इतिहासकार नयनजोत लाहिड़ी ने अपनी पुस्तक ‘विस्मृत नगरों की खोज’ में लिखा है कि १९२४ की शरद ऋतु में पुरातत्ववेत्ता जॉन मार्शल ने एक ऐसी घोषणा की, जिसने दक्षिण एशिया की पुरातनता की उस समय की सारी अवधारणाओं को चमत्कारिक ढंग से परिवर्तित कर दिया: यह घोषणा थी ‘सिंधु घाटी की सभ्यता’ की खोज. कल शाम ओम थानवी की पुस्तक ‘मुअनजोदड़ो’ का लोकार्पण हुआ. उस पुस्तक को पढते हुए लगा जैसे साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, यात्रावृत्त, दर्शन की बनी-बनाई सीमायें कुछ धुंधली पड़ गई हों. एक गहरी काव्यात्मकता और विवेक-दृष्टि के साथ लिखी गई उस पुस्तक के एक अंश का आस्वाद लेते हैं- जानकी पुल.
मन में अजीब हलचल थी. क्या कुछ देर रुक नहीं सकते! बस थोड़ी देर और. टीले पर एक बार फिर चढें और स्तूप कि मुंडेर से सूर्यास्त देखें. ढलता हुआ वह आदिम सूरज जो हज़ारों साल पहले आबाद मुअनजोदड़ो कि गहमागहमी में किसी शाम ठीक यहीं, ऐसा ही डूबा होगा! तहजीबें बनती हैं गुरूब होती हैं; लेकिन सूरज-चांद के उदय-अस्त ही हैं जो जस के तस रहते हैं. अक्षुण्ण, चिरंतन. सजीव और पवित्र.
लेकिन लौटना होगा. हज़ार दुविधाएं लेकर सिंध में कदम रखा था. मुअनजोदड़ो की तफरीह ने मन की कई गांठें खोल दिन. हडप्पा हो आने का भी मन था. पर दूरी ने हतोत्साह किया.
हज़ारों अधूरी ख्वाहिशों में एक मुख़्तसर को और जमा करके हमने मुअनजोदड़ो को विदा कह दिया. इंशाअल्लाह, फिर आयेंगे. दिया मन को दिलासा. पांव पलटे और आगे बढ़े. गुलाब बोले, मैं लाड़काणा तक आपके साथ चलूँगा. वहां से दूसरी टैक्सी दिलवाकर लौट आऊंगा. ज़रूर चलें. जुदाई का वक्त है, पर मन हलका है. एक गहरा आत्मतोष, एक तसल्ली. अपनी आँख से मुअनजोदड़ो देखा है. मुअनजोदड़ो…सभ्यताओं की सभ्यता. संस्कृति का तीर्थ. कला का आदि-पर्व.
लाड़काणा तक का सफर चुप्पी में गुज़रा. जैसे हम कदीम खंडहरों के गड्डमड्ड मंज़र समेटकर मन में तरतीबवार कर रहे हों. ख्यालों का सिलसिला कभी दृश्य के भीतर जाता, कभी बाहर. अनुभव हुआ कि सिंधु घाटी सभ्यता को लेकर खुदाई कम हुई है, विवादों की जड़ें ज्यादा खोदी गई हैं. यह बहस ज्यादा मायने नहीं रखती कि हड़प्पाई लोग आर्य थे या अनार्य; वेद पहले लिखे गए या बाद में. वेद भले बाद में लिखे गए हों या लोग ‘बाहर’ से आये हों, लेकिन यह मानना मुश्किल होगा कि सभ्यता- जिसका देशज होना स्थापित है- लुप्त हुई तो खत्म भी हो गई. खेती, पशुपालन और नगर नियोजन में तो सभ्यता एक विराट क्रांति ही थी. इसके साथ सभ्यता के वे चिह्न भी अहम हैं जिन्होंने हमें कुदरत और अपने पर्यावरण से तालमेल की एक अनूठी जीवन-शैली दी. कुछ विद्वानों ने शिवलिंग, हवनकुंड, स्वास्तिक और कमंडल जैसे प्रतीकों के जरिये हड़प्पा सभ्यता को हिंदू सभ्यता साबित करने का बहुत जतन किया है. लेकिन इसमें भावना का पुट ज्यादा, विवेक कम है.
निश्चय ही धीरे-धीरे स्वरुप लेने वाले भारतीय जीवन-दृष्टि के कुछ पहलुओं में हड़प्पा सभ्यता की छाप देखी जा सकती है. मसलन, सामूहिक स्नान-कुंड की मौजूदगी. या मुहरों पर ‘महायोगी’ की छवि. जंगली पशुओं से घिरे महापुरुष आदि-शिव हों न हों, उसे योग का आसन माना जा सकता है. संसार मानता है कि योग भारत की मौलिक देन है. दिलचस्प बात है कि व्यक्ति को भीतर की तरफ मोड़ने वाले योग का पाठ समृद्ध और नागर मुअनजोदड़ो से आया होगा. छोड़ने का मतलब तभी है जब छोड़ने के लिए आपके पास कुछ हो. यह त्याग है. आँख होने के अहंकार का विलय कर आँख मूंदना और भीतर की आँख से खुद को और दुनिया को देखना. शब्दों के पार मौन में अर्थ ढूँढना. दो पांव से दुनिया नापने की महत्वकांक्षा के बरक्स पालथी मार कर बैठना और काल की दूरी नापना. हाथ पर हाथ धर कर बैठना हमेशा निरर्थक नहीं होता. समृद्धि और भव्यता के बीच मुअनजोदड़ो की मुहरों का यह गहरा सन्देश है.
मुअनजोदड़ो की दोनों विख्यात छवियों- ‘नरेश’ और ‘नर्तकी’ की-आँखें खुली नहीं हैं. बंद या अध-मुंदी आँखों में अपनी गरिमा का वास है. यह अकारण नहीं कि मुअनजोदड़ो की यह भंगिमा कई सदियों बाद फिर हमारे देश में ही बुद्ध और महावीर की ध्यान-मुद्रा में दिखलाई दी.
अच्छा होता कि मुअनजोदड़ो की लिपि पढ़ी जा सकती. मगर उनके कला-रूपों की भाषा और उसके सन्देश तो बगैर लिपि के भी पढ़े जा सकते हैं. सिंधु घाटी की मुहरों में मनचाहे श्लोक ढूंढने से बेहतर होगा सभ्यता का दर्शन और उसकी उदात्त कला-दृष्टि की पहचान की जाए. हड़प्पा- मुअनजोदड़ो के चित्रों के बिम्ब, चेहरों के भाव और आकृतियों के संयोजन पढ़ने का महत्त्व इबारतें पढ़ने से कमतर नहीं माना जायेगा.
शान्ति, अहम का विलय, कला के लघु-रूप और प्रकृति का सान्निध्य. लेकिन सिर्फ यही सिंधु सभ्यता से आम भारतीय का रिश्ता नहीं जोड़े रखते. सच्चाई यह है कि हम आज भी ईंटें उसी आकार में वैसे ही सेंक कर बरतते हैं जैसे पांच हज़ार साल पहले बरती गई थीं. खेत, हल, सिंचाई, फसलें, बैलगाड़ियां, गहने, घर, कुएं, जल-निकास और कला व शिल्प की अनेक परम्पराएँ आज भी वैसी ही चली आती हैं, जैसी तब थीं. मुअनजोदड़ो की ‘नर्तकी’ के बाएं हाथ में कलाई से कंधे तक जो ‘चूड़ा’ है, वह भारत और पाकिस्तान के थार में औरतों के हाथों पर आज भी उसी रूप में देखा जा सकता है. सही है कि सभ्यता के उस उत्कर्ष के चंद अवशेष हैं. लेकिन संस्कृतियाँ इसी तरह कुछ छोड़ते और कुछ जोड़ते हुए आगे बढती हैं. किसी ने ठीक कहा है कि अतीत कभी मरता नहीं है.
सही मायनों में हड़प्पा सभ्यता किसी कर्मकांड की स्थापना नहीं, एक दर्शन का सूत्रपात थी. हथियारों से दूर एक शांतिप्रिय सभ्यता, ‘योग’ के आत्मानुशासन में अंतर्मुखी चेतना का सन्देश देती हुई. ग्रेगरी पोसेल के शब्दों में, संस्कृति की शक्ल में एक ऐसा विश्वास जो सभ्यता का ‘मानवीय चेहरा’ पेश करता है. हम इसे ‘भारतीय’ कह सकते हैं. लेकिन अब पाकिस्तान-बंगलादेश के बंटवारे के बाद भारतीयता के लिए भी शायद कोई नया नाम ढूँढना पड़े, जो उन्हें भी मंज़ूर हो!
जो हो, उस परंपरा को भारतीय उप-महाद्वीप में एक साझा विरासत के रूप में साफ़ तौर पर पहचाना जा सकता है. जैसा कि सिंध के एक नेता ने कहा थ- हम चंद दशकों से पाकिस्तानी हैं, कुछ सदियों से मुसलमान, मगर हजारों साल से सिंधी हैं. हमारी विविधता में यह एक केन्द्रीय सूत्र है. इस परम्परा का जीता-जागता प्रतीक सिंधु घाटी की सभ्यता है. इस परम्परा को वैदिक सभ्यता ने समृद्ध किया है. इस्लाम ने भी.
अज्ञेय की दो पंक्तियों की एक कविता है- ‘सांझ-सबेरे’:
रोज सबेरे मैं थोड़ा-सा अतीत में जी लेता हूँ-
क्योंकि रोज शाम को मैं थोड़ा-सा भविष्य में मर जाता हूँ.
मुअनजोदड़ो के अतीत में कई जिंदगियां एक साथ जीकर आया हूँ.
ओम थानवी जी आचा लिखते तो हैं ही ,पर उनके इतिहासकार वाले रूप का दिग्दर्शन अभी पता चला ,पुस्तक पढने की अभिलाषा जागृत हो गयी है ,बहुत बधाई
और अधिक पढ़ने की प्यास जग गई है ।