर नामुमकिन है.
vichaarpoorna rachnayein!
माँ यूँ ही नहीं होम सकती
नौ माह की उस सुखद पीड़ा को
जिसमें हर दिन एक नन्हा जिस्म होता है
जिसे वह घुंघराले बालों
कोंपल -स्पर्श
बड़ी आँखों
पतले अधरों के बीच
मुस्कान सा दबा पाती है
और दर्पण में
देखती है जब भी सुभीते से शक्ल अपनी
कोई किलकारी जिन्दा हो
उभर आती है
जिसे वह अपनी बाहों में भर
नौ माह से पूर्व ही
हर क्षण खिलाती है .
फिर क्यों उसे इतिहास में दर्ज होना पड़ता है ?
एक पन्नाधाय
अध्याय में जुड़ा पन्ना बनकर !
तालियाँ तब ही बजा करती हैं
जब मंच पर अँधेरा होता है
और एक खेल
विस्मय छोड़
परदे में छिप जाता है .
इस बीच कोई नहीं जानता कि
वह पात्र जो अभी रोया था
जोर से हंसा था
क्रोधित हुआ था
क्या अभिनय था ?
या अपनी संवेदनाओं का फेंका जाल ?
या उसके जीवन की घटना
जिसे उसने कभी चाहा नहीं
पर तमाशे का हिस्सा हुई ..
जब सियासत मांगने बैठती है
खून
तब सलीब हो जाती है ईसा
और कोई मरियम रो नहीं पाती चीखकर ..
पन्नाधाय भी सियासत का क़त्ल था
जिसे पूजने के लिए
मजबूर होना था ..
वह कभी इतिहास नहीं थी
सिर्फ माँ थी
जो न मर्सिया गा सकी
न अपनी सर्द उंगलियाँ रख सकी इतिहास के जबड़ों पर
उसकी कातरता
आज भी कहीं राणा के महलों में
चिपकी होगी निगाह बन
अपनी रोशनी में देख पाओ तो ठीक
नहीं तो इतिहास की तालियाँ में कभी सुन न पाओगे
रुदन , जो पन्ना ने होंठों से काट लिया था !
जब्त आँखें !
अपर्णा
सभी कविताएँ गंभीर और संवेदनाओं के बहुत करीब , किन्तु 'इतिहास में पानाधाय 'कविता ने सोचने को मजबूर किया . रोंगटे खड़े हुए , आसूं भी आये ; शायद इसलिए कि हम एक माँ हैं .इतिहास ताली बजता रहेगा , गौरव गाथा सुनाई जाती रहेगी किन्तु वह शिशु .. उसका ……नाम कितना दर्ज हुआ इस गौरव गाथा में ?
विचारोत्तेजक रचनाएँ !
अच्छी कविताएँ मिलीं पढ़ने के लिए…